Month: May 2022

  • यासीन मलिक

    यासीन मलिक


    जम्मू-कश्मीर लिब्रेशन फ्रंट का प्रमुख यासीन मलिक को दिल्ली की स्पेशल एनआईए कोर्ट ने २५ मई, २०२२ को कश्मीर में आतंकी हमलों के लिए फंडिंग और आतंकियों को हथियार मुहैया कराने से जुड़े कई केस में उम्र कैद की सजा सुनाई है। यासीन मलिक मूल रूप से श्रीनगर का रहने वाला है और उस पर ४ एयरफोर्स जवानों की हत्या समेत कई गंभीर आरोप हैं। यासीन मलिक का नाम पूर्व में कश्मीर में हिंसा की तमाम साजिशों में शामिल रहा है। इसके अलावा वह १९९० के हुए कश्मीरी पंडितों के पलायन का प्रमुख जिम्मेदार भी है।

    परिचय…

    ३ अप्रैल, १९६६ को श्रीनगर के मायसूमा इलाके में जन्मा यासीन मलिक का पिता गुलाम कादिर मलिक एक सरकारी बस चालक था। यासीन मलिक की पढ़ाई श्रीनगर में हुई है और वह यहां के प्रताप कॉलेज का स्टूडेंट रहा। यासीन मलिक का परिवार अब विदेश में रहता है और वह लंबे समय से दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद है। वर्ष १९८० के दशक में यासीन मलिक ने आतंक का रास्ता अपनाया और ताला पार्टी नाम का एक राजनीतिक संगठन बनाया। सर्वप्रथम उसका नाम वर्ष १९८३ के इंडिया वेस्ट इंडीज मैच के दौरान गड़बड़ी करने के आरोप में सामने आया था। इसके बाद वर्ष १९८४ में वह पहली बार जेकेएलएफ के चीफ मकबूल भट की फांसी के बाद इस संगठन के लिए खुलकर सामने आया।

    मकबूल भट को फांसी का विरोध…

    मकबूल भट सोपोर (बारामूला) का रहने वाला था और यासीन को उसके करीबियों में जाना जाता था। वर्ष १९८४ में जब जज नीलकंठ गंजू की कोर्ट ने उसे फांसी की सजा सुनाई, तो यासीन मलिक ने इसका जमकर विरोध किया। यासीन मलिक की ताला पार्टी ने कश्मीर में मकबूल भट को फांसी देने के फैसले के खिलाफ पोस्टर लगाए और प्रदर्शन किए। इस आरोप में यासीन मलिक को जेल भेज दिया गया। वर्ष १९८६ में यासीन मलिक ने जेल से निकलकर ताला पार्टी का नाम इस्लामिक स्टूडेंट लीग कर दिया और इससे कश्मीरी स्टूडेंट को जोड़ने की शुरुआत की। कुछ वक्त में इस्लामिक स्टूडेंट लीग का संगठन बड़ा हो गया और इसके साथ अशफाक वानी, जावेद मीर और अब्दुल हमीद शेख जैसे नाम भी जुड़े। अशफाक वानी का नाम वर्ष १९८९ के दौरान उस वक्त देश भर ने जाना जब उसने गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी का अपहरण किया।

    कांग्रेस के खिलाफ प्रचार…

    वर्ष १९८६ में राजीव गांधी की सरकार ने कश्मीर घाटी में गुलाम मोहम्मद शेख की सरकार को बर्खास्त किया और फिर कांग्रेस पार्टी ने फारूक अब्दुल्ला की नैशनल कॉन्फ्रेंस से हाथ मिला लिया। वर्ष १९८७ के जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनाव के दौरान यासीन मलिक ने मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट जॉइन कर लिया। इस संगठन ने कांग्रेस और नैशनल कॉन्फ्रेंस के खिलाफ जम्मू-कश्मीर में जमकर प्रचार किया। मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट का एक उम्मीदवार मोहम्मद युसूफ शाह भी था, जो कि श्रीनगर के आमीराकदल से उम्मीदवार बनाया गया। यासीन मलिक को मोहम्मद युसूफ शाह का बूथ एजेंट बनाया गया।

    आमीराकदल के चुनाव का परिणाम घोषित होने के वक्त मोहम्मद युसूफ शाह दोपहर तक मतगणना में काफी आगे था और उसकी जीत तय थी। लेकिन जाने ऐसा क्या हुआ? बाद में मोहम्मद युसूफ को पराजित घोषित कर अमीराकदल से नैशनल कॉन्फ्रेंस कैंडिडेट गुलाम मोहिउद्दीन शाह को विजयी बना दिया गया। युसूफ शाह और यासीन मलिक को वर्ष १९८७ के इस चुनाव के बाद जेल में डाल दिया गया। जेल के रिहा होने के बाद मोहम्मद युसूफ शाह मोहम्मद एहसान डार के संपर्क में आया, जो कि हिज्बुल मुजाहिदीन का संस्थापक था। यूसुफ डार ने इसके बाद अपना नाम बदल लिया और खुद को सैयद सलाहुद्दीन घोषित कर लिया।

