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बात उन दिनों की है जब भौतिक विज्ञान में नई-नई खोजें हो रही थीं। जर्मन भौतिकशास्त्री मैक्स प्लांक ने क्वांटम सिद्धांत का प्रतिपादन किया था। उसका अर्थ यह था कि ऊर्जा को छोटे-छोटे हिस्सों में बाँटा जा सकता है। जर्मनी में ही अल्बर्ट आइंस्टीन ने “सापेक्षता का सिद्धांत” प्रतिपादित किया था। अब आप सोच रहे होंगे, मैं आज नव वर्ष के अवसर पर यह क्या लेकर बैठ गया। मगर थोड़ा संयम बरतें…

एक समय की बात है, एक व्यक्ति एक लेख लेकर देश के सभी बड़े प्रकाशनों के पास जाता है, मगर उस व्यक्ति को निराशा हांथ लगती है। लेकिन वह व्यक्ति हार नहीं मानता है, उसने उस लेख को सीधे आइंस्टीन को भेज देता है। उस पत्र को उन्होंने इसका अनुवाद जर्मन भाषा में स्वयं किया और प्रकाशित करा दिया। इससे उस व्यक्ति को बहुत प्रसिद्धि मिली और उसे यूरोप आने का न्यौता भी मिला। यूरोप यात्रा के दौरान उस व्यक्ति की आइंस्टीन से मुलाकात हुई। यहां सोचने वाली एक बात है, क्या हर भारतीय अच्छे हैं या हर विदेशी बुरे? सोचिएगा जरूर। यह एक वैचारिक विषय है। यहां बात भले और बुरे की ना होकर प्रतिभा के कद्र की हो तो ज्यादा श्रेयस्कर रहेगा। हां तो हम बात कर रहे थे उस लेख के बारे में और उसके लेखक के बारे में। वह लेख था,”प्लांक्स लॉ एण्ड लाइट क्वांटम” पर और लेखक थे…

श्री सत्येन्द्रनाथ बोस

जिनका जन्म ०१ जनवरी, १८९४ को कोलकाता में हुआ था। जब सत्येन्द्रनाथ छोटे थे तो उनकी आरंभिक शिक्षा उनके घर के पास ही स्थित साधारण स्कूल में हुई थी। इसके बाद उन्हें न्यू इंडियन स्कूल और फिर हिंदू स्कूल में भरती कराया गया। स्कूली शिक्षा पूरी करके सत्येन्द्रनाथ ने कोलकाता के प्रसिद्ध प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया। वह अपनी सभी परीक्षाओं में सर्वाधिक अंक पाते रहे और उन्हें प्रथम स्थान मिलता रहा। उनकी प्रतिभा देखकर कहा जाता था कि वह एक दिन पियरे साइमन, लेप्लास और आगस्टीन लुई काउथी जैसे गणितज्ञ बनेंगे।

सत्येन्द्रनाथ ने वर्ष १९१५ में गणित में एमएससी परीक्षा प्रथम श्रेणी में सर्वप्रथम आकर उत्तीर्ण की। उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर सर आशुतोष मुखर्जी ने उन्हें प्राध्यापक के पद पर नियुक्त कर दिया। यही वह समय था जब उन दिनों भौतिक विज्ञान में नई-नई खोजें हो रही थीं। जर्मन भौतिकशास्त्री मैक्स प्लांक ने क्वांटम सिद्धांत का प्रतिपादन किया था। उसका अर्थ यह था कि ऊर्जा को छोटे-छोटे हिस्सों में बाँटा जा सकता है। जर्मनी में ही अल्बर्ट आइंस्टीन ने “सापेक्षता का सिद्धांत” प्रतिपादित किया था। ऊपर बताए गए सभी खोजों पर सत्येन्द्रनाथ बोस पहले से ही अध्ययन कर रहे थे। मगर भारत में ही एक भारतीय के प्रति उदासीनता तथा एक विदेशी का एक लेख के आधार पर भरोसा करना यह साफ दर्शाता है की मानवता और विश्वास किसी एक देश की बपौती नहीं है। बोस तथा आइंस्टीन ने मिलकर बोस-आइंस्टीन स्टैटिस्टिक्स की खोज कर डाली। भौतिक शास्त्र में दो प्रकार के अणु माने जाते हैं – बोसान और फर्मियान। इनमे से बोसान सत्येन्द्र नाथ बोस के नाम पर ही हैं।

वर्ष १९२६ में सत्येन्द्रनाथ बोस भारत लौटे और ढाका विश्वविद्यालय में वर्ष १९५० तक काम किया। फिर शांतिनिकेतन में विश्व भारती विश्वविद्यालय के कुलपति बने। और अंत में ४ फ़रवरी १९७४ को उनका निधन हो गया।

 

बोस-आइन्स्टाइन सांख्यिकी

क्वांटम सांख्यिकी तथा सांख्यिकीय भौतिकी में अविलगनीय कणों का संचय केवल दो विविक्त ऊर्जा प्रावस्थाओं में रह सकता है। इसमें से एक का नाम बोस-आइन्स्टाइन सांख्यिकी है। लेजर तथा घर्षणहीन अतितरल हिलियम के व्यवहार इसी सांख्यिकी के परिणाम हैं। इस व्यवहार का सिद्धान्त १९२४-२५ में सत्येन्द्र नाथ बसु और अल्बर्ट आइंस्टीन ने विकसित किया था। ‘अविलगनीय कणों’ से मतलब उन कणों से है जिनकी ऊर्जा अवस्थाएँ बिल्कुल समान हों।

यह सांख्यिकी उन्ही कणों पर लागू होती है जो जो पाउली के अपवर्जन सिद्धांत के अनुसार नहीं चलते, अर्थात् अनेकों कण एक साथ एक ही ‘क्वांटम स्टेट’ में रह सकते हैं। ऐसे कणों का चक्रण (स्पिन) का मान पूर्णांक होता है तथा उन्हें बोसॉन कहते हैं। यह सांख्यिकी १९२० में सत्येन्द्रनाथ बोस द्वारा प्रतिपादित की गयी थी और फोटानों के सांख्यिकीय व्यवहार को बताने के लिये थी। इसे सन् १९२४ में आइंस्टीन ने सामान्यीकृत किया जो कणों पर भी लागू होती है।

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