October 9, 2024

कूटनीति, अर्थनीति, राजनीति के महाविद्वान चाणक्य को कौन नहीं जानता, कोई उन्हें कौटिल्य कहता है, तो कोई विष्णुगुप्त। कोई उन्हें मगध सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के महामंत्री के रूप में तो कोई उन्हें उनके गुरु के रूप में पहचानता है। ऐसे ही अनेकों नाम हैं, जो उनके कृत्यों द्वारा चमत्कृत हैं, जैसे; पिताजी श्री चणक के पुत्र होने के कारण वह चाणक्य कहे गए। कूटनीति, अर्थनीति, राजनीति के महाविद्वान और अपने महाज्ञान का ‘कुटिल’ ‘सदुपयोग, जनकल्याण तथा अखंड भारत के निर्माण जैसे सृजनात्मक कार्यो में करने के कारण वे ‘कौटिल्य’ कहलाये। आचार्य विष्णुगुप्त जन्म से वैश्य थे, कर्म से सच्चे ब्राह्मण और उत्पत्ति से क्षत्रिय और सम्राट चन्द्रगुप्त के गुरु तथा अपने माता-पिता के प्रथम संतान थे। वे तक्षशिला विश्वविद्यालय के आचार्य थे। उन्होंने नंदवंश का नाश करके चन्द्रगुप्त मौर्य को अजापाल से प्रजापाल (राजा) बनाया। उनके द्वारा रचित अर्थशास्त्र नामक ग्रन्थ राजनीति, अर्थनीति, कृषि, समाजनीति आदि का महान ग्रंन्थ है।

परिचय…

चाणक्य के जन्म ईसा पूर्व ३७० में हुआ था, परंतु जन्मस्थान के संबंध में विद्वानों में आपसी सहमति आज तक बन नहीं पाई है, कोई उन्हें पंजाब की भूमि पर कहीं कहता है, तो कोई उन्हें तक्षशिला का बताता है। मगर इतने विवादों के बावजूद वे उनकी मृत्य को लेकर एकमत हैं, आचार्य चाणक्य की मृत्यु अनुमानत: ईसा पूर्व २८३ अंतर्गत पाटलिपुत्र में हुआ था। अगर हम ‘बृहत्कथाकोश’ की माने तो उनकी पत्नी का नाम ‘यशोमती’ था।

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि विष्णुगुप्त का नाम चाणक्य उनके पिता ऋषि चणक के पुत्र के रूप में जन्म लेने की वजह से हुआ था, जो कई पीढ़ियों से मगध में निवास व अध्यापन कार्य करते आ रहे थे, अतः इससे तो यह सिद्ध होता है कि विष्णुगुप्त का जन्म मगध में ही हुआ था। ऋषि चणक उनके आरंभिक काल के गुरु थे। अब आप कुछ विद्वानों का खेल देखिए, चाणक्य को मगध से बाहर का सिद्ध करने के लिए कुछ इतिहासकारों ने चणक को चाणक्य का सिर्फ गुरु कहा है। इसीलिए वे उन्हें चणक शिष्य होने के नाते उनका नाम ‘चाणक्य’ पड़ा कहते हैं। उस समय का कोई प्रामाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है, इसलिए इतिहासकारों ने प्राप्त सूचनाओं के आधार पर अपनी-अपनी धारणाएं बनाई और चाणक्य के जन्मस्थान को पूरे भारत में बांट दिया। परंतु यह सर्वसम्मत है कि चाणक्य की आरंभिक शिक्षा गुरु चणक द्वारा ही दी गई, जो यह साबित करता है कि वे उनका पूरा बचपन मगध के बिता और संस्कृत ज्ञान तथा वेद-पुराण आदि धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन चाणक्य ने चणक के निर्देशन में प्राप्त किया। चाणक्य मेधावी छात्र थे। गुरु उनकी शिक्षा ग्रहण करने की तीव्र क्षमता से अत्यंत प्रसन्न थे। तत्कालीन समय में सभी सूचनाएं व विधाएं धर्मग्रंथों के माध्यम से ही प्राप्त होती थीं। अत: धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन शिक्षा प्राप्त का एकमात्र साधन था। चाणक्य ने किशोरावस्था में ही उन ग्रंथों का सारा ज्ञान ग्रहण कर लिया था।