    पीओके जाकर ट्रेनिंग…

    वर्ष १९८८ में यासीन मलिक ने आतंक का रास्ता अपना लिया। उसने पाक अधिकृत कश्मीर जाकर आतंक की ट्रेनिंग ली और उसके बाद कश्मीर लौटकर जेकेएलएफ का एरिया कमांडर बन गया। वर्ष १९८९ तक यासीन मलिक जेकेएलएफ का एक प्रमुख चेहरा बन गया। उसने अशफाक वानी, हामिद शेख और जावेद अहमद मीर नाम के तीन आतंकियों के साथ मिलकर ‘हाजी’ नाम का एक गुट भी बनाया। यासीन मलिक का नाम वर्ष १९८९ में तत्कालीन गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबैया सईद के अपहरण के दौरान आया। इस कांड का प्रमुख साजिशकर्ता अशफाक वानी था। ८ दिसंबर, १९८९ की इस घटना के बाद १३ दिसंबर को रुबैया को रिहा किया गया। रुबैया को दिल्ली लाने के एवज में सरकार ने सात आतंकियों को रिहा किया जिसका जमकर विरोध हुआ।

    एयरफोर्स जवानों की हत्या…

    रुबैया के अपहरण की घटना के बाद जनवरी १९९० में यासीन मलिक ने श्रीनगर में साथियों के साथ मिलकर ४ एयरफोर्स जवानों की हत्या की। इसी साल मार्च में यासीन मलिक के साथी अशफाक वानी को मार गिराया गया। इसके बाद अगस्त में यासीन को घायल हालत में गिरफ्तार किया गया। यासीन मलिक की गिरफ्तारी के बाद करीब ४ साल बाद उसे जमानत पर रिहा किया गया। मई १९९४ में रिहा हुए यासीन मलिक ने सीजफायर का ऐलान किया और कहा कि उसने गांधीवाद का रास्ता चुन लिया है। इसके जवाब में पाकिस्तान से उसकी आतंकी फंडिंग रोक दी और जेकेएलएफ ने संस्थापक अमानतुल्लाह खान ने उसे संगठन के अध्यक्ष पद से हटा दिया। बाद में यासीन ने जेकेएलएफ का एक अलग गुट भी बना लिया।

    कश्मीर की आजादी की बात कहने वाले यासीन मलिक को जमानत के पांच साल बाद वर्ष १९९९ में फिर से गिरफ्तार कर लिया गया। इस गिरफ्तारी के वक्त उस पर पब्लिक सेफ्टी ऐक्ट के तहत केस दर्ज किया गया। उस वक्त केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी जी की सरकार थी। वर्ष २००२ में अटल बिहारी सरकार के दौरान उसे प्रिवेंशन ऑफ टेररिज्म ऐक्ट (POTA) के तहत गिरफ्तार किया गया। जेल से रिहा होने के बाद कूटनीतिक चाल के तहत उसने भारत और पाकिस्तान के तमाम राजनीतिक नेताओं से भेंट की।

    मनमोहन सिंह से राउंड टेबल पर बैठक…

    वर्ष २००६ में भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यासीन मलिक समेत जम्मू-कश्मीर के अलग-अलग संगठनों और पार्टियों के प्रतिनिधियों को अपने घर मुलाकात के लिए बुलाया। मनमोहन सिंह के साथ इन सभी की राउट टेबल पर बैठक हुई। जब यासीन मलिक मनमोहन सिंह से मिलने पहुंचा तो श्री सिंह ने उसका स्वागत गर्मजोशी से किया। इसके बाद यासीन मलिक ने वर्ष २००७ में सफर·ए·आजादी नाम से एक कैंपेन शुरु किया। यासीन ने इस अभियान के दौरान दुनिया भर के तमाम इलाकों में जाकर भारत विरोधी भाषण भी दिए। इसी सफर के दौरान वर्ष २०१३ में उसकी तस्वीर लश्कर·ए·तैयबा के चीफ हाफिज सईद के साथ भी सामने आई।

    टेरर फंडिंग का केस…

    वर्ष २०१६ में कश्मीर घाटी की हिंसा के दौरान पत्थरबाजी पर निर्णायक कार्रवाई करते हुए सरकार ने टेरर फंडिंग केस की जांच शुरू की। इस मामले में वर्ष २०१७ में यासीन मलिक को आरोपी बनाया गया। एनआईए की जांच के दौरान यासीन के खिलाफ कई अहम सबूत भी मिले। इसके अलावा कश्मीर समेत घाटी के कई इलाकों में उसकी अवैध संपत्तियों का पता भी चला था। इसी मामले में २५ मई, २०२२ को अदालत में स्पेशल जज NIA प्रवीण सिंह ने उसे उम्रकैद की सजा सुनाई।

  • वंश परंपरा

    वंश परंपरा

    विश्व की समस्त जन समुदाय ऋषि·मुनियों की संतान हैं। चाहे वह किसी भी कुल में जन्मा हो। ऋषियों में बहुत से ऐसे ऋषि हुए जिन्होंने वेदों की ऋचाओं की रचना की तथा उन्हें संभालने के लिए वेदों के विभाग किए जो उपवेद कहलाए। उन्हें भी उन्होंने अलग अलग शाखाओं में विभक्त किया तथा उसे अपने शिष्यों को कंठस्थ कराया और उन्हें यह शिक्षा भी दी कि आप अपनी पीढियों को भी वेद की उक्त शाखा को कंठस्थ कराएं। इस तरह कालांतर में ऋषि कुल के अंतर्गत आने वाले वंश परंपरा में अलग अलग समाज का निर्माण होता गया।

