November 22, 2024

कालाजार का नाम तो आपने सुना होगा जो धीरे-धीरे विकसित होने वाला देशी रोग है। इसे अंग्रेज़ी में विस्केरल लीश्मेनियेसिस कहा जाता है। यह रोग एक कोशीय परजीवी यानी जीनस लिस्नमानिया से होता है। यह चिकित्सकीय भाषा है अतः इन गूढ़ बातों को छोड़ बस इतना जान लें कि इस रोग में बुखार अक्सर रुक-रुक कर या कभी तेजी से तथा कभी दोहरी गति से आता है। इसमें भूख नहीं लगता है। त्वचा-सूखी, पतली और शल्की होती है तथा बाल झड़ सकते हैं। गोरे व्यक्तियों के हाथ, पैर, पेट और चेहरे का रंग भूरा हो जाता है। इसी से इसका नाम कालाजार पड़ा अर्थात काला बुखार। इस रोग में खून की कमी बड़ी तेजी से होती है।

अब आप सोच रहे होंगे कि हम आज इस काला जार अथवा बुखार को लेकर क्यों बैठ गए, तो जनाब आज १९ दिसंबर है और आज ही काला जार की दवा के जनक राय बहादुर सर उपेन्द्रनाथ ब्रह्मचारी का जन्मदिवस भी है। इन्हीं उपेन्द्रनाथ ब्रह्मचारी ने कालाजार की नई प्रभावकारी दवा खोज कर असम के तीन लाख से अधिक लोगों को मौत के मुंह से बचाया था। भारत की माटी के ऐसे महान चिकित्सा वैज्ञानिक को नोबेल पुरस्कार नहीं मिला। जबकि वे नोबेल पुरस्कार के लिए नामित भी हुए थे, लेकिन दुर्भाग्यवश दूसरे विश्व युद्ध के कारण उन्हें नोबेल नहीं मिल पाया। जबकि इसके पीछे का कारण कुछ और भी हो सकता है?? क्या इसलिए कि वे भारतीय थे अथवा उन्होंने ऐसी दवा की खोज की थी कि जो सिर्फ भारतीय उपमहाद्वीप में फैले रोग नाशक था, जिससे सारी दुनिया को कोई मतलब नहीं था। अथवा चाटुकारिता या भारतीय संस्कृति वाली विचारधार अथवा कोई और बात…???? बहुत सारी बातें हैं मगर जाने दीजिए इन राजनैतिक और कूटनीतिक बातों को, हम अपने मुख्य मुद्दे पर आते हैं।

परिचय…

उपेन्द्रनाथ ब्रह्मचारी का जन्म १९ दिसम्बर, १८७३ को बिहार के मुंगेर जिले के जमालपुर कस्बे में हुआ था। सरकारी रिकार्ड में इनकी जन्म तिथि ७ जून, १८७५ अंकित थी। रेलवे की कार्यशाला के कारण जमालपुर अंग्रेजों के समय से ही महत्वपूर्ण स्थान रहा है। इनके पिता नीलमणी ब्रह्मचारी पूर्वी रेलवे में डॉक्टर थे। उपेन्द्रनाथ शुरू से ही पढ़ने-लिखने में काफी होशियार थे। जमालपुर में शुरुआती शिक्षा पूरी करने के बाद वे हुगली महाविद्यालय से गणित तथा रसायनशास्त्र में (एक साथ दो विषयों में) आनर्स की उपाधि प्राप्त की। उपलब्धि गणित में अच्छी रही थी, किन्तु आगे के अध्ययन हेतु उपेन्द्रनाथ ने मेडिसिन व रसायनशास्त्र को चुना। बाद में वह कोलकता चले गए, जहां प्रेसिडेन्सी कॉलेज से रसायनशास्त्र में अधिस्नातक की उपाधि प्रथम श्रेणी में प्राप्त की।

उपेन्द्रनाथ ब्रह्मचारी ने वर्ष १८९९ में राज्य चिकित्सा सेवा में प्रवेश किया। यह किस्मत की बात थी कि प्रथम फिजिशियन माने जाने वाले सर जेराल्ड बोमफोर्ड के वार्ड में कार्य करने का अवसर उन्हें प्राप्त हुआ। युवा उपेन्द्रनाथ की कार्य के प्रति निष्ठा तथा अनुसंधान प्रवृति से सर जेराल्ड बहुत प्रभावित हुए। सर जेराल्ड ने अपने प्रभाव का उपयोग कर उपेन्द्रनाथ को ढाका मेडीकल कॉलेज में औषधि का शिक्षक नियुक्त करवा दिया। उपेन्द्रनाथ ब्रह्मचारी ने लगभग चार वर्ष उस पद पर कार्य किया।