तक्षशिला में प्राध्यापक…

आचार्य चाणक्य तक्षशिला विश्वविद्यालय प्राध्यापक थे और वहीं से उन्होंने चन्द्रगुप्त के साथ मिलकर मौर्य साम्राज्य की नींव डाली। ‘मुद्राराक्षस’ के अनुसार मगध सम्राट नन्द ने भरे दरबार में चाणक्य को उनके उस पद से हटा दिया, जो उन्हें दरबार में दिया गया था। इस पर चाणक्य ने शपथ ली कि “वह उसके परिवार तथा वंश को निर्मूल करके नन्द से बदला लेंगे।” जो पूर्ण सत्य नहीं है, आचार्य विष्णुगुप्त ने जब सुना कि सिकंदर धरती जीतने निकल चुका है तो वे नन्द से मदद मांगने के लिए तक्षशिला से मगध आए थे, जहां राजा ने उनका तिरस्कार कर दरबार से बाहर निकाल दिया, तब उन्होंने कसम खाई थी कि नंदवंश को निर्मूल करके नन्द से बदला लेंगे।

इतिहास या धारणा…

तात्कालिक मगध सम्राट धनानंद की प्रजा विरोधी नीतियों को देखते हुए विष्णुगुप्त के पिता चणक ने राजा और उसकी राजनीति का विरोध किया, जिसके फलस्वरूप उन्हें कारागार में डाल दिया गया और उनके पूरे परिवार को देश निकाला दे दिया गया। तथापि कालांतर में राष्ट्रहित के कारण चाणक्य ने धनानंद से सीमान्त देशों के लिए सैनिक सहायता के लिए विनती की, जिससे बाहरी आततायी भारतीय जन का अशुभ न कर सकें। परन्तु मद में अंधे धनानंद ने उनका अपमान कर उन्हें राजमहल से निकाल दिया। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि आचार्य विष्णुगुप्त बड़े ही स्वाभिमानी एवं राष्ट्रप्रेमी व्यक्ति थे, उन्होंने क्रोध के वशीभूत होकर अपनी शिखा खोलकर यह प्रतिज्ञा की कि जब तक वह नंदवंश का नाश नहीं कर देंंगे तब तक वह अपनी शिखा नहीं बाँधेंगे। कौटिल्य के व्यावहारिक राजनीति में प्रवेश करने का यह भी एक बड़ा कारण था। नंदवंश के विनाश के बाद उन्होने चन्द्रगुप्त मौर्य को राजगद्दी पर बैठने में हर संभव सहायता की। चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा गद्दी पर आसीन होने के बाद उसे पराक्रमी बनाने और मौर्य साम्राज्य का विस्तार करने के उद्देश्य से उन्होने व्यावहारिक राजनीति में प्रवेश किया। वह चन्द्रगुप्त मौर्य के मंत्री भी बने।

कई विद्वानों ने यह कहा है कि कौटिल्य ने कहीं भी अपनी रचना में मौर्यवंश या अपने मंत्रित्व के संबंध में कुछ नहीं कहा है, परंतु अधिकांश स्रोतों ने इस तथ्य की संपुष्टि की है। ‘अर्थशास्त्र’ में कौटिल्य ने जिस विजिगीषु राजा का चित्रण प्रस्तुत किया है, निश्चित रूप से वह चन्द्रगुप्त मौर्य के लिये ही संबोधित किया गया है।

भारत पर सिकन्दर के आक्रमण के कारण छोटे-छोटे राज्यों की पराजय से अभिभूत होकर कौटिल्य ने व्यावहारिक राजनीति में प्रवेश करने का संकल्प किया। उनकी सर्वोपरि इच्छा थी भारत को एक गौरवशाली और विशाल राज्य (अखण्ड भारत) रूप में देखना। निश्चित रूप से चन्द्रगुप्त मौर्य उनकी इच्छा का केन्द्र बिन्दु था। आचार्य कौटिल्य को एक ओर पारंगत और दूरदर्शी राजनीतिज्ञ के रूप में मौर्य साम्राज्य का संस्थापक और संरक्षक माना जाता है, तो दूसरी ओर उन्हे संस्कृति साहित्य के इतिहास में अपनी अतुलनीय एवं अद्भुत कृति के कारण अपने विषय का एकमात्र विद्वान होने का गौरव प्राप्त है। कौटिल्य की विद्वता, निपुणता और दूरदर्शिता का बखान भारत के शास्त्रों, काव्यों तथा अन्य ग्रंथों में परिव्याप्त है। कौटिल्य द्वारा नंदवंश का विनाश और मौर्यवंश की स्थापना से संबंधित कथा विष्णु पुराण में आती है।