    वर्तमान काल में यदि कोई सभ्य समाज के अंतर्गत आने वाले कुलीन व्यक्ति को अपना परिचय देना होगा तो उन्हें अपना गोत्र, प्रवर, वेद, शाखा, सूत्र, देवता, आवंटक आदि को बताना होगा।

    १. गोत्र…

    ‘गोत्र’ शब्द से उस समसामयिक वंश परंपरा का संकेत मिलता है, जो एक संयुक्त परिवार के रूप में रहती थी और जिनकी संपत्ति भी साझा होती थी। गोत्र मूल रूप से ब्राह्मणों के उन सात वंशों से संबंधित होता है, जो अपनी उत्पत्ति सात ऋषियों से मानते हैं। ये सात ऋषि अत्रि, भारद्वाज, भृगु, गौतम, कश्यप, वशिष्ठ, विश्वामित्र हैं। इनके अलावा भी इन गोत्रों में एक आठवाँ गोत्र बाद में अगस्त्य ऋषि के नाम से जोड़ा गया, क्योंकि दक्षिण भारत में वैदिक हिन्दू धर्म के प्रसार में उनका बहुत योगदान था। बाद के युग में गोत्रों की संख्या बढ़ती चली गई, क्योंकि अपने ब्राह्मण होने का औचित्य स्वयं के वैदिक ऋषि के वंशज होने का दावा करते हुए ठहराना पड़ता था।

    २. प्रवर…

    प्रवर का शाब्दिक अर्थ श्रेष्ठ होता है। गोत्रकारों के पूर्वजों एवं महान ऋषियों को प्रवर कहते हैं। जैसे महर्षि वशिष्ठ के पौत्र व महर्षि शक्ति के पुत्र, संकृति ऋषि के वंश में अपने कर्मो द्वारा कोई व्यक्ति ऋषि होकर महान हो गया है जो उसके नाम से आगे वंश चलता है। यह मील के पत्थर जैसे है। मूल ऋषि के कुल में तीन, पांच या सात आदि महान ऋषि हो चले हैं। मूल ऋषि के गोत्र के बाद जिस ऋषि का नाम आता है उसे प्रवर कहते हैं।

    ३. वेद…

    वेदों की रचनाएं ऋषियों के अंत:करण से प्रकट हुई थी। यह वह काल था, जब लिखने के लिए कोई साधन उपलब्ध नहीं था। हां कभी कभी कुछ बातों को शिल्लाओं पर लिख दिया जाता था, मगर यह सुरक्षित नहीं था। ऐसे में ऋचाओं की रक्षा हेतु एक परंपरा का प्रचलन हुआ। उसे सुनाकर दूसरे को याद कराया जाए और इस तरह वह कंठस्थ कर ली जाए। चूंकि चारों वेद कोई एक ऋषि याद नहीं रख सकता था इसलिए गोत्रकारों ने ऋषियों के जिस भाग का अध्ययन, अध्यापन, प्रचार प्रसार, आदि किया उसकी रक्षा का भार उसकी संतान पर पड़ता गया इससे उनके पूर्व पुरुष जिस वेद ज्ञाता थे तदनुसार वेदाभ्‍यासी कहलाते हैं।

    ४. शाखा…

    मान लो कि किसी एक ऋषि की कुल संतान को एक ऋग्वेद के ही संवरक्षण का कार्य सौंप दिया गया तो फिर यह भी समस्या थी कि इतने हजारों मंत्रों को कोई एक ही याद करके कैसे रखे और कैसे वह अपनी अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करें। ऐसे में वेदों की शाखाओं का निर्माण हुआ। ऋषियों ने प्रत्येक एक गोत्र के लिए एक वेद के अध्ययन की परंपरा डाली थी, कालांतर में जब एक व्यक्ति उसके गोत्र के लिए निर्धारित वेद पढ़ने में असमर्थ हो जाता था तो ऋषियों ने वैदिक परंपरा को जीवित रखने के लिए शाखाओं का निर्माण किया। इस प्रकार से प्रत्येक गोत्र के लिए अपने वेद की उस शाखा का पूर्ण अध्ययन करना आवश्यक कर दिया। इस प्रकार से उन्‍होंने जिसका अध्‍ययन किया, वह उस वेद की शाखा के नाम से पहचाना गया। मतलब यह कि उदाहरणार्थ किसी का गोत्र- सांकृत, प्रवर- ३/५(त्री)/(पंच) आंगिरस, गौरुवीत, सांकृत तीन या कृष्णात्रेय, आर्चनानस, श्यावास्व, संख्यायन, सांकृत और वेद- यजुर्वेद, शाखा (उपवेद)- धनुर्वेद है।

    ५. सूत्र…

    व्यक्ति जब शाखा के अध्ययन में भी असमर्थ हो गया, तब उस गोत्र के परवर्ती ऋषियों ने उन शाखाओं को सूत्र रूप में बांट दिया।

