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न जाने वो कहाँ चली गयी
बिन उसके जीवन सजा हो गयी

 

नफरत की दुनिया में कैसे रहूंगा
बिन उसके मैं अब कैसे जिऊंगा

 

देने को आशीष हांथ किसका उठेगा
मेरे दर्द की दवा अब कौन करेगा

 

ये दर्द की दुनियां में जी ना सकूंगा
घूँट घूँट विष अब पी ना सकूंगा

 

उठा मेरे सर से मेरी माँ का आँचल
जान पड़ता है वो खफ़ा हो गयी

 

न जाने मेरी माँ कहाँ चली गयी
न जाने मेरी माँ कहाँ खो गयी

 

हर दुख सह वो सुख देती थी
धूप बचाने को दामन में छुपा लेती थी

 

बिन उसके अँधेरा और गहरा गया है
मेरे जीवन का सबेरा अब घबरा गया है

 

उसकी गोद में फिर से लेटना चाहता हूं
हंसना चाहता हूं खेलना चाहता हूं

 

जब जब मैंने ठोकर खायी है
तब तब वो मेरे पास दौड़ी आयी है

 

मैं जब भी गिरा सम्भाला था उसने
बड़ी नाजों से मुझको पाला था उसने

 

न जाने वो कहाँ चली गयी
न जाने मेरी माँ कहाँ खो गयी

 

हाथ से आज मेरा स्वर्ग छूटा है
सर झुका आज मेरा गर्व टूटा है

 

मेरी बदनसीबी आज बड़ी हो गई
जब से मेरी ‘जमी’ आसमां हो गई

 

ऐ हमदर्द पूछो अपने उस खुदा से
मेरी माँ क्यों मुझसे जुदा हो गयी

 

दुआ देने वाली हाथ अब कहीं नहीं है
जबसे परवाह करती आंखें मूंद गयी

 

न जाने वो कहाँ चली गयी
न जाने मेरी माँ कहाँ खो गयी

 

विद्यावाचस्पति अश्विनी राय ‘अरुण’

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