बात तब की है, जब संपूर्ण विश्व सीमा विस्तार के लिए जूझ रहा था, ठीक उसी समय अशोक की अहिंसक प्रवृति ने भारतवर्ष की सनातनी वीरता पर गहरा आघात किया। अशोक ने एक या दो वर्ष नहीं अपितु लगातार बीस वर्षों तक एक बौद्ध सम्राट के रूप में शासन किया। यही वह कारण है, जिसकी वजह से कीर्तिवान भारतवर्ष का शासनतंत्र कीर्तिहीन निर्बलता की भेंट चढ़ता चला गया। यहां हम यह नहीं कह रहे कि मौर्य वंश के शासकों का बौद्ध पंथ की ओर झुकाव गलत था। यह उनका निजी विषय था परंतु शासन कहीं से भी व्यक्तिगत नहीं होता, वहां राजा के सर पर राष्ट्र की जिम्मेदारी होती है। यही वह गलती थी, जब मौर्य शासकों ने सनातन धर्म को क्षीण करके किया था। सनातनी अमृत से पोषित भारतवर्ष नमक विशालकाय वट वृक्ष की जड़ों में बौद्ध पंथ की शिक्षाओं का विष डालना गलत था। भारतवर्ष तेजी से अहिंसा की चपेट में आता जा रहा था। भारतीय सनातन धर्म से विरक्ति की यह प्रक्रिया मौर्य वंश के अंतिम शासक बृहद्रथ तक चलती रही।
बाणभट्ट द्वारा रचित हर्षचरित में भी बृहद्रथ प्रतिज्ञादुर्बल कहा गया है क्योंकि राजगद्दी पर बैठते समय एक राजा अपने साम्राज्य की सुरक्षा का जो वचन देता है उसे पूरा करने में बृहद्रथ पूर्णतः असफल रहा। मौर्य साम्राज्य निरंतर दुर्बल होता जा रहा था और बृहद्रथ के शासनकाल में यह दुर्बलता अपने चरम पर पहुँच चुकी थी। अधिकांश मगध साम्राज्य बौद्ध अनुयायी हो चुका था।
उदाहरण…
बात तब की है जब ग्रीक शासक भारतवर्ष पर आक्रमण करने की योजना बना रहा था। पुष्यमित्र शुंग, मौर्य शासक बृहद्रथ का सेनानायक था, वह इस बात से व्यथित था कि एक ओर शत्रु आक्रमण के लिए आगे बढ़ा चला आ रहा है और दूसरी ओर उसका सम्राट किसी भी प्रकार की कोई सक्रियता नहीं दिखा रहा। परंतु पुष्यमित्र को यह देखा नहीं गया, उसने अपने स्तर पर प्रयास प्रारम्भ किया। उसे अपने गुप्तचरों से शीघ्र ही यह सूचना मिली कि ग्रीक सैनिक बौद्ध भिक्षुओं के वेश में मठों में छुपे हुए हैं और कुछ बौद्ध धर्मगुरु भी उनका सहयोग कर रहे हैं। इस सूचना से व्यथित होकर पुष्यमित्र ने बौद्ध मठों की तलाशी लेने की अनुमति मांगी परंतु बृहद्रथ इसके लिए तैयार नहीं हुआ। फिर भी पुष्यमित्र ने अपने स्तर पर कार्यवाही की। इस कार्यवाही के दौरान पुष्यमित्र और उसके सैनिकों की मुठभेड़ मठों में छिपे शत्रुओं के सैनिकों से हुई जिसमें कई शत्रु सैनिक मृत्यु के घाट उतार दिए गए। बृहद्रथ, पुष्यमित्र की इस कार्यवाही से रुष्ट हो गया। कितना अफसोसजनक व असोभनीय समय था, जहां एक तरफ विदेशी शत्रु भारत विजय के लिए बढ़ रहा था और यहाँ भारतवर्ष का सम्राट अपनी सीमाओं की सुरक्षा में लगे सेनानायक से संघर्ष में लगा हुआ था। अंततः सम्राट और सेनानायक के संघर्ष में सम्राट मृत्यु को प्राप्त हुआ। सेना पुष्यमित्र के प्रति अनुरक्त थी इसलिए पुष्यमित्र शुंग को राजा घोषित कर दिया। राजा बनने के तुरंत बाद पुष्यमित्र शुंग ने अपंग साम्राज्य को पुनर्व्यवस्थित करने के लिए तमाम सुधार कार्य किए। उसने भारतवर्ष की सीमाओं की ओर बढ़ रहे ग्रीक आक्रांताओं को खदेड़ दिया और भारतवर्ष से ग्रीक सेना का पूरी तरह से अंत कर दिया।
परिचय…