    ६. देवता…

    प्रत्येक वेद या शाखा का पठन, पाठन करने वाले, किसी विशेष देव की आराधना करते हैं वही उनका कुल देवता या उनके आराध्‍य देव अथवा कुल-देवी होती हैं। इसका ज्ञान अगली पीढ़ी को दिया जाता है। इसके अलावा दिशा, द्वार, शिखा, पाद आदि भेद भी होते हैं। उक्त अंतिम भेद से यह पता लगाया जा सकता है कि यह व्यक्ति किस कुल का है, कौन से वेद की कौनसी शाखा के कौन से सूत्र और कौन से सूत्र के कौन से देव के ज्ञान को संवरक्षित करने वाला है।

  • पुष्यमित्र शुंग

    पुष्यमित्र शुंग

    बात तब की है, जब संपूर्ण विश्व सीमा विस्तार के लिए जूझ रहा था, ठीक उसी समय अशोक की अहिंसक प्रवृति ने भारतवर्ष की सनातनी वीरता पर गहरा आघात किया। अशोक ने एक या दो वर्ष नहीं अपितु लगातार बीस वर्षों तक एक बौद्ध सम्राट के रूप में शासन किया। यही वह कारण है, जिसकी वजह से कीर्तिवान भारतवर्ष का शासनतंत्र कीर्तिहीन निर्बलता की भेंट चढ़ता चला गया। यहां हम यह नहीं कह रहे कि मौर्य वंश के शासकों का बौद्ध पंथ की ओर झुकाव गलत था। यह उनका निजी विषय था परंतु शासन कहीं से भी व्यक्तिगत नहीं होता, वहां राजा के सर पर राष्ट्र की जिम्मेदारी होती है। यही वह गलती थी, जब मौर्य शासकों ने सनातन धर्म को क्षीण करके किया था। सनातनी अमृत से पोषित भारतवर्ष नमक विशालकाय वट वृक्ष की जड़ों में बौद्ध पंथ की शिक्षाओं का विष डालना गलत था। भारतवर्ष तेजी से अहिंसा की चपेट में आता जा रहा था। भारतीय सनातन धर्म से विरक्ति की यह प्रक्रिया मौर्य वंश के अंतिम शासक बृहद्रथ तक चलती रही।

    बाणभट्ट द्वारा रचित हर्षचरित में भी बृहद्रथ प्रतिज्ञादुर्बल कहा गया है क्योंकि राजगद्दी पर बैठते समय एक राजा अपने साम्राज्य की सुरक्षा का जो वचन देता है उसे पूरा करने में बृहद्रथ पूर्णतः असफल रहा। मौर्य साम्राज्य निरंतर दुर्बल होता जा रहा था और बृहद्रथ के शासनकाल में यह दुर्बलता अपने चरम पर पहुँच चुकी थी। अधिकांश मगध साम्राज्य बौद्ध अनुयायी हो चुका था।

    उदाहरण…

    बात तब की है जब ग्रीक शासक भारतवर्ष पर आक्रमण करने की योजना बना रहा था। पुष्यमित्र शुंग, मौर्य शासक बृहद्रथ का सेनानायक था, वह इस बात से व्यथित था कि एक ओर शत्रु आक्रमण के लिए आगे बढ़ा चला आ रहा है और दूसरी ओर उसका सम्राट किसी भी प्रकार की कोई सक्रियता नहीं दिखा रहा। परंतु पुष्यमित्र को यह देखा नहीं गया, उसने अपने स्तर पर प्रयास प्रारम्भ किया। उसे अपने गुप्तचरों से शीघ्र ही यह सूचना मिली कि ग्रीक सैनिक बौद्ध भिक्षुओं के वेश में मठों में छुपे हुए हैं और कुछ बौद्ध धर्मगुरु भी उनका सहयोग कर रहे हैं। इस सूचना से व्यथित होकर पुष्यमित्र ने बौद्ध मठों की तलाशी लेने की अनुमति मांगी परंतु बृहद्रथ इसके लिए तैयार नहीं हुआ। फिर भी पुष्यमित्र ने अपने स्तर पर कार्यवाही की। इस कार्यवाही के दौरान पुष्यमित्र और उसके सैनिकों की मुठभेड़ मठों में छिपे शत्रुओं के सैनिकों से हुई जिसमें कई शत्रु सैनिक मृत्यु के घाट उतार दिए गए। बृहद्रथ, पुष्यमित्र की इस कार्यवाही से रुष्ट हो गया। कितना अफसोसजनक व असोभनीय समय था, जहां एक तरफ विदेशी शत्रु भारत विजय के लिए बढ़ रहा था और यहाँ भारतवर्ष का सम्राट अपनी सीमाओं की सुरक्षा में लगे सेनानायक से संघर्ष में लगा हुआ था। अंततः सम्राट और सेनानायक के संघर्ष में सम्राट मृत्यु को प्राप्त हुआ। सेना पुष्यमित्र के प्रति अनुरक्त थी इसलिए पुष्यमित्र शुंग को राजा घोषित कर दिया। राजा बनने के तुरंत बाद पुष्यमित्र शुंग ने अपंग साम्राज्य को पुनर्व्यवस्थित करने के लिए तमाम सुधार कार्य किए। उसने भारतवर्ष की सीमाओं की ओर बढ़ रहे ग्रीक आक्रांताओं को खदेड़ दिया और भारतवर्ष से ग्रीक सेना का पूरी तरह से अंत कर दिया।

