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पत्रकार,
स्वतंत्र चिन्तक,
एक महान विचारक,
क्रान्तिकारी साहित्यकार,
एक नैतिक संपादक के साथ साथ…

हिन्दी साहित्य के शुक्लोत्तर युग के प्रसिद्ध साहित्यकार, गद्य-लेखक, शैलीकार, स्वतंत्रता सेनानी एवं समाज-सेवी रामवृक्ष बेनीपुरी जी ने राष्ट्र-निर्माण, सामाजिकता और मानवता के जयगान को लक्षय मानकर ललित निबंध, रेखाचित्र, संस्मरण, रिपोर्ताज, नाटक, उपन्यास, कहानी, बाल साहित्य आदि विविध गद्य-विधाओं में जो महान कार्य किए हैं, वे सारी आज के हम युवाओं के लिए आलौकिक ग्रंथ एवं प्रेरणास्रोत रचनाएं हैं।

इसीलिए तो दिनकर जी ने एक बार बेनीपुरी जी के विषय में कहा था, “स्वर्गीय पंडित रामवृक्ष बेनीपुरी केवल साहित्यकार नहीं थे, उनके भीतर केवल वही आग नहीं थी जो कलम से निकल कर साहित्य बन जाती है। वे उस आग के भी धनी थे जो राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों को जन्म देती है, जो परंपराओं को तोड़ती है और मूल्यों पर प्रहार करती है। जो चिंतन को निर्भीक एवं कर्म को तेज बनाती है। बेनीपुरी जी के भीतर बेचैन कवि, बेचैन चिंतक, बेचैन क्रान्तिकारी और निर्भीक योद्धा सभी एक साथ निवास करते थे।” अतः आज हम इनके जन्मदिवस के पावन पर्व पर इन्हें याद करते हैं…

परिचय…

बेनीपुरी जी का जन्म २३ दिसंबर, १८९९ को बिहार के मुजफ्फरपुर जिला अंतर्गत बेनीपुर गाँव के एक भूमिहर ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उसी के आधार पर उन्होंने अपना उपनाम ‘बेनीपुरी’ रखा था। बचपन में ही माता-पिता के देहावसान हो जाने के कारण आपका पालन पोषण ननिहाल में हुआ। अतः उनकी प्राथमिक शिक्षा भी ननिहाल में हुई। उनकी भाषा-वाणी प्रभावशाली थी। उनका व्यक्तित्त्व आकर्षक एवं शौर्य की आभा से दीप्त था। वे एक सफल संपादक के रूप में भी याद किये जाते हैं। उन्होंने राजनीति की लेकिन राजनीतिक पुरूष नहीं थे, वे पक्के देशभक्त थे। इसीलिए तो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बारह वर्ष तक जेल में गुजारना पड़ा। ये हिन्दी साहित्य के पत्रकार भी रहे और इन्होंने कई समाचारपत्र जैसे युवक (१९२९) आदि निकाले।

मैट्रिक की परीक्षा पास करने से पहले वर्ष १९२० में वे महात्मा गाँधी के असहयोग आन्दोलन में गांधी जी के सहयोगी बने। और वर्ष १९३० से १९४२ तक का समय जेल में ही व्यतीत करना पड़ा। जेल में रहते हुए भी उन्होंने साहित्य-सर्जना और पत्रकारिता को कभी भी नहीं छोड़ा। आज मै अश्विनी राय ‘अरूण’ जिस बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन, बक्सर जिले का अर्थ मंत्री के पद पर गर्व महसूस कर रहा हूं, उसी हिन्दी साहित्य सम्मेलन को खड़ा करने में बेनीपुरी जी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। स्वाधीनता-प्राप्ति के पश्चात् राजनीति से अलग उन्होंने साहित्य-साधना के साथ-साथ देश और समाज के नवनिर्माण कार्य में अपने को जोड़े रखा।

