सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता अथवा समान आचार संहिता का अर्थ होता है, एक पंथनिरपेक्ष यानी सेक्युलर कानून। यह कानून सभी पंथ के लोगों के लिये समान रूप से लागू होता है। इसे अगर हम दूसरे शब्दों में बयां करें तो इस कानून का मतलब है कि अलग जगह, अलग पंथ, समुदाय अथवा धर्म के लिये अलग-अलग कानून न होकर एक समान नागरिक संहिता का होना है। यह कानून किसी भी पंथ, धर्म, जाति के सभी निजी कानूनों से ऊपर होता है। अब हम समान नागरिकता कानून के अंतर्गत आने वाले मुख्य विषयों पर ध्यान केंद्रित करते हैं…
१. व्यक्तिगत स्तर,
२. संपत्ति के अधिग्रहण और संचालन का अधिकार,
३. विवाह, तलाक और गोद लेना।
अब हम नजर खोलने वाली एक तथ्य को सामने रखता हूं, जरा गौर करिएगा। समान नागरिक संहिता आज विश्व के अधिकतर देशों में लागू है, जैसे अमेरिका, आयरलैंड, पाकिस्तान, बांग्लादेश, मलेशिया, तुर्की, इंडोनेशिया, सूडान, इजिप्ट आदि जैसे कई देश हैं जिन्होंने समान नागरिक संहिता लागू किया है। ये वो देश हैं, जो या तो धर्म को कोई महत्व नहीं देते या फिर किसी विशेष धर्म को मानते हैं और उस धर्म के कानून को ही सिविल कोड के रूप में लागू कर रखा है।
भारत की स्थिति…
जबकि भारत में समान नागरिक संहिता लागू नहीं है, इसका मुख्य कारण यह है कि भारत में कानून धर्म के आधार पर तय किए गए हैं। परंतु इसमें भी दोहरापन नजर आता है, हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध के लिये एक व्यक्तिगत कानून है, वहीं मुसलमानों और इसाइयों के लिए अपने निजी कानून हैं। उदाहरण के रूप में देखें तो मुसलमानों का कानून शरीअत पर आधारित है और अन्य धार्मिक समुदायों के कानून भारतीय संसद के संविधान पर आधारित है।
भारत में व्यक्तिगत कानूनों का इतिहास…
जैसा कि भारत का इतिहास कहता है, सिविल कोड लागू करने का विवाद अंग्रेज़ी शासन से ही चलता आ रहा है। बड़ी अजीब विडंबना है कि निरंकुश अंग्रेज मुस्लिम समुदाय के निजी कानूनों में बदलाव कर उससे दुश्मनी मोल नहीं लेना चाहते थे अथवा भेद की नीति पर चलकर समाज को दो अलग हिस्सों में बांटना चाहते थे। परंतु देश में हुए विभिन्न महिला आंदोलनों की वजह से शरीयत कानून में थोड़ा बदलाव हुआ है।
इस प्रक्रिया की शुरुआत वर्ष १८८२ के हैस्टिंग्स योजना से हुई और इसका अंत शरिअत कानून के लागू होने से हुआ। हालाँकि समान नागरिकता कानून उस वक्त कमजोर पड़ने लगा, जब तथाकथित सेक्यूलरों ने मुस्लिम तलाक और विवाह कानून को लागू कर दिया। वर्ष १९२९ में, जमियत-अल-उलेमा ने बाल विवाह रोकने के खिलाफ मुसलमानों को अवज्ञा आंदोलन में शामिल होने की अपील की। इस बड़े अवज्ञा आंदोलन का अंत उस समझौते के बाद हुआ जिसके तहत मुस्लिम जजों को मुस्लिम शादियों को तोड़ने की अनुमति दी गई।
वर्ष १९९३ में महिलाओं के विरुद्ध होने वाले भेदभाव को दूर करने के लिए बने कानून में औपनिवेशिक काल के कानूनों में संशोधन किया गया। इस कानून के कारण धर्मनिरपेक्ष और मुसलमानों के बीच खाई और गहरी हो गई। वहीं, कुछ मुसलमानों ने बदलाव का विरोध किया और दावा किया कि इससे देश में मुस्लिम संस्कृति ध्वस्त हो जाएगी।
भारतीय संविधान और समान नागरिक संहिता…
