एक साहित्यिक सामारोह…
और वो भी सम्मान सामारोह।

मंच पर सात कुर्सियाँ
और उन पर पाँच अधिकारियों का कब्जा।
बचे दो जिनमें एक पर संस्था के जिला अध्यक्ष महोदय एवं दूसरे पर प्रमुख अध्यक्ष जी विराजमान थे।

अब देखने वाली बात यह है की जो व्यक्ति इस पूरे आयोजन के केंद्र में था यानी जिसे सम्मानित करने के लिए बुलाया गया था, उसे आयोजन समिति ने हाशिए पर रखा। पहले सत्र में फोटो सेशन एवं अधिकारियों संग मीडिया में अपने नाम आने की प्रमुखता में समिति ने प्रमुख अतिथि को अगले सत्र तक इंतजार करवाया। तब तक सिर्फ गिने चुने लोग ही रह गए थे।

आयोजन में अधिकारियों ने पूरे समय को इस तरह निचोड़ा की साहित्यिक मनीषियों के लिए समय नहीं बच पाया। जैसे तैसे कुछ लोगों को माईक देकर खानापूर्ति की गई। कुछेक विद्वानों ने इस कम समय का भरपूर फायदा भी उठाया वे अधिकारियों के संग फोटो खिचाने के लिए मंच के पीछे यानी आधिकारियों के पीछे खड़े होने में ही अपना सम्मान समझा। वे किसी ना किसी बहाने वहां जाते रहे और बाकी साहित्यकारों को अपनी नजर में चिढ़ाते रहे।

हर कोई साहित्य को ऊंचाई पर ले जाने की बात करता और स्वयं साहित्यकारों को पीछे धकेल रहा होता है। एक तरफ वो पैसे भी बना रहा होता है और दूसरी ओर अपने दफ्तर में ऊंचे पद पर भी आसीन होता है मगर साहित्यिक सम्मेलन के मंच का लालच वो नहीं छोड़ पा रहा। वह यह नहीं कह पाता की यह स्थान तो मनीषियों का है मैं दर्शक दीर्घा में बैठ उन्हें सुनूंगा। आखिर साहित्यकारों को तो यही एक अवसर मिलता है अपने हुनर अपनी काबिलियत को जनता के सामने प्रस्तुत करने का और वो भी उनसे छीन जाता है। जबकि आयोजन उसी के नाम पर और उसके लिए ही होता है।

दिनकर जी, महादेवी जी, रेणू जी, गुप्त जी आप सब बड़े खुशनसीब थे जो आदर्श समय में जन्में थे जहाँ आप को सुनने, जानने और मानने वाले थे। यह वह समय था जब नेहरू, पटेल आदि नेताओं को भी आपसे डर लगता था।

मगर अफसोस हम लेखक जीवन भर एक कमरे में लिखते रहेंगे और वहीं से जय राम जी की…

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