
रात की अलसाई मंजरी
भोर के एक चुम्बन से,
सकुचाई लालिमा लिए
रवि के लाली से
और भी लाल हो गई।
अब तो ना उसे
किसी भंवरे का डर है
और ना ही माली की
रह गई कोई कदर है
आज फिर तैयार है
बिछ जाने को
बिखर जाने को
उसे संवारने को
वह जैसे जानती है
अभ्र मींच कर दृग
बाट जोहता होगा
वसुधा को सजाने को
उससे पुनः मिलाने को
विद्यावाचस्पति अश्विनी राय ‘अरुण’