पुराणों के अनुसार पुष्यमित्र शुंग ने ३६ वर्ष (१८५-१४९ ई. पू.) तक राज्य किया, जो पूरी तरह से चुनौतियों से भरा हुआ था। उस समय भारत पर कई विदेशी आक्रान्ताओं ने आक्रमण किये, जिनका सामना पुष्यमित्र शुंग को करना पड़ा। पुष्यमित्र के राजा बन जाने पर मगध साम्राज्य को बहुत बल मिला था। जो राज्य मगध की अधीनता त्याग चुके थे, पुष्यमित्र ने उन्हें फिर से अपने अधीन कर लिया था। अपने विजय अभियानों से उसने मगध की सीमा का बहुत विस्तार किया, जैसे…
विदर्भ की विजय यात्रा…
निर्बल मौर्य राजाओं के शासनकाल में जो अनेक प्रदेश साम्राज्य की अधीनता से स्वतंत्र हो गए थे, पुष्यमित्र ने उन्हें फिर से अपने अधीन कर लिया। उस समय ‘विदर्भ’ (बरार) का शासक यज्ञसेन था। सम्भवतः वह मौर्यों की ओर से विदर्भ के शासक-पद पर नियुक्त हुआ था, पर मगध साम्राज्य की निर्बलता से लाभ उठाकर इस समय स्वतंत्र हो गया था। पुष्यमित्र के आदेश से अग्निमित्र ने उस पर आक्रमण किया और परास्त कर विदर्भ को फिर से मगध साम्राज्य के अधीन ला दिया। कालिदास के प्रसिद्ध नाटक ‘मालविकाग्निमित्र’ में यज्ञसेन की चचेरी बहन मालविका और अग्निमित्र के स्नेह की कथा के साथ-साथ विदर्भ विजय का वृत्तान्त भी उल्लिखित है।
कलिंग युद्ध…
मौर्यवंश की निर्बलता से लाभ उठाकर कलिंग देश (उड़ीसा) भी स्वतंत्र हो गया था। उसका राजा खारवेल बड़ा प्रतापी और महत्वाकांक्षी था। उसने दूर-दूर तक आक्रमण कर कलिंग की शक्ति का विस्तार किया। खारवेल के हाथीगुम्फ़ा शिलालेख के द्वारा ज्ञात होता है कि उसने मगध पर भी आक्रमण किया था। मगध के जिस राजा पर आक्रमण कर खारवेल ने उसे परास्त किया, हाथीगुम्फ़ा शिलालेख में उसका जो नाम दिया गया है, अनेक विद्वानों ने उसे ‘बहसतिमित्र’ (बृहस्पतिमित्र) पढ़ा है। बृहस्पति और पुष्य पर्यायवाची शब्द हैं, अतः जयसवाल जी ने यह परिणाम निकाला कि खारवेल ने मगध पर आक्रमण करके पुष्यमित्र को ही परास्त किया था। पर अनेक इतिहासकार जयसवाल जी के इस विचार से सहमत नहीं हैं। उनका विचार है कि खारवेल ने मगध के जिस राजा पर आक्रमण किया था, वह मौर्य वंश का ही कोई राजा था। उसका नाम बहसतिमित्र था, यह भी संदिग्ध है। हाथीगुम्फ़ा शिलालेख में यह अंश अस्पष्ट है और इसे बहसतिमित्र पढ़ सकना भी निर्विवाद नहीं है। सम्भवतः खारवेल का मगध पर आक्रमण मौर्य शालिशुक या उसके किसी उत्तराधिकारी के शासनकाल में ही हुआ था।
यवन आक्रमण…
मौर्य सम्राटों की निर्बलता से लाभ उठाकर यवनों ने भारत पर आक्रमण शुरू कर दिए थे। पुष्यमित्र के शासनकाल में उन्होंने फिर भारत पर आक्रमण किया। यवनों का यह आक्रमण सम्भवतः डेमेट्रियस (दिमित्र) के नेतृत्व में हुआ था। प्रसिद्ध व्याकरणविद पतञ्जलि ने, जो पुष्यमित्र के समकालीन थे, इस आक्रमण का ‘अरुणत् यवनः साकेतम्, अरुणत् यवनः माध्यमिकाम्’ (यवन ने साकेत पर हमला किया, यवन ने माध्यमिका पर हमला किया) लिख कर निर्देश किया है। ‘अरुणत्’ प्रयोग अनद्यतन भूतकाल को सूचित करता है। यह प्रयोग उस दशा में होता है, जब कि किसी ऐसी भूतकालिक घटना का कथन करना हो, जो प्रयोक्ता के अपने जीवनकाल में घटी हो। अतः यह स्पष्ट है, कि पतञ्जलि और पुष्यमित्र के समय में भी भारत पर यवनों का आक्रमण हुआ था, और इस बार यवन सेनाएँ साकेत और माध्यमिका तक चली आई थीं।
