November 21, 2024

 

क्रोध भी हाजिर है,

बस दिखाने के, डराने के।

नफरत भी हाजिर उसके,

कमियों को एहसास दिलाने के।

बेईमानी तो उसके जगजाहिर है,

अपने दो मुहें रूप दिखाने के।

खारे आँसू भी हैं उसके पास,

जज्बाती हथियार बनाने के।

गहरा कितना है, उसका प्यार,

कभी डुब कर देखा नहीं हमने।

कहते हैं करुणा भी है उसमें,

अबतक जाना नहीं किसी ने।

सागर बाप की भांति ही तो है,

कोई उतरा नहीं उसकी गहराई में।

वह जूझता, झूलता, मचलता रहा,

उफनते, गरजते अपने लहराई में।

प्यार, दुलार और करुणा के,

कितने जज़्बात छुपाए हैं दिल में।

ज्वार भाटे से भरी ख्वाईसों के,

हजारों राज छुपाए हैं दिल में।

किसने जाना कितने रत्न छिपे हैं,

विभत्स सागर की गहराई में।

नफरत सह कर भी हाजिर है वह,

कुछ कहा नहीं अपनी सफाई में।

विद्यावाचस्पति अश्विनी राय ‘अरुण’ 

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