    परिचय…

    पुराणों के अनुसार पुष्यमित्र शुंग ने ३६ वर्ष (१८५-१४९ ई. पू.) तक राज्य किया, जो पूरी तरह से चुनौतियों से भरा हुआ था। उस समय भारत पर कई विदेशी आक्रान्ताओं ने आक्रमण किये, जिनका सामना पुष्यमित्र शुंग को करना पड़ा। पुष्यमित्र के राजा बन जाने पर मगध साम्राज्य को बहुत बल मिला था। जो राज्य मगध की अधीनता त्याग चुके थे, पुष्यमित्र ने उन्हें फिर से अपने अधीन कर लिया था। अपने विजय अभियानों से उसने मगध की सीमा का बहुत विस्तार किया, जैसे…

    विदर्भ की विजय यात्रा…

    निर्बल मौर्य राजाओं के शासनकाल में जो अनेक प्रदेश साम्राज्य की अधीनता से स्वतंत्र हो गए थे, पुष्यमित्र ने उन्हें फिर से अपने अधीन कर लिया। उस समय ‘विदर्भ’ (बरार) का शासक यज्ञसेन था। सम्भवतः वह मौर्यों की ओर से विदर्भ के शासक-पद पर नियुक्त हुआ था, पर मगध साम्राज्य की निर्बलता से लाभ उठाकर इस समय स्वतंत्र हो गया था। पुष्यमित्र के आदेश से अग्निमित्र ने उस पर आक्रमण किया और परास्त कर विदर्भ को फिर से मगध साम्राज्य के अधीन ला दिया। कालिदास के प्रसिद्ध नाटक ‘मालविकाग्निमित्र’ में यज्ञसेन की चचेरी बहन मालविका और अग्निमित्र के स्नेह की कथा के साथ-साथ विदर्भ विजय का वृत्तान्त भी उल्लिखित है।

    कलिंग युद्ध…

    मौर्यवंश की निर्बलता से लाभ उठाकर कलिंग देश (उड़ीसा) भी स्वतंत्र हो गया था। उसका राजा खारवेल बड़ा प्रतापी और महत्वाकांक्षी था। उसने दूर-दूर तक आक्रमण कर कलिंग की शक्ति का विस्तार किया। खारवेल के हाथीगुम्फ़ा शिलालेख के द्वारा ज्ञात होता है कि उसने मगध पर भी आक्रमण किया था। मगध के जिस राजा पर आक्रमण कर खारवेल ने उसे परास्त किया, हाथीगुम्फ़ा शिलालेख में उसका जो नाम दिया गया है, अनेक विद्वानों ने उसे ‘बहसतिमित्र’ (बृहस्पतिमित्र) पढ़ा है। बृहस्पति और पुष्य पर्यायवाची शब्द हैं, अतः जयसवाल जी ने यह परिणाम निकाला कि खारवेल ने मगध पर आक्रमण करके पुष्यमित्र को ही परास्त किया था। पर अनेक इतिहासकार जयसवाल जी के इस विचार से सहमत नहीं हैं। उनका विचार है कि खारवेल ने मगध के जिस राजा पर आक्रमण किया था, वह मौर्य वंश का ही कोई राजा था। उसका नाम बहसतिमित्र था, यह भी संदिग्ध है। हाथीगुम्फ़ा शिलालेख में यह अंश अस्पष्ट है और इसे बहसतिमित्र पढ़ सकना भी निर्विवाद नहीं है। सम्भवतः खारवेल का मगध पर आक्रमण मौर्य शालिशुक या उसके किसी उत्तराधिकारी के शासनकाल में ही हुआ था।

    यवन आक्रमण…

    मौर्य सम्राटों की निर्बलता से लाभ उठाकर यवनों ने भारत पर आक्रमण शुरू कर दिए थे। पुष्यमित्र के शासनकाल में उन्होंने फिर भारत पर आक्रमण किया। यवनों का यह आक्रमण सम्भवतः डेमेट्रियस (दिमित्र) के नेतृत्व में हुआ था। प्रसिद्ध व्याकरणविद पतञ्जलि ने, जो पुष्यमित्र के समकालीन थे, इस आक्रमण का ‘अरुणत् यवनः साकेतम्, अरुणत् यवनः माध्यमिकाम्’ (यवन ने साकेत पर हमला किया, यवन ने माध्यमिका पर हमला किया) लिख कर निर्देश किया है। ‘अरुणत्’ प्रयोग अनद्यतन भूतकाल को सूचित करता है। यह प्रयोग उस दशा में होता है, जब कि किसी ऐसी भूतकालिक घटना का कथन करना हो, जो प्रयोक्ता के अपने जीवनकाल में घटी हो। अतः यह स्पष्ट है, कि पतञ्जलि और पुष्यमित्र के समय में भी भारत पर यवनों का आक्रमण हुआ था, और इस बार यवन सेनाएँ साकेत और माध्यमिका तक चली आई थीं।

    मालविकाग्निमित्र के अनुसार भी पुष्यमित्र के यवनों के साथ युद्ध हुए थे, और उसके पोते वसुमित्र ने सिन्धु नदी के तट पर यवनों को परास्त किया था। जिस सिन्धु नदी के तट पर शुंग सेना द्वारा यवनों की पराजय हुई थी, वह कौन-सी है, इस विषय पर भी इतिहासकारों में मतभेद है। श्री वी.ए. स्मिथ ने यह प्रतिपादन किया था, कि मालविकाग्निमित्र की सिन्धु नदी राजपूताने की सिन्ध या काली सिन्ध नदी है, और उसी के दक्षिण तट पर वसुमित्र का यवनों के साथ युद्ध हुआ था। पर अब बहुसंख्यक इतिहासकारों का यही विचार है, कि सिन्धु से पंजाब की प्रसिद्ध सिन्ध नदी का ही ग्रहण करना चाहिए। पर यह निर्विवाद है, कि यवनों को परास्त कर मगध साम्राज्य की शक्ति को क़ायम रखने में पुष्यमित्र शुंग को असाधारण सफलता मिली थी।