सेवानिवृति के बाद, उपेन्द्रनाथ ब्रह्मचारी कार्मिकील मेडीकल कालेज में उष्णकटिबंधीय बीमारियों के प्रोफेसर बन गए और कोलकाता विश्वविद्यालय के विज्ञान महाविद्यालय में जैव रसायन विभाग में अवैतनिक प्रोफेसर के रूप में भी सेवा देते रहे। उन दिनों बच्चों व बड़ों में कालाजार रोग का प्रकोप भयंकर रूप से फैल रहा था। उस समय कालाजार के कई उपचार प्रचलन में थे, किन्तु मौतों की संख्या कम करने में कोई भी दवा असरदार नहीं थी। अनगिनत प्रयासों और लगातार विपरीत परिस्थितियों के बावजूद उपेन्द्रनाथ ब्रह्मचारी ने कालाजार को नियंत्रित करने वाली राम बाण दवा तैयार कर ली। उपेन्द्रनाथ ब्रह्मचारी ने उसे यूरिया स्टीबामीन नाम दिया था। तत्कालीन भारत सरकार द्वारा नियुक्त आयोग ने १९३२ में यूरिया स्टीबामीन को कालाजार की प्रभावी दवा घोषित किया। यह इस दवा का ही प्रभाव है कि वर्तमान समय में भारत व दूसरे देशों में कालाजार पर लगभग नियंत्रण प्राप्त कर लिया गया है।

नोबेल से वंचित…

भारत की तरफ से सबसे पहले वर्ष १९२९ में दो भारतीयों का नाम नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया गया था। एक नाम चंद्रशेखर वेंकट रामन का भौतिकी के लिए नामित किया गया तो दूसरा नाम उपेन्द्रनाथ ब्रह्मचारी का था, जिन्हें औषध विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया गया। उस वर्ष दोनों में से किसी का भी चयन नहीं हुआ। चन्द्रशेखर वेंकट रामन वर्ष १९३० में फिर नामित हुए। इस बार चुने जाने के लिए वे इतने आश्वस्त थे कि नामों की घोषणा के लिए अक्टूबर तक का इंतजार नहीं किया और सितंबर में ही स्विट्जरलैंड चले गए। मगर उस वर्ष ना जाने क्यों उपेन्द्रनाथ ब्रह्मचारी का नाम नहीं भेजा गया???

लेकिन एक बार फिर वर्ष १९४२ में उनका नाम नोबेल पुरस्कार के लिए नामित हुआ। इस बार पांच अलग-अलग लोगों ने उपेन्द्रनाथ ब्रह्मचारी को नामित किया था, मगर फिर वही बात। इस बार का कारण दूसरे विश्व युद्ध को मान लिया गया। सही मायनों में नोबेल का असली हकदार यह बिहारी वैज्ञानिक इस पुरस्कार से वंचित रह गया। इसका परिणाम यह हुआ कि आज चन्द्रशेखर वेंकट रामन का नाम देश में हर कोई जानता है, जबकि उपेन्द्रनाथ ब्रह्मचारी को कोई उसके घर में भी नहीं जानता।

और अंत में…

कर्तव्यपरायण उपेन्द्रनाथ ब्रह्मचारी पेशे से डॉक्टर और मनोवृति से वैज्ञानिक थे। वह पर्ची लिखकर मरीज को चलता करने के बजाय उसकी बीमारी के बाद में जाना महत्त्वपूर्ण समझते थे। वे अनुसंधान द्वारा उपचार को सहज व पूर्ण प्रभावी बनाने में विश्वास करते थे। यही कारण है कि उस समय काल का पर्याय बन चुके कालाजार रोग के लिए वे महाकाल बन गए। कालाजार की नई प्रभावकारी दवा खोज कर असम के तीन लाख से अधिक लोगों को उन्होंने मौत के मुंह से बचाया था। इतना ही नहीं ग्रीस, फ्रांस, चीन आदि देशों में उनकी दवा से बचने वालों की संख्या का आज कोई आंकड़ा अपलब्ध नहीं है।

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