एक बार रत्नाकर डाकू ने
बीहड़ में देवर्षि नारद को रोका,
उसका स्वभाव था और पेशा भी
अतः उसने उन्हें भी लूटने को सोचा।
रुको ब्रह्मण तुम कौन हो?
बिना कर दिए किधर जाते हो?
मैं तो निर्धन नारद हूं, लेकिन
कर वसूलने वाले तुम कौन हो?
मैं डर का पर्याय रत्नाकर हूं
नारद रत्नाकर से फिर बोले,
मगर मैं तो निर्भयी हूँ,
क्या तुम हो?
रत्नाकर की आंखें लाल हुईं
क्रोध से कांप उठा
क्या मतलब है तुम्हारा?
वह जोर से चीख कर बोला।
मन को शांत करो रत्नाकर!
ना तो मुझे प्राणों का भय है
और न ही असफलता का
ना कल का ना कलंक का
बोलो कोई और भय है,
जो तुम जानते हो।
जिससे तुम डरते हो
और मुझे डराना चाहते हो।
रत्नाकर ने अट्टहास किया
और उलाहने से बोला
नारद! अगर तुम निर्भय हो
तो मुझे भी किसी का भय नहीं।
ना प्राणों का
ना असफलता का
ना कल का
ना कलंक का
तो फिर वन में
छिप कर क्यों रहते हो
सच सच बताओ
तुम किस बात से डरते हो?
क्या तुम राजा से डरते हो?
प्रजा से डरते हो?
पुण्य के अभाव में
अपने पाप से डरते हो?
तुम कहते हो तुम डरते नहीं
अगर किसी से डरते नहीं
तो फिर यहां
छिप कर क्यों रहते हो?
बड़ी बड़ी बातें करने वाला
वो डाकू रत्नाकर चूप था।
पहली बार किसी निर्भय से
शायद वो मिला था।
नारद मुस्काए और बोले,
सुनो रत्नाकर! मान लो कि
तुम पाप करते हो
और उस पाप से डरते हो।
पुनः हंसा वो जैसे मानो
अंतःकरण से हो घबराया
था तथाकथित निर्भीक डाकू
तो फिर जोर से वो गुर्राया
हे नारद!
ना तो पाप से डरता हूँ,
ना ही पुण्य से
ना देवताओं से,
ना दानव से,
ना दंड से,
ना विधान से।
मैंने राज्य से द्रोह किया है।
इस समाज से द्रोह किया है।
यहां बिहड़ो में रहता हूँ, क्योंकि
मैंने प्रतिशोध का प्रण लिया है।
मैं जानता हूं, नारद!
कि पाप और पुण्य की परिभाषा,
हमेशा ताकतवर तय करते हैं।
और उसे कमजोरों पर थोपते हैं।
वही तुम मुझपर भी थोपना चाहते हो।
मैंने साम्राज्यों का विस्तार देखा है,
हत्या से, छल से और बल से।
मैंने वाणिज्य का विस्तार देखा है
कपट से, अनीति से, अधर्म से।
बोलो नारद!
क्या वो पाप नहीं था?
था या नहीं था?
नारद! मैं एक सैनीक था।
दुष्ट, निर्दीय और ब्याभिचारी
सौदागरों की भी रक्षा की है।
बोलो क्या वो पाप नहीं था?
मैंने कितने ही युद्ध देखे हैं,
उसकी वीभत्सता को भी देखा है।
हारे हुए सैनिकों के परिजनों के साथ,
क्या क्या होता है वह भी देखा है।
निरीह स्त्रियों पर सैनिकों के
पशुता व्यवहार को देख ना सका
मैंने उन सैनिकों की हत्या कर दी
और मैं पापी हो गया।
सेना और सेनापति का क्या
राजा और प्रजा का भी
मैं अपराधी हो गया
क्या वो पाप नहीं था?
नारद अब तक जो चुप थे
वो अबकी बार धीरे से बोले।
दूसरों के पाप अपने को
सही नहीं ठहरा सकते रत्नाकर!
रत्नाकर को यह असह्य था
वह जोर से चीखा
और तिलमिला कर बोला।
मैं पापी नहीं हूँ।
कौन निर्णय करेगा? रत्नाकर!