    अश्वमेध यज्ञ…

    अयोध्या से प्राप्त एक शिलालेख के अनुसार जिसमें पुष्यमित्र को ‘द्विरश्वमेधयाजी’ कहा गया है, जिसके अनुसार यह साबित होता है कि पुष्यमित्र ने दो बार अश्वमेध यज्ञ किए थे। बौद्ध और जैन धर्मों के उत्कर्ष के कारण अश्वमेध यज्ञ की परिपाटी भारत में पूर्णतः विलुप्त हो गई थी, जिसे पुष्यमित्र शुंग ने पुनरुज्जीवित कर स्थापित किया। सम्भवतः ऐसा जान पड़ता है कि पतञ्जलि मुनि इन यज्ञों में पुष्यमित्र के पुरोहित थे। इसलिए उन्होंने ‘महाभाष्य’ में लिखा है, ‘इह पुष्यमित्रं याजयामः’ (हम यहाँ पुष्यमित्र का यज्ञ करा रहे हैं)। अश्वमेध के लिए जो घोड़ा छोड़ा गया, उसकी रक्षा का कार्य वसुमित्र के सुपुर्द किया गया था। सिन्धु नदी के तट पर यवनों ने इस घोड़े को पकड़ लिया और वसुमित्र ने उन्हें परास्त कर इसे उनसे छुड़वाया। परंतु क्या कारण रहा कि पुष्यमित्र ने एक बार की जगह दो बार अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया, यह कहना कठिन है।

    वैदिक धर्म का पुनरुत्थान…

    शुंग सम्राट प्राचीन वैदिक धर्म के अनुयायी थे। ‘दिव्यावदान’ के अनुसार पुष्यमित्र बौद्धों से द्वेष करता था और उसने बहुत-से स्तूपों का ध्वंस करवाया था, और बहुत-से बौद्ध-श्रमणों की हत्या करायी थी। दिव्यावदान में तो यहाँ तक लिखा है, कि साकल (सियालकोट) में जाकर उसने घोषणा की थी कि कोई किसी श्रमण का सिर लाकर देगा, उसे मैं सौ दीनार पारितोषिक दूँगा। सम्भव है, बौद्ध ग्रंथ के इस कथन में अत्युक्ति हो, पर इसमें सन्देह नहीं कि पुष्यमित्र के समय में यज्ञप्रधान वैदिक धर्म का पुनरुत्थान शुरू हो गया था। उस द्वारा किए गए अश्वमेध यज्ञ ही इसके प्रमाण हैं।

    शुंग साम्राज्य की सीमा…

    विदर्भ को जीतकर और यवनों को परास्त कर पुष्यमित्र शुंग मगध साम्राज्य के विलुप्त गौरव का पुनरुत्थान करने में समर्थ हुआ था। उसके साम्राज्य की सीमा पश्चिम में सिन्धु नदी तक अवश्य थी। दिव्यावदान के अनुसार ‘साकल’ (सियालकोट) उसके साम्राज्य के अंतर्गत था। अयोध्या में प्राप्त उसके शिलालेख से इस बात में कोई सन्देह नहीं रह जाता कि मध्यदेश पर उसका शासन भली-भाँति स्थिर था। विदर्भ की विजय से उसके साम्राज्य की दक्षिणी सीमा नर्मदा नदी तक पहुँच गयी थी। इस प्रकार पुष्यमित्र का साम्राज्य हिमालय से नर्मदा नदी तक और सिन्धु से प्राच्य समुद्र तक विस्तृत था।

  • चंदबरदाई

    चंदबरदाई

    हिन्दी साहित्य के आदिकालीन कवि तथा पृथ्वीराज चौहान के परम् मित्र, जिन्होंने पृथ्वीराज रासो नामक प्रसिद्ध हिन्दी ग्रन्थ की रचना की थी, आज हम उस महान साहित्य साधक, धर्म परायण चंदबरदाई के बारे में विस्तार पूर्वक जानेंगे…

    जीवन…

    चंदबरदाई के जीवनी के बारे में अगर जानना हो तो भारत के अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान तृतीय के बारे में जानना बेहद जरूरी है, क्योंकि इनका जीवन पृथ्वीराज के साथ ऐसा मिला हुआ है कि इन्हें अलग नहीं किया जा सकता। चाहे युद्ध हो, आखेट हो, सभा हो अथवा यात्रा, वे सदा महाराज के साथ रहते थे। चंदबरदाई से कुछ भी छुपा हुआ नहीं था, जहाँ जो बातें होती थीं, वे सब में सम्मिलित रहते थे। ऐसा जान पड़ता था कि वे दोनों दो जिस्म एक जान हैं।

