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बचपन में गाया करते थे 

जय कन्हैयालाल की

मदन गोपाल की

लइकन के हाथी घोड़ा

बूढ़वन के पालकी

 

मगर क्या बात है कि 

अब पालकी नहीं दिखती

क्या आज बूढ़े नहीं रहे 

या पालकी ही नहीं रही

 

लेकिन बूढ़े तो हैं,

हर घर के बरामदे में दिखते हैं

शायद अब पालकी ही नहीं रही

 

मगर आज ये पालकी में कौन है 

और क्यों कोई है इस पालकी में

 

जान पड़ता कोई दूल्हा आया था 

ले चला अपनी दुल्हन बिदाई में

 

अरे भाई सम्हाल कर ले चलो

बड़ी नाजों से सम्हाला है 

पालकी बच्चे की तरह पाला है

 

दुल्हन तो आज की है

मोटर कार से चली जाएगी

बूढ़े ताले बने लटके रहेंगे

अपने घरों में घिरे रहेंगे

 

मगर ये पालकी फिर से 

अब नजर नहीं आएगी

घर के किसी कोने में पड़ी

अपने भाग्य पर इठलाएगी

इतराएगी या उसपर पछताएगी

 

 

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