वीर सावरकर कौन हैं ? अथवा क्या थे?…
यह हमें नहीं पता, यह सिर्फ आप बता सकते हैं। कृपया हमें उन्हें जानने में मदद करें, कुछ साक्ष्य हैं जो आपके सम्मुख उनकी पुस्तक को आधार बनाकर प्रस्तुत करता हूँ…
सावरकर की लिखी एक पुस्तक है, “१८५७ का स्वातंत्र्य समर” जो एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में उन्होंने तथाकथित ‘सिपाही विद्रोह’ का सनसनीखेज व खोजपूर्ण इतिहास लिख कर ब्रिटिश शासन के चूर को हिला डाला था। इस पुस्तक को प्रकाशन से पूर्व ही प्रतिबन्धित होने का गौरव प्राप्त है।
अधिकांश इतिहासकारों ने १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक ‘सिपाही विद्रोह’ या अधिकतम भारतीय विद्रोह कहा था। दूसरी ओर भारतीय विश्लेषकों ने भी इसे तब तक एक योजनाबद्ध राजनीतिक एवं सैन्य आक्रमण कहा था, जो भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के ऊपर किया गया था।
पुस्तक लेखन से पूर्व सावरकर के मन में अनेक प्रश्न थे और यही प्रश्न, उत्तर बनकर पुस्तक स्वरूप में जनमानस के सम्मुख प्रस्तुत हुई…
१. सन् १८५७ का यथार्थ क्या है?
२. क्या वह मात्र एक आकस्मिक सिपाही विद्रोह था?
३. क्या उसके नेता अपने तुच्छ स्वार्थों की रक्षा के लिए अलग -अलग इस विद्रोह में कूद पडे़ थे, या वे किसी बडे़ लक्ष्य की प्राप्ति के लिए एक सुनियोजित प्रयास था?
४. योजना का स्वरूप क्या था?
५. क्या सन् १८५७ एक बीता हुआ बन्द अध्याय है या भविष्य के लिए प्रेरणादायी जीवन्त यात्रा?
६. भारत की भावी पीढ़ियों के लिए १८५७ का संदेश क्या है?
उन्हीं ज्वलन्त प्रश्नों का उत्तर ढ़ूढने की परिणति थी, “१८५७ का स्वातंत्र्य समर”
उन्होंने कई माह इण्डिया ऑफिस पुस्तकालय में इस विषय पर अध्ययन में बिताए और फिर पूरी पुस्तक मूलतः मराठी में लिखी व १९०८ में पूर्ण की। क्योंकि उस समय इसका भारत में मुद्रण असम्भव था, इसकी मूल प्रति इन्हें लौटा दी गई। इसका मुद्रण इंग्लैंड व जर्मनी में भी असफल रहा। इंडिया हाउस में रह रहे कुछ छात्रों ने इस पुस्तक का अंग्रेज़ी अनुवाद किया और अन्ततः यह पुस्तक १९०९ में हॉलैंड में मुद्रित हुई…
इसका शीर्षक था, ‘द इण्डियन वार ऑफ इंडिपेन्डेंस – १८५७’। इस पुस्तक का द्वितीय संस्करण लाला हरदयाल द्वारा गदर पार्टी की ओर से अमरीका में निकला और तृतीय संस्करण सरदार भगत सिंह द्वारा निकाला गया। इसका चतुर्थ संस्करण नेताजी सुभाष चन्द्र बोस द्वारा सुदूर-पूर्व में निकाला गया। फिर इस पुस्तक का अनुवाद उर्दु, हिंदी, पंजाबी व तमिल में किया गया। इसके बाद एक संस्करण गुप्त रूप से भारत में भी द्वितीय विश्वयुद्ध के समाप्त होने के बाद मुद्रित हुआ। इसकी मूल पाण्डुलिपि मैडम भीकाजी कामा के पास पैरिस में सुरक्षित रखी थी। यह प्रति अभिनव भारत के डॉ॰ क्यूतिन्हो को प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान पैरिस में संकट आने के दौरान सौंपी गई। डॉ॰ क्युतिन्हो ने इसे किसी पवित्र धार्मिक ग्रन्थ की भांति ४० वर्षों तक सुरक्षित रखा। भारतीय स्वतंत्रता उपरान्त उन्होंने इसे रामलाल वाजपेयी और डॉ॰ मूंजे को दे दिया, जिन्होंने इसे सावरकर को लौटा दिया। इस पुस्तक पर लगा निषेध अन्ततः मई, १९४६ में बंबई सरकार द्वारा हटा लिया गया।
अब देखिए एक तरफ जहां सरकार प्रतिबंध लगाती है वहीं फिर वही सरकार प्रतिबंध हटा भी लेती है। एक तरफ भारत के साथ साथ यूरोप भी पुस्तक मुद्रण के लिए तैयार नहीं होता है वहीं दूसरी तरफ पूरा विश्व पुस्तक के इंतजार में है…
सावरकर जी द्वारा रचित इतिहास के इस महान रचना ने सन् १९१४ के गदर आन्दोलन से १९४३-४५ की आजाद हिन्द फौज तक कम-से-कम दो पीढ़ियों को स्वतंत्रता के लिए संघर्ष की प्रेरणा दी। मुम्बई की ‘फ्री हिन्दुस्तान’ साप्ताहिक पत्रिका में मई १९४६ में ‘सावरकर विशेषांक’ प्रकाशित किया, जिसमें के.एफ. नरीमन ने अपने लेख में स्वीकार किया कि आजाद हिन्द फौज की कल्पना और विशेषकर रानी झाँसी रेजीमेन्ट के नामकरण की मूल प्रेरणा सन १८५७ की महान क्रान्ति पर वीर सावरकर की जब्तशुदा रचना में ही दिखाई देती है। उसी अंक के ‘वेजवाडा की गोष्ठी’ नामक पत्रिका के संपादक जी.वी. सुब्बाराव ने लिखा कि, “यदि सावरकर ने १८५७ और १९४३ के बीच हस्तक्षेप न किया होता तो मुझे विश्वास है कि ‘गदर’ शब्द का अर्थ ही बदल गया होता। यहां तक कि अब लॉर्ड वावेल भी इसे एक मामूली गदर कहने का साहस नहीं कर सकता। इस परिवर्तन का पूरा श्रेय सावरकर और केवल सावरकर को ही जाता है।”
अगर सावरकर वीर स्वतंत्रता सिपाही थे तो आजादी के बाद भी उन्हें क्यूँ जेल में डाला गया, सिर्फ एक शक के आधार पर।
इस तरह की और भी अनेकों साक्ष्य हैं जिनके पन्ने खुलने बाकी हैं। जो फिर कभी…
मेरी नजर में एक महान स्वतंत्रता संग्रामी थे..अथवा सदा रहेंगे वीर सावरकर जी। जिनका जन्म आज ही के दिन २८ मई १८८३ को ग्राम भागुर, जिला नासिक महाराष्ट्र में हुआ था।
ऐसे महान विभूति को अश्विनी राय ‘अरुण’ का कोटि कोटि वंदन।
धन्यवाद !
अमर वीर सावरकर जी को कोटि-कोटि नमन।
आज अति आवश्यक है कि हमारी नवीन पीढ़ी महान विभूति बारे में जाने और इतिहास के पन्नों से अपने वजूद को तलाश करें। इन्होंने देश के लिए बहुत ही यातनाएं सहे। हम लोग इस त्याग के फल स्वरुप आजाद है।
ओजस्वी लिखें की प्रस्तुति के लिए लेखक अश्विनी राय जी को भी आभार एवं नमस्कार।