October 12, 2024

 

गांधारी गम के सागर में डूबी,

अपने दूध को,

अपनों के रक्त में ढूढती,

चीत्कार कर बोली…

 

लगा जैसे मैं ही बोला,

लगा जैसे आज हर कोई

कुरुक्षेत्र में खड़ा चित्कार कर

बोला हो…

 

‘हे कृष्ण!

जो मैने अब तक

कोई धर्म कार्य किया हो,

तो उसके तपोबल से

मैं तुम्हें शाप देती हूं कि

जैसे धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में

भाइयों ने भाइयों को मारा है,

वैसे ही एक दिन तुम्हारा वंश

इसी तरह एक दूसरे को

फाड़ खाएगा और तुम खुद

उनका विनाश कर मारे जाओगे।

 

कृष्ण हो, प्रभु हो,

चाहे तुम कोई ईश्वर हो

मगर मारे जाओगे

किसी पशु की तरह…

 

यह सुन श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास

प्रकट हो बोले,

‘यह तुमने क्या किया गांधारी?’

बोले तो वो गांधारी से थे,

मगर लगा कि वो मुझसे बोले हों।

 

जिसे सौ आंखों वाले

वरुण की आंखें देख नहीं पाती।

जिसे हजारों आंखों वाले

इंद्र की आंखें पहचान नहीं पाती।

उसे दो आंखों वाले कैसे देख पाते,

उसे इस जग वाले कैसे देख पाते।

उस कृष्ण को सिर्फ संजय और मैं,

इनकी कृपा से ही देख पा रहे थे।

 

सुनो धृतराष्ट्र, सुनो गांधारी

अठारह दिनों के इस भीषण

महायुद्ध में केवल कृष्ण मरा है।

हर बार, बार बार

 

जितनी बार कोई सैनिक

घायल होकर धारासाई हुआ,

वो कोई और नहीं था,

कृष्ण ही था।

 

गिरता था घायल होकर

जो रणभूमि में,

वो कृष्ण ही था।

 

यहां कुरुक्षेत्र में जो रक्त बहा है

वो किसी और का नहीं था,

कृष्ण का था।

 

गांधारी ! अठारह दिनों के

इस संग्राम में मरने वाला

और मारने वाला एक ही था,

वो कृष्ण था।

हां गांधारी! वो कृष्ण ही था।

वो केवल कृष्ण ही था।

 

गांधारी ने अपनी आंखों पर

अज्ञान की, अंधकार की,

अविध्या की पट्टी चढ़ा रखी थी।

सिर्फ गांधारी ही क्यों?

 

धृतराष्ट्र, दुर्योधन, दुशासन

और भी कितने ही लोगों ने

आंखें होते हुए भी

अज्ञान की पट्टी लगा रखी थी।

जैसे आज हर कोई

पट्टी लगाए हुए है,

मैं भी, तुम भी,

हम सब भी पट्टी लगाए हुए हैं

 

कौन उतार सकता था,

उन दिनों वो पट्टी।

कौन उतारेगा

आज वो पट्टी।

 

कौन रचता है हमारा संसार?

कौन रचता है अपना संसार ?

मैं स्वयं या कोई और?

अपने अपने युद्ध का रचैता कौन?

अपने अपने सुख,

अपने अपने दुख का रचैता कौन?

 

प्रश्न करो, उत्तर मिलेंगे।

अवश्य मिलेंगे, क्योंकि

प्रश्न के गर्भ में ही उत्तर छिपा है।

 

हे कृष्ण!

मैं यह जान गया कि

जो आप कहते हैं,

बुद्धिमान लोग उसी सत्य को

अलग अलग तरह से कहते हैं।

 

और आज मैने

इसे देखा भी और जाना भी।

अपनी अपनी भूमिका में

हर कोई हर किसी से बेहतर है।

मगर फिर भी

कुछ ना कुछ अंतर तो है,

मैं सिर्फ सच दोहरा रहा हूं

और मुझसे बेहतर लोग

सच जी रहे हैं।

 

हे कृष्ण! आप ने जो कहा है,

अश्विनी! कला जीवन की पुस्तक है

जीवन उदाहरण मांगता है,

उदाहरण ढूंढो और जियो उसे।

 

हे भगवन! अब मैंने

उस पुस्तक के पन्नो को

पलटना शुरू कर दिया है,

उदाहरण ढूंढना शुरू कर दिया है।

 

विद्यावाचस्पति अश्विनी राय ‘अरुण’

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