रचनाएँ…

रामवृक्ष बेनीपुरी की आत्मा में, उनके शरीर में राष्ट्रीय भावना लहू बनकर बहती थी जिसके वजह से वे उन्हें कभी भी चैन की साँस नहीं लेने देती थी। उनके लेखों से और उनके साथियों के संस्मरणों से यह पता चलता है कि जीवन के प्रारंभ काल से ही क्रान्तिकारी रचनाओं के कारण उन्हें बार-बार जेल जाना पड़ता था। वर्ष १९४२ के अगस्त क्रांति के दौरान उन्हें हजारीबाग जेल में रहना पड़ा। मगर उबलता खून उन्हें जेलवास में भी वह शान्त नहीं बैठने दे रहा था। वे वहाँ भी आग भड़काने वाली रचनायें लिखते रहे। प्रत्यकषदर्शियों के अनुसार वे जब भी जेल से बाहर आते उनके हाथ में दो-चार ग्रन्थों की पाण्डुलिपियाँ अवश्य होती थीं, ये अमूल्य धरोहर उनके कारावास काल की कृतियाँ हैं।

वर्ष १९३० के कारावास काल के अनुभव के आधार पर ‘पतितों के देश में’ उपन्यास का सृजन हुआ। इसी प्रकार वर्ष १९४६ में रामवृक्ष बेनीपुरी जी जब जेल से मूक्त हुए तो, ‘ कारावास से मुक्ति की पावन पवन ‘ के साथ साहित्य की उत्कृष्ट रचना ‘माटी की मूरतें’ रेखाचित्र और ‘आम्रपाली ‘ उपन्यास की पाण्डुलिपियाँ उनके उत्कृष्ट विचारों को अपने अन्दर समा चुकी थीं। उनकी अनेक रचनायें जो यश कलगी के समान हैं उनमें जय प्रकाश, नेत्रदान, सीता की माँ, ‘विजेता’, ‘मील के पत्थर’, ‘गेहूँ और गुलाब’ शामिल हैं। ‘शेक्सपीयर के गाँव में’ और ‘नींव की ईंट’; इन लेखों में भी रामवृक्ष बेनीपुरी ने अपने देश प्रेम, साहित्य प्रेम, त्याग की महत्ता, साहित्यकारों के प्रति सम्मान भाव दर्शाया है वह अविस्मरणीय है।

और अंत में…

इंगलैंड में शेक्सपियर के प्रति जो आदर भाव उन्हें देखने को मिला वह उन्हें सुखद भी लगा और दु:खद भी। शेक्सपियर के गाँव के मकान को कितनी संभाल, रक्षण-सजावट के साथ संभाला गया है। उनकी कृतियों की मूर्ति बनाकर वहाँ रखी गई है, यह सब देख कर वे प्रसन्न हुए। पर दुखी इस बात से हुए कि हमारे देश में सरकार भूषण, बिहारी, सूरदास, जायसी आदि महान साहित्यकारों के जन्म स्थल की सुरक्षा या उन्हें स्मारक का रूप देने का प्रयास नहीं करती। उनके मन में अपने प्राचीन महान साहित्यकारों के प्रति अति गहन आदर भाव था। इसी प्रकार ‘नींव की ईंट’ में भाव था कि जो लोग इमारत बनाने में तन-मन कुर्बान करते है, वे अंधकार में विलीन हो जाते हैं। बाहर रहने वाले गुम्बद बनते हैं और स्वर्ण पत्र से सजाये जाते हैं। चोटी पर चढ़ने वाली ईंट कभी नींव की ईंट को याद नहीं करती। ऐसी विचारों को रखने वाले बेनीपुरी जी ७ सितंबर, १९६८ को वे इस संसार से विदा हो गये।

वर्ष १९९९ में भारतीय डाक सेवा द्वारा बेनीपुरी जी के सम्मान में भारत का भाषायी सौहार्द मनाने हेतु भारतीय संघ के हिन्दी को राष्ट्र-भाषा अपनाने की अर्ध-शती वर्ष में डाक-टिकटों का एक सेट जारी किया। उनके सम्मान में बिहार सरकार द्वारा वार्षिक अखिल भारतीय रामवृक्ष बेनीपुरी पुरस्कार दिया जाता है।

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