विषय : दीवार
दिनाँक : ०६/०१/२०२०
नफरत की दीवार
मैंने जितनी बार तोड़ना चाहा
मेरे पड़ोस की दीवार हर बार
एक या डेढ़ हाथ ऊँची होती गई
वह उस दीवार को
और ऊंचा करता रहा
जितनी बार मैंने
उसे गिराना चाहा
वह हर बार उलझता रहा
कँटीले बाड़ बिछाकर
वो हरबार स्वयं को बेधता रहा
उनपर नुकीले काँच लगाकर
उसे शायद नहीं भाते
मेरे आंगन में लगे
फूलों की क्यारियां
अथवा उनके वो महक
वो पेड़ नहीं भाते शायद
जिनसे छनकर निकलती
सूरज की रौशनी अथवा
टहनियों की बील्लोरीया
उसे शायद पसंद नहीं
बच्चों की किलकारी
तभी तो खीच रहा है
चारों तरफ चाहरदीवारी
मुझे नहीं पता उसके मन में
क्यों और कैसे आई
अथवा उसे क्या पड़ी थी
दीवार ऊँची करने की
हाँ मेरे आंगन के पेड़ ने
एक ही गलती हर बार की है
उसके टहनियों ने पत्ते गिराए हैं
और मौसम ने फल गिराए हैं
मगर आज भी
उस पेड़ की परछाईं
उसके दीवार पर
बराबर पड़ती रही
रौशनी अब भी
दो फाँकों में ना बँटी
हवाएँ अब भी
दोनों तरफ से बहती रही
आसमान झुककर आज भी
दोनों घरों को देख रहा है
खुसबू को जाते हुए भी
नफरत को आते हुए भी
मैंने उसे एक दिन
बधाई देना चाहा
उसके बच्चे के पास होने पर
उसने दीवार और ऊँची कर दी
मैंने कितनी बार सोचा
सच में मुझे कुछ क्यूँ याद नहीं
उसे मुझसे इतनी नफरत क्यूँ है
बस एक बात मैंने जाना है
जब जब दीवार आदमी से
ऊँची होती जाएगी
आदमी की ऊंचाई
हर बार छोटी होती जाएगी
अश्विनी राय ‘अरूण’