अति विद्वान और मौर्य साम्राज्य का महामंत्री होने के बावजूद कौटिल्य का जीवन सादगी का जीवन था। वह ‘सादा जीवन उच्च विचार’ का सही प्रतीक थे। उन्होने अपने मंत्रित्वकाल में अत्यधिक सादगी का जीवन बिताया। वह एक छोटा-से मकान में रहते थे और कहा जाता है कि उनके मकान की दीवारों पर गोबर के उपले थोपे रहते थे। उनकी मान्यता थी कि राजा या मंत्री अपने चरित्र और ऊँचे आदर्शों के द्वारा लोगों के सामने एक प्रतिमान दे सकता है। उन्होंने सदैव मर्यादाओं का पालन किया और कर्मठता की जिंदगी बितायी। कहा जाता है कि बाद में उन्होंने मंत्री पद त्यागकर वानप्रस्थ जीवन व्यतीत किया था। वस्तुतः उन्हें धन, यश और पद का कोई लोभ नहीं था। सारतत्व में वह एक वितरागी, तपस्वी, कर्मठ और मर्यादाओं का पालन करनेवाले व्यक्ति थे, जिनका जीवन आज भी अनुकरणीय है।

एक प्रकांड विद्वान तथा एक गंभीर चिंतक के रूप में कौटिल्य तो विख्यात है ही, एक व्यावहारिक एवं चतुर राजनीतिज्ञ के रूप में भी उन्हे ख्याति मिली है। नंदवंश के विनाश तथा मगध साम्राज्य की स्थापना एवं विस्तार में उनका ऐतिहासिक योगदान है। सालाटोर के कथनानुसार प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिंतन में कौटिल्य का सर्वोपरि स्थान है। कौटिल्य ने राजनीति को नैतिकता से पृथक कर एक स्वतंत्र शास्त्र के रूप में अध्ययन करने का प्रयास किया है। जैसा कि कहा जाता है चाणक्य एक महान आचार्य थे।

शोध…

कौटिल्य का नाम, जन्मतिथि और जन्मस्थान तीनों ही जानबूझकर विवाद के विषय बनाए गए हैं। कौटिल्य के नाम के संबंध में भी विद्वानों ने मतभेद बनाया है। कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ के प्रथम अनुवादक पंडित शामाशास्त्री ने कौटिल्य नाम का प्रयोग किया है। ‘कौटिल्य नाम’ की प्रमाणिकता को सिद्ध करने के लिए पंडित शामाशास्त्री ने विष्णु-पुराण का हवाला दिया है जिसमें कहा गया है,

तान्नदान् कौटल्यो ब्राह्मणस्समुद्धरिष्यति।

इस संबंध में एक विवाद और उत्पन्न हुआ है और वह है कौटिल्य और कौटल्य का। गणपति शास्त्री ने ‘कौटिल्य’ के स्थान पर ‘कौटल्य’ को ज्यादा प्रमाणिक माना है। उनके अनुसार कुटल गोत्र होने के कारण कौटल्य नाम सही और संगत प्रतीत होता है। कामन्दकीय नीतिशास्त्र के अन्तर्गत कहा गया है,

कौटल्य इति गोत्रनिबन्धना विष्णु गुप्तस्य संज्ञा।

सांबाशिव शास्त्री ने कहा है कि गणपतिशास्त्री ने संभवतः कौटिल्य को प्राचीन संत कुटल का वंशज मानकर कौटल्य नाम का प्रयोग किया है, परन्तु इस बात का कहीं कोई प्रमाण नहीं मिलता है कि कौटिल्य संत कुटल के वंश और गोत्र का था। ‘कोटिल्य’ और ‘कौटल्य’ नाम का विवाद और भी कई विद्वानों ने उठाया है। वी.ए. रामास्वामी ने गणपतिशास्त्री के कथन का समर्थन किया है। आधुनिक विद्वानों ने दोनों नामों का प्रयोग किया है। पाश्चात्य लेखकों ने कौटिल्य नाम का ही प्रयोग किया है। भारत में विद्वानों ने दोनों नामों का प्रयोग किया है, बल्कि ज्यादातर कौटिल्य नाम का ही प्रयोग किया है। इस संबंध में राधाकांत जी का कथन भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उन्होंने अपनी रचना ‘शब्दकल्पद्रम’ में कहा है,