    गोरी वध…

    यहाँ तक कि जब मुहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज चौहान को बंदी बना कर गजनी ले गया तो वह स्वयं को वश में नहीं कर सके और उनके साथ गजनी चले गये। ऐसा माना जाता है कि कैद में बंद पृथ्वीराज को जब अन्धा कर दिया गया तो उन्हें इस अवस्था में देख कर इनका हृदय द्रवित हो गया, तब चंदबरदाई ने गोरी के वध की योजना बनायी। उक्त योजना के अंतर्गत उन्होंने सर्वप्रथम गोरी का हृदय जीता और फिर गोरी को यह बताया कि पृथ्वीराज शब्दभेदी बाण चला सकते हैं। इससे प्रभावित होकर मोहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज की इस कला को देखने की इच्छा प्रकट की। प्रदर्शन के दिन तय हुआ। चंदबरदाई गोरी के साथ ही मंच पर बैठे। अंधे पृथ्वीराज को मैदान में लाया गया एवं उनसे अपनी कला का प्रदर्शन करने को कहा गया। जैसा कि पुर्वनियोजित था, पृथ्वीराज के द्वारा जैसे ही एक घण्टे के ऊपर बाण चलाया गया गोरी के मुँह से अकस्मात ही “वाह! वाह!!” शब्द निकल पड़ा बस फिर क्या था चंदबरदायी ने तत्काल एक दोहे में पृथ्वीराज को यह बता दिया कि गोरी कहाँ पर एवं कितनी ऊँचाई पर बैठा हुआ है। वह दोहा इस प्रकार था…

    चार बाँस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमान।
    ता ऊपर सुल्तान है, मत चूके चौहान॥

    इस प्रकार चंदबरदाई की सहायता से पृथ्वीराज के द्वारा गोरी का वध कर दिया गया। गोरी वध के उपरांत दोनों मित्र दुश्मनों के हांथ आने से पूर्व ही स्वर्ग गमन की ओर प्रस्थान कर गए।

    परिचय…

    ब्रजभाषा हिन्दी के प्रथम महाकवि चंदबरदाई का जन्म संवत १२०५ तदनुसार ११४८ ई० में लाहौर में हुआ था। कालांतर में वे अजमेर-दिल्ली के सुविख्यात हिंदू नरेश पृथ्वीराज का सम्माननीय सखा, राजकवि और सहयोगी हो गए। इससे उनका अधिकांश जीवन महाराजा पृथ्वीराज चौहान के साथ दिल्ली में बीता। वे राजधानी और युद्ध क्षेत्र सब जगह पृथ्वीराज के साथ ही रहते थे। चंदवरदाई का प्रसिद्ध ग्रंथ “पृथ्वीराजरासो” है। इसकी भाषा को भाषा-शास्त्रियों ने पिंगल कहा है, जो राजस्थान में ब्रजभाषा का पर्याय है। इसलिए चंदवरदाई को ब्रजभाषा हिन्दी का प्रथम महाकवि माना जाता है। ‘रासो’ की रचना महाराज पृथ्वीराज के युद्ध-वर्णन के लिए हुई है। इसमें उनके वीरतापूर्ण युद्धों और प्रेम-प्रसंगों का कथन है। अत: इसमें वीर और श्रृंगार दो ही रस है। चंदबरदाई ने इस ग्रंथ की रचना प्रत्यक्षदर्शी की भाँति की है लेकिन शिलालेख प्रमाण से ये स्पष्ट होता है कि इस रचना को पूर्ण करने वाला कोई अज्ञात कवि है जो चंद और पृथ्वीराज के अन्तिम क्षण का वर्णन कर इस रचना को पूर्ण करता है।

    हिन्दी के पहले कवि…

    चंदबरदाई को हिंदी का पहला कवि और उनकी रचना पृथ्वीराज रासो को हिंदी की पहली रचना होने का सम्मान प्राप्त है। पृथ्वीराज रासो हिंदी का सबसे बड़ा काव्य-ग्रंथ है। इसमें १०,००० से अधिक छंद हैं और तत्कालीन प्रचलित ६ भाषाओं का प्रयोग किया गया है। इस ग्रंथ में उत्तर भारतीय क्षत्रिय समाज व उनकी परंपराओं के विषय में विस्तृत जानकारी मिलती है, इस कारण ऐतिहासिक दृष्टि से भी इसका बहुत महत्व है।

    काल…

    पृथ्वीराज ने ११६५ से ११९२ तक अजमेर व दिल्ली पर राज किया। और चंदबरदाई पृथ्वीराज के मित्र तथा राजकवि थे। अतः इससे प्रमाणित होता है कि यही चंदबरदाई का रचनाकाल भी था।

  • काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद का इतिहास

    काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद का इतिहास

    काशी भोले बाबा की नगरी है, इसे किसी साक्ष्य की कोई आवश्यकता नहीं है, फिर भी साक्ष्य की बात की जाए तो इसके लिए काशी में शिवजी के प्राचीन मंदिर की खोज के लिए सर्वे चल रहा है, क्योंकि यह मान्यता है कि प्राचीन काल में यहां एक बहुत ही विशालकाय मंदिर था। इसे मध्यकाल में तोड़कर एक मस्जिद बना दिया गया। आईए हम आज काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद के प्राचीन से लेकर आज तक के इतिहास को जानते हैं…

    १. पुराणों के अनुसार आदिकाल से ही काशी में विशालकाय मंदिर में आदिलिंग के रूप में अविमुक्तेश्वर शिवलिंग स्थापित है।