भारतीय संविधान और समान नागरिक संहिता पर बात करने से पूर्व हम भारत के संविधान निर्माता बी.आर. अम्बेडकर के एक कथन पर गौर करते हैं, “मैं व्यक्तिगत रूप से समझ नहीं पा रहा हूं कि क्यों धर्म को इस विशाल, व्यापक क्षेत्राधिकार के रूप में दी जानी चाहिए ताकि पूरे जीवन को कवर किया जा सके और उस क्षेत्र पर अतिक्रमण से विधायिका को रोक सके। सब के बाद, हम क्या कर रहे हैं के लिए यह स्वतंत्रता? हमारे सामाजिक व्यवस्था में सुधार करने के लिए हमें यह स्वतंत्रता हो रही है, जो असमानता, भेदभाव और अन्य चीजों से भरा है, जो हमारे मौलिक अधिकारों के साथ संघर्ष करते हैं।”
समान नागरिक संहिता का उल्लेख भारतीय संविधान के भाग ४ के अनुच्छेद ४४ में है। इसमें नीति-निर्देश दिया गया है कि समान नागरिक कानून लागू करना हमारा लक्ष्य होगा। सर्वोच्च न्यायालय भी कई बार समान नागरिक संहिता लागू करने की दिशा में केन्द्र सरकार के विचार जानने की पहल कर चुका है।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ४२वें संशोधन के माध्यम से ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द को प्रविष्ट किया गया। इससे यह स्पष्ट होता है कि भारतीय संविधान का उद्देश्य भारत के समस्त नागरिकों के साथ धार्मिक आधार पर किसी भी भेदभाव को समाप्त करना है, लेकिन वर्तमान समय तक समान नागरिक संहिता के लागू न हो पाने के कारण भारत में एक बड़ा वर्ग अभी भी धार्मिक कानूनों की वजह से अपने अधिकारों से वंचित है। मूल अधिकारों में ‘विधि के शासन’ की अवधारणा विद्यमान है, जिसके अनुसार, सभी नागरिकों हेतु एक समान विधि होनी चाहिये। लेकिन स्वतंत्रता के इतने वर्षों के बाद भी जनसंख्या का एक बड़ा वर्ग अपने मूलभूत अधिकारों के लिये संघर्ष कर रहा है। इस प्रकार समान नागरिक संहिता का लागू न होना एक प्रकार से विधि के शासन और संविधान की प्रस्तावना का उल्लंघन है। ‘सामासिक संस्कृति’ के सम्मान के नाम पर किसी वर्ग की राजनीतिक समानता का हनन करना संविधान के साथ-साथ संस्कृति और समाज के साथ भी अन्याय है क्योंकि प्रत्येक संस्कृति तथा सभ्यता के मूलभूत नियमों के तहत महिलाओं और पुरुषों को समान अधिकार प्राप्त होता है लेकिन समय के साथ इन नियमों को गलत तरीके से प्रस्तुत कर असमानता उत्पन्न कर दी जाती है।
समान नागरिक संहिता के लाभ…
१. अलग-अलग धर्मों के अलग कानून से न्यायपालिका पर बोझ पड़ता है। समान नागरिक संहिता लागू होने से इस परेशानी से निजात मिलेगी और अदालतों में वर्षों से लंबित पड़े मामलों के फैसले जल्द होंगे।
२. सभी के लिए कानून में एक समानता से देश में एकता बढ़ेगी। जिस देश में नागरिकों में एकता होती है, किसी प्रकार वैमनस्य नहीं होता है, वह देश तेजी से विकास के पथ पर आगे बढ़ता है।
३. देश में हर भारतीय पर एक समान कानून लागू होने से देश की राजनीति पर भी असर पड़ेगा और राजनीतिक दल वोट बैंक वाली राजनीति नहीं कर सकेंगे और वोटों का ध्रुवीकरण नहीं होगा।
४. समान नागरिक संहिता लागू होने से भारत में महिलाओं की स्थिति में भी सुधार आएगा। अभी भी कुछ धर्मों के पर्सनल लॉ में महिलाओं के अधिकार सीमित रखे गए हैं।
५. महिलाओं का अपने पिता की संपत्ति पर अधिकार और गोद लेने जैसे मामलों में भी एक समान नियम लागू होंगे।
६. धार्मिक स्थलों पर प्रवेश में समान अधिकार प्राप्त होंगे।
७. संपूर्ण राष्ट्र सभी नागरिकों के अधिकार और कर्तव्यों के अधीन आ जायेगा।