वो जो इस यात्रा में,
तुम्हारे साथ हैं।
या वो जो इस यात्रा में,
तुम्हारे साथ नहीं हैं।
क्या तुम्हारा पुत्र,
क्या तुम्हारी पत्नी,
तुम्हारे इस पाप में साथ हैं?
हां! वो क्यों नहीं होंगे,
रत्नाकर बोला
यह जो कुछ मैं करता हूँ,
उनके लिए ही तो करता हूँ।
तो चलो जो तुम्हारे साथ हैं,
उन्हें ही निर्णायक बनाते हैं।
जाओ अपनी पत्नी से,
अपने पुत्र से, अपने पिता से,
अथवा जो भी
तुम्हारे अपने हों,
निकट संबंधियों हों,
उनसे पूछ कर आओ।
उनसे पूछना कि
जो तुम कर रहे हो,
क्या वो पाप नहीं हैं?
और क्या वो सब,
तुम्हारे पाप में साथ हैं?
इस पाप के भागीदार हैं?
रत्नाकर ने नारद को बांधा,
मानो जैसे
अपनी किस्मत को बांधा हो।
अशांत चित्त, उदास मन
हृदय मस्तिष्क का क्रंदन
पाप – पुण्य का भेद जानने,
घर को भागा वो अभागा।
उसे घर आया देख
परिजन बड़े प्रसन्न हुए
उसने सीधे पत्नी से पूछा,
मैं जो कर रहा हूं,
या जो मैं करता हूं
क्या वह पाप है?
अगर हां!
तो क्या तुम
मेरे पाप में भागीदार हो?
बोलो रत्नावली!
क्या तुम
मेरे पाप में भागीदार हो?
रत्नावली स्वामी भक्त थी,
मगर सत्यनिष्ठ थी।
वो बोली, नहीं स्वामी!
मैंने आपके सुख में दुख में,
साथ देने की कसम खाई है।
आपके पाप में,
भागीदार होने का नहीं।
उसने पिता से पूछा,
पिता आप?
बेटा यह तो तेरी कमाई है,
इसे मैं कैसे बांट सकता हूं?
रत्नाकर समझ चुका था,
उसका हृदय फट चुका था,
या यूं कहें कि
उसके नेत्र खुल चुके थे,
मन का मैल धूल चुका था।
वह यह जान चुका था,
वह कितना अकेला था।
और जो अब तक थे साथ
वो भी उसे छोड़ जा चुके थे।
उसका घमंड, उसकी ताकत,
उसका जोश, उसका विश्वास
ये सब भी अब जा चुके थे।
अपने अन्नय पापों पर
अपने अधम कृत्य पर
लज्जित रत्नाकर
देवर्षि के पैरों में आ गिरा।
हे देवर्षि! हे महर्षि!
मैं आपसे याचना करता हूं,
मुझे क्षमा करो।
परिपूर्ण समझता स्वयं को,
आज कितना अकेला हूं,
मेरी रक्षा करो।
देवर्षि बोले, नहीं रत्नाकर!
तुम अकेले कहां हो
तुम हो न अपने साथ
तुम ही अपने मित्र हो,
और तुम ही अपने शत्रु भी।
अपने पुराने संसार की रचना
तुमने स्वयं ही की थी।
अपने नए संसार की रचना भी
तुम स्वयं ही करोगे।
इसलिए हे रत्नाकर!
बोलो राम राम, राम राम।
और अपने पुरुषार्थ से
अपने भविष्य की रचना करो।
जो अब तक तुमने
संसार को इतने दुख दिए हैं
उस संसार के सुख के लिए
अब नए साधन की रचना करो।
इस कहानी के इस डाकू ने
अपने पुराने संसार को छोड़
एक नए संसार,
रामायण की रचना की।
इतिहास से पूछो,
वह जानता है
वही बताएगा कि
अतीत का डाकू रत्नाकर ही
भविष्य में रामकथा का
रचैता वाल्मीकि बना।
ठीक ही तो कहा था देवर्षि ने कि असीम संभावनाओं का
स्वामी मनुष्यका श स्वयं को पहचान पाता।