    २. ईसा पूर्व ११वीं सदी में राजा हरीशचन्द्र ने विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया तथा उसे सम्राट विक्रमादित्य ने भी अपने शासनकाल में एक बार पुन: जीर्णोद्धार करवाया।

    ३. वर्ष ११९४ में काशी विश्वनाथ के भव्य मंदिर को मुहम्मद गौरी ने लूटने के बाद तुड़वा दिया था।

    ४. वर्ष १४४७ में मंदिर को काशी के स्थानीय लोगों ने मिलकर पुनः नवनिर्माण कराया परंतु जौनपुर के शर्की सुल्तान महमूद शाह द्वारा इसे पुनः तोड़ दिया गया और उसकी जगह मस्जिद बना दी गई। हालांकि हर बार की तरह इसपर भी इतिहासकारों में मतभेद है।

    ५. वर्ष १५८५ में राजा टोडरमल की सहायता से पंडित नारायण भट्ट द्वारा इस स्थान पर फिर से एक भव्य मंदिर का निर्माण किया गया।

    ६. वर्ष १६३२ में मुगल शासक शाहजहां के आदेश पर मंदिर को तोड़ने के लिए सेना भेज दी गई, परंतु सेना को हिन्दुओं के प्रबल प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, जिसकी वजह से सेना विश्वनाथ मंदिर के केंद्रीय मंदिर को तो तोड़ नहीं सकी, परंतु काशी के ६३ अन्य मंदिरों को तोड़ दिया।

    ७. १८ अप्रैल, १६६९ को एक बार पुनः एक अन्य मुगल बादशाह औरंगजेब ने काशी विश्वनाथ मंदिर को ध्वस्त करने का आदेश दिया। यह आदेश एशियाटिक लाइब्रेरी, कोलकाता में आज भी सुरक्षित है। एलपी शर्मा की पुस्तक ‘मध्यकालीन भारत’ में इस ध्वंस का वर्णन है। साकी मुस्तइद खां द्वारा लिखित ‘मासीदे आलमगिरी’ में भी इसके संकेत मिलते हैं।

    ८. २ सितंबर, १६६९ को मंदिर को तोड़ने के बाद औरंगजेब को मंदिर तोड़ने के कार्य को पूरा होने की सूचना दी गई और तब जाकर ज्ञानवापी परिसर में मंदिर के स्थान पर मस्जिद बनाई गई।

    ९. वर्ष १७३५ में इंदौर की महारानी देवी अहिल्याबाई होलकर ने ज्ञानवापी परिसर के निकट ही काशी विश्वनाथ मंदिर की स्थापना करवाई।

    १०. वर्ष १८०९ में ज्ञानवापी मस्जिद का विवाद पहली बार गरमाया, जब हिन्दू समुदाय के लोगों द्वारा ज्ञानवापी मस्जिद को उन्हें सौंपने की मांग की।

    ११. ३० दिसंबर, १८१० को बनारस के तत्कालीन जिला दंडाधिकारी मिस्टर वाटसन ने ‘वाइस प्रेसीडेंट इन काउंसिल’ को एक पत्र लिखकर ज्ञानवापी परिसर हिन्दुओं को हमेशा के लिए सौंपने को कहा था, लेकिन यह कभी संभव नहीं हो पाया।

    १२. वर्ष १८२९-३० में ग्वालियर की महारानी बैजाबाई ने इसी मंदिर में ज्ञानवापी का मंडप बनवाया और महाराजा नेपाल ने वहां नंदी महाराज की विशाल प्रतिमा स्थापित करवाई।

    १३. वर्ष १८८३-८४ को राजस्व दस्तावेजों में ज्ञानवापी मस्जिद का पहली बार जिक्र तब आया जब इसे जामा मस्जिद ज्ञानवापी के तौर पर दर्ज किया गया।

    १४. वर्ष १९३६ में दायर एक मुकदमे पर वर्ष १९३७ के फैसले में ज्ञानवापी को मस्जिद के तौर पर स्वीकार कर लिया गया।

    १५. वर्ष १९८४ में विश्व हिन्दू परिषद् ने कुछ राष्ट्रवादी संगठनों के साथ मिलकर ज्ञानवापी मस्जिद के स्थान पर मंदिर बनाने के उद्देश्य से राष्ट्रव्यापी अभियान चलाया।

    १६. वर्ष १९९१ में हिन्दू पक्ष की ओर से हरिहर पांडेय, सोमनाथ व्यास और प्रोफेसर रामरंग शर्मा ने मस्जिद और संपूर्ण परिसर में सर्वेक्षण और उपासना के लिए अदालत में एक याचिका दायर की। इसके बाद संसद ने उपासना स्थल कानून बनाया। तब आदेश दिया कि १५ अगस्त, १९४७ से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को किसी दूसरे में बदला नहीं जा सकता।

    १७. वर्ष १९९३ में विवाद के चलते इलाहाबाद हाईकोर्ट ने स्टे लगाकर यथास्थिति कायम रखने का आदेश दिया।

    १८. वर्ष १९९८ में कोर्ट ने मस्जिद के सर्वे की अनुमति दी, जिसे मस्जिद प्रबंधन समिति ने इलाहबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी। इसके बाद कोर्ट द्वारा