मालविकाग्निमित्र के अनुसार भी पुष्यमित्र के यवनों के साथ युद्ध हुए थे, और उसके पोते वसुमित्र ने सिन्धु नदी के तट पर यवनों को परास्त किया था। जिस सिन्धु नदी के तट पर शुंग सेना द्वारा यवनों की पराजय हुई थी, वह कौन-सी है, इस विषय पर भी इतिहासकारों में मतभेद है। श्री वी.ए. स्मिथ ने यह प्रतिपादन किया था, कि मालविकाग्निमित्र की सिन्धु नदी राजपूताने की सिन्ध या काली सिन्ध नदी है, और उसी के दक्षिण तट पर वसुमित्र का यवनों के साथ युद्ध हुआ था। पर अब बहुसंख्यक इतिहासकारों का यही विचार है, कि सिन्धु से पंजाब की प्रसिद्ध सिन्ध नदी का ही ग्रहण करना चाहिए। पर यह निर्विवाद है, कि यवनों को परास्त कर मगध साम्राज्य की शक्ति को क़ायम रखने में पुष्यमित्र शुंग को असाधारण सफलता मिली थी।
अश्वमेध यज्ञ…
अयोध्या से प्राप्त एक शिलालेख के अनुसार जिसमें पुष्यमित्र को ‘द्विरश्वमेधयाजी’ कहा गया है, जिसके अनुसार यह साबित होता है कि पुष्यमित्र ने दो बार अश्वमेध यज्ञ किए थे। बौद्ध और जैन धर्मों के उत्कर्ष के कारण अश्वमेध यज्ञ की परिपाटी भारत में पूर्णतः विलुप्त हो गई थी, जिसे पुष्यमित्र शुंग ने पुनरुज्जीवित कर स्थापित किया। सम्भवतः ऐसा जान पड़ता है कि पतञ्जलि मुनि इन यज्ञों में पुष्यमित्र के पुरोहित थे। इसलिए उन्होंने ‘महाभाष्य’ में लिखा है, ‘इह पुष्यमित्रं याजयामः’ (हम यहाँ पुष्यमित्र का यज्ञ करा रहे हैं)। अश्वमेध के लिए जो घोड़ा छोड़ा गया, उसकी रक्षा का कार्य वसुमित्र के सुपुर्द किया गया था। सिन्धु नदी के तट पर यवनों ने इस घोड़े को पकड़ लिया और वसुमित्र ने उन्हें परास्त कर इसे उनसे छुड़वाया। परंतु क्या कारण रहा कि पुष्यमित्र ने एक बार की जगह दो बार अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया, यह कहना कठिन है।
वैदिक धर्म का पुनरुत्थान…
शुंग सम्राट प्राचीन वैदिक धर्म के अनुयायी थे। ‘दिव्यावदान’ के अनुसार पुष्यमित्र बौद्धों से द्वेष करता था और उसने बहुत-से स्तूपों का ध्वंस करवाया था, और बहुत-से बौद्ध-श्रमणों की हत्या करायी थी। दिव्यावदान में तो यहाँ तक लिखा है, कि साकल (सियालकोट) में जाकर उसने घोषणा की थी कि कोई किसी श्रमण का सिर लाकर देगा, उसे मैं सौ दीनार पारितोषिक दूँगा। सम्भव है, बौद्ध ग्रंथ के इस कथन में अत्युक्ति हो, पर इसमें सन्देह नहीं कि पुष्यमित्र के समय में यज्ञप्रधान वैदिक धर्म का पुनरुत्थान शुरू हो गया था। उस द्वारा किए गए अश्वमेध यज्ञ ही इसके प्रमाण हैं।
शुंग साम्राज्य की सीमा…
विदर्भ को जीतकर और यवनों को परास्त कर पुष्यमित्र शुंग मगध साम्राज्य के विलुप्त गौरव का पुनरुत्थान करने में समर्थ हुआ था। उसके साम्राज्य की सीमा पश्चिम में सिन्धु नदी तक अवश्य थी। दिव्यावदान के अनुसार ‘साकल’ (सियालकोट) उसके साम्राज्य के अंतर्गत था। अयोध्या में प्राप्त उसके शिलालेख से इस बात में कोई सन्देह नहीं रह जाता कि मध्यदेश पर उसका शासन भली-भाँति स्थिर था। विदर्भ की विजय से उसके साम्राज्य की दक्षिणी सीमा नर्मदा नदी तक पहुँच गयी थी। इस प्रकार पुष्यमित्र का साम्राज्य हिमालय से नर्मदा नदी तक और सिन्धु से प्राच्य समुद्र तक विस्तृत था।