अस्तु कौटल्य इति वा कौटिल्य इति या चाणक्यस्य गोत्रनामधेयम्।

कौटिल्य के और भी कई नामों का उल्लेख किया गया है। जिसमें चाणक्य नाम प्रसिद्ध है। कौटिल्य को चाणक्य के नाम से पुकारने वाले कई विद्वानों का मत है कि चाणक निषाद का पुत्र होने के कारण यह चाणक्य कहलाया। दूसरी ओर कुछ विद्वानों के कथानानुसार उसका जन्म पंजाब के चणक क्षेत्र के निषाद बस्ती में हुआ था जो वर्तमान समय में चंडीगढ़ के मल्लाह नामक स्थान से सूचित किया जाता है, इसलिए उन्हे चाणक्य कहा गया है, यद्यपि इस संबंध में कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता है। एक बात स्पष्ट है कि कौटिल्य और चाणक्य एक ही व्यक्ति है। यह तथ्य बरगलाने वाला ज्यादा प्रतीत होता है, क्योंकि यह प्रमाणित है कि वे निषाद पुत्र ना होकर ब्राह्मण पुत्र थे और उनके पिता ऋषि चणक थे, जो उनके गुरु भी थे।

उपर्युक्त नामों के अलावा उसके और भी कई नामों का उल्लेख मिलता है, जैसे विष्णुगुप्त। कहा जाता है कि उनका मूल नाम विष्णुगुप्त ही था। उनके पिता ने उनका नाम विष्णुगुप्त ही रखा था। कौटिल्य, चाणक्य और विष्णुगुप्त तीनों नामों से संबंधित कई सन्दर्भ मिलते हैं, किंतु इन तीनों नामों के अलावा उसके और भी कई नामों का उल्लेख किया गया है, जैसे वात्स्यायन, मलंग, द्रविमल, अंगुल, वारानक्, कात्यान इत्यादि इन भिन्न-भिन्न नामों में कौन सा सही नाम है और कौन-सा गलत नाम है, यह विवाद का विषय है। परन्तु अधिकांश पाश्चात्य और भारतीय विद्वानों ने ‘अर्थशास्त्र’ के लेखक के रूप में कौटिल्य नाम का ही प्रयोग किया है।

कुछ पाश्चात्य विद्वानों की कुटिलता को देखिए कि उन्होंने तो कौटिल्य के अस्तित्व पर ही प्रश्नवाचक चिह्न लगा दिया है। विन्टरनीज, जॉली और कीथ के मतानुसार कौटिल्य नाम प्रतीकात्मक है, जो कूटनीति का प्रतीक है। पांतजलि द्वारा अपने महाभाष्य में कौटिल्य का प्रसंग नहीं आने के कारण उनके मतों का समर्थन मिला है। यह तो कोई तथ्य ही नहीं हुआ कि अगर किसी विद्वान के ग्रंथ में किसी व्यक्ति का नाम नहीं आया तो उस व्यक्ति का कोई आस्तित्व ही ना हो। जॉली ने तो यहाँ तक कह डाला है कि ‘अर्थशास्त्र’ किसी कौटिल्य नामक व्यक्ति की कृति नहीं है। यह किसी अन्य आचार्य का रचित ग्रंथ है। शामाशास्त्री और गणपतिशास्त्री दोनों ने ही पाश्चात्य विचारकों के मत का खंडन किया है। दोनों का यह निश्चय मत है कि कौटिल्य का पूर्ण अस्तित्व था, भले ही उसके नामों में मतांतर पाया जाता हो। वस्तुतः इन तीनों पाश्चात्य विद्वानों के द्वारा कौटिल्य का अस्तित्व को नकारने के लिए जो बिंदु उठाए गए हैं, वे अनर्गल एवं महत्त्वहीन हैं। पाश्चात्य विद्वानों का यह कहना है कि कौटिल्य ने इस बात का कहीं उल्लेख नहीं किया है कि वह चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में अमात्य या मंत्री था, इसलिए उन्हे ‘अर्थशास्त्र’ का लेखक नहीं माना जा सकता है यह बचकाना तर्क है। कौटिल्य के कई सन्दर्भों से यह स्पष्ट हो चुका है कि उन्होने चन्द्रगुप्त मौर्य की सहायता से नंदवंश का नाश किया था और मौर्य साम्राज्य की स्थापना की थी।

कौटिल्य की कृतियाँ…

कौटिल्य की कृतियों के संबंध में भी कई विद्वानों के बीच मतभेद पाया जाता है। कौटिल्य की कितनी कृतियाँ हैं, इस संबंध में कोई निश्चित सूचना उपलब्ध नहीं है। कौटिल्य की सबसे महत्त्पूर्ण कृति ‘अर्थशास्त्र’ की चर्चा सर्वत्र मिलती है, किन्तु अन्य रचनाओं के संबंध में कुछ विशेष उल्लेख नहीं मिलता।

चाणक्य के शिष्य कामंदक ने अपने ‘नीतिसार’ नामक ग्रंथ में लिखा है कि विष्णुगुप्त चाणक्य ने अपने बुद्धिबल से अर्थशास्त्र रूपी महोदधि को मथकर नीतिशास्त्र रूपी अमृत निकाला। चाणक्य का ‘अर्थशास्त्र’ संस्कृत में राजनीति विषय पर एक विलक्षण ग्रंथ है। इसके नीति के श्लोक तो घर घर प्रचलित हैं। पीछे से लोगों ने इनके नीति ग्रंथों से घटा बढ़ाकर वृद्धचाणक्य, लघुचाणक्य, बोधिचाणक्य आदि कई नीतिग्रंथ संकलित कर लिए। चाणक्य सब विषयों के पंडित थे। ‘विष्णुगुप्त सिद्धांत’ नामक इनका एक ज्योतिष का ग्रंथ भी मिलता है। कहते हैं, आयुर्वेद पर भी इनका लिखा ‘वैद्यजीवन’ नाम का एक ग्रंथ है। न्याय भाष्यकार वात्स्यायन और चाणक्य को कोई कोई एक ही मानते हैं, पर यह भ्रम है जिसका मूल हेमचंद का यह श्लोक है:

वात्स्यायन मल्लनागः, कौटिल्यश्चणकात्मजः।
द्रामिलः पक्षिलस्वामी विष्णु गुप्तोऽंगुलश्च सः॥

यों धातुकौटिल्या और राजनीति नामक रचनाओं के साथ कौटिल्य का नाम जोड़ा गया है। कुछ विद्वानों का यह मानना है कि ‘अर्थशास्त्र’ के अलावा यदि कौटिल्य की अन्य रचनाओं का उल्लेख मिलता है, तो वह कौटिल्य की सूक्तियों और कथनों का संकलन हो सकता है।

मृत्यु…

आचार्य चाणक्य की मृत्यु के विषय में कई तरह की बातों का उल्लेख मिलता है। कहते हैं कि वे अपने सभी कार्यों को पूरा करने के बाद एक दिन रथ पर सवार होकर मगध से दूर जंगलों में चले गए और उसके बाद वे कभी नहीं लौटे। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि उन्हें मगथ की ही रानी हेलेना ने जहर देकर मरवा दिया था। कुछ मानते हैं कि हेलेना ने उनकी हत्या करवा दी थी।

यह भी कहा जाता है कि बिंदुसार के मंत्री सुबंधु के षड़यंत्र के चलते सम्राट बिंदुसार के मन में यह संदेह उत्पन्न किया गया कि उनकी माता की मृत्यु का कारण चाणक्य थे। इस कारण धीरे-धीरे राजा और चाणक्य में दूरियां बढ़ती गईं और एक दिन चाणक्य हमेशा के लिए महल छोड़कर चले गए। हालांकि बाद में बिंदुसार को इसका पछतावा हुआ था। एक दूसरी कहानी के अनुसार बिंदुसार के मंत्री सुबंधु ने आचार्य को जिंदा जलाने की कोशिश की थी, जिसमें वे सफल भी हुए। हालांकि ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार चाणक्य ने खुद प्राण त्यागे थे या फिर वे किसी षड़यंत्र का शिकार हुए थे, यह स्पष्ट नहीं है। फिर भी उनकी हत्या वाली बात पर संदेह उत्पन्न होता है क्योंकि आचार्य चाणक्य की अपनी निजी और इतिहास की सबसे बड़ी खुफिया तंत्र थी, उस समय राजा, राजभवन और प्रजा से लेकर अन्य राज्यों तक के नजदीक आचार्य के अय्यार और जासूस फैले हुए थे। आचार्य की जानकारी में आए बिना उस समय एक पत्ता तक नहीं हिलता था। अतः उनकी हत्या की बात कोरी कल्पना मात्र है।

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