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इतिहास के अनुसार महाराणा प्रताप ‘हल्दीघाटी का युद्ध’ १८ जून, १५७६ को हार चुके थे, परंतु इसके बावजूद उन्होंने मुग़लों पर अपने आक्रमण को रुकने नहीं दिया था। जिसकी वजह से मेवाड़ का बहुत बड़ा इलाका धीरे धीरे ही सही मगर महाराणा प्रताप के कब्जे में आने लगा था। जहां एक तरफ महाराणा की शक्ति और धरती बढने लगी थी वहीं धन की कमी उन्हें उसकी रक्षा के आड़े आने लगी थी, धन की कमी की वजह से शक्तिशाली मुग़ल सेना के विरुद्ध युद्ध जारी रखना वो भी लंबे समय तक बेहद दुष्कर कार्य था। सेना का गठन बिना धन के सम्भव होता ना देख महाराणा ने सोचा, ‘जितना संघर्ष हो चुका, वह ठीक ही रहा। यदि इसी प्रकार कुछ और दिन चला, तब संभव है जीते हुए इलाकों पर फिर से मुग़ल क़ब्ज़ा कर लें।’ इसलिए उन्होंने यहाँ की कमान अपने विश्वस्त सरदारों के हाथों सौंप कर गुजरात की ओर कूच करने का विचार किया। वहाँ जाकर फिर से सेना का गठन करने के पश्चात् पूरी शक्ति के साथ मुग़लों से मेवाड़ को स्वतंत्र करवाने का विचार उन्होंने किया। प्रताप अपने कुछ चुनिंदा साथियों को लेकर मेवाड़ से प्रस्थान करने ही वाले थे कि उनके मित्र व वित्त मंत्री नगर सेठ भामाशाह उपस्थित हो गए। उसने महाराणा के प्रति ‘खम्मा घणी’ करी और कहा- “मेवाड़ धणी अपने घोड़े की बाग मेवाड़ की तरफ़ मोड़ लीजिए। मेवाड़ी धरती मुग़लों की ग़ुलामी से आतंकित है। उसका उद्धार कीजिए।” यह कहकर भामाशाह ने अपने साथ आए परथा भील का परिचय महाराणा से करवाते हुए कहा कि किस प्रकार परथा ने अपने प्राणों की बाजी लगाकर हमारे पूर्वजों के गुप्त ख़ज़ाने की रक्षा की और आज उसे लेकर वह स्वयं सामने उपस्थित हुआ है। मेरे पास जो धन है, वह भी पूर्वजों की पूँजी है। मेवाड़ स्वतंत्र रहेगा तो धन फिर कमा लूँगा। आप यह सारा धन ग्रहण कीजिए और मेवाड़ की रक्षा कीजिए।
भामाशाह का परिचय…
दानवीर भामाशाह का जन्म राजस्थान के मेवाड़ राज्य में २९ अप्रैल, १५४७ को रणथम्भौर क़िले के क़िलेदार भारमल जी के यहां हुआ था। जो राणा साँगा के विश्वासपात्र थे। अपने पूर्वजों की तरह भामाशाह भी मेवाड़ के राजा के सहयोगी और विश्वासपात्र सलाहकार थे। अपरिग्रह को जीवन का मूलमंत्र मानकर संग्रहण की प्रवृत्ति से दूर रहने की चेतना जगाने में भामाशाह सदैव अग्रणी थे। उन्हें अपनी मातृ-भूमि के प्रति अगाध प्रेम था। दानवीरता में वे कर्ण के समान थे।
धन-संपदा का दान…
भामाशाह का निष्ठापूर्ण सहयोग महाराणा प्रताप के जीवन में महत्त्वपूर्ण और निर्णायक साबित हुआ था। मेवाड़ के इस वृद्ध मंत्री ने अपने जीवन में पूर्वजों की संपदा के अलावा भी कई राजाओं से भी अधिक धन संपदा अर्जित की थी। मातृ-भूमि की रक्षा के लिए तथा महाराणा प्रताप का सर्वस्व होम हो जाने के बाद, उनके लक्ष्य को सर्वोपरि मानते हुए भामाशाह ने अपनी कमाई हुई सम्पूर्ण धन-संपदा के साथ अपने पूर्वजों के खजाने को भी महाराणा प्रताप कोअर्पित कर दिया। माना जाता है कि यह सम्पत्ति इतनी अधिक थी कि उससे तेरह वर्षों तक २५,००० सैनिकों का सपरिवार खर्चा पूरा किया जा सकता था।
प्रताप का कथन…
भामाशाह और परथा भील की देशभक्ति और ईमानदारी को देखकर महाराणा का मन द्रवित हो गया। उनकी आँखों से अश्रुधारा फूट पड़ी। उन्होंने दोनों को गले लगा लिया। महाराणा ने कहा आप जैसे सपूतों के बल पर ही मेवाड़ जिंदा है। मेवाड़ की धरती और मेवाड़ के महाराणा सदा-सदा इस उपकार को याद रखेंगे। मुझे आप दोनों पर गर्व है।
“भामा जुग-जुग सिमरसी, आज कर्यो उपगार।
परथा, पुंजा, पीथला, उयो परताप इक चार।।”
अर्थात् “हे भामाशाह! आपने आज जो उपकार किया है, उसे युगों-युगों तक याद रखा जाएगा। यह परथा, पुंजा, पीथल और मैं प्रताप चार शरीर होकर भी एक हैं। हमारा संकल्प भी एक है।”
नवउत्साह का संचार…
ऐसा कहकर महाराणा ने अपने मन के भाव प्रगट करने के बाद मेवाड़ से पलायन करने का विचार त्याग दिया और अपने सब सरदारों को बुलावा भेजा। देव रक्षित खजाना और भामाशाह का सहयोग पाकर महाराणा का उत्साह और आत्मबल प्रबल हो गया। सामंतों, सरदारों, साहूकारों का सहयोग तथा विपुल धन पाकर महाराणा ने सेना का संगठन करना शुरू कर दिया। एक के बाद दूसरा और फिर एक दिन सर्वस्व मेवाड़ उनके कब्जे में आ गया।
अपनी बात…
आज भी धन अर्पित करने वाले किसी भी दानदाता को दानवीर भामाशाह कहकर सम्मान दिया जाता है। भामाशाह की दानशीलता के चर्चे उस दौर में आसपास बड़े उत्साह, प्रेरणा के संग सुने-सुनाए जाते थे। उनके लिए पंक्तियाँ कही गई हैं…
वह धन्य देश की माटी है,
जिसमें भामा सा लाल पला।
उस दानवीर की यश गाथा को,
मेट सका क्या काल भला॥
ऐसी विरल ईमानदारी एंव स्वामिभक्ति के फलस्वरूप भामाशाह के बाद उनके पुत्र जीवाशाह को महाराणा प्रताप के पुत्र अमर सिंह ने भी प्रधान पद पर बनाये रखा। जीवाशाह के उपरांत उनके पुत्र अक्षयराज को अमर सिंह के पुत्र कर्ण सिंह ने प्रधान पद पर बनाये रखा। इस तरह एक ही परिवार की तीन पीढ़ियो ने मेवाड़ मे प्रधान पद पर स्वामिभक्ति एंव ईमानदारी से कार्य किया। महाराणा स्वरूप सिंह एंव फतेह सिंह ने इस परिवार के लिए सम्मान स्वरुप दो बार राजाज्ञाएँ निकाली कि इस परिवार के मुख्य वंशधर का सामूहिक भोज के आरंभ होने के पूर्व तिलक किया जाये। जैन धर्म को मानने वाले भामाशाह की भव्य हवेली चित्तौड़गढ़ तोपखाना के पास आज जीर्ण शीर्ण अवस्था मे है।
आज भामाशाह के वंशज को कावडिंया परिवार के नाम से जाना जाता है, और वे आज भी उदयपुर मे निवास करते हैं। आज भी ओसवाल जैन समाज कावडिंया परिवार का सम्मानपूर्वक सबसे पहले तिलक करते है। भामाशाह के सम्मान मे सुप्रसिद्ध उपान्यसकार कवि हरिलाल उपाध्याय द्वारा ‘देशगौरव भामाशाह’ नामक ऐतिहासिक उपान्यस लिखी गयी।
सम्मान…
लोकहित और आत्मसम्मान के लिए अपना सर्वस्व दान कर देने वाली उदारता के गौरव-पुरुष की इस प्रेरणा को चिरस्थायी रखने के लिए छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में दानशीलता, सौहार्द्र एवं अनुकरणीय सहायता के क्षेत्र में दानवीर भामाशाह सम्मान स्थापित किया है। महाराणा मेवाड फाऊंडेशन की तरफ से दानवीर भामाशाह पुरस्कार राजस्थान मे मेरिट मे आने वाले छात्रो को दिया जाता है। उदयपुर, राजस्थान में राजाओं की समाधि स्थल के मध्य भामाशाह की समाधि बनी है। उनके सम्मान में ३१ दिसम्बर, २००० को ३ रुपये का डाक टिकट जारी किया गया।
विशेष…
१. महाराणा वर्ष १५७६ को ‘हल्दीघाटी का युद्ध’ हारे थे।
२. दानवीर भामाशाह ने महाराणा को वर्ष १५७८ को आर्थिक मदद दी थी।
३. महाराणा प्रताप वर्ष १५७६ से १५९० तक कभी गुप्त रूप से छापामार युद्ध तथा कभी प्रगट युद्ध करते हुए विजय की ओर अग्रसर होते रहे।
४. वर्ष १५९१ से १५९६ तक का समय मेवाड़ और महाराणा के लिए चरम उत्कर्ष का समय रहा।
५. भामाशाह और उनके भाई ताराचन्द ने आबू पर्वत मे जैन मंदिर बनाया।
६. महाराणा प्रताप का निधन १९ जनवरी १५९७ (उम्र ५६) को चावण्ड, मेवाड़ में हुआ।
७. देशभक्त भामाशाह की मृत्यु अपनी स्वतंत्र मातृभूमि पर वर्ष १६०० ईस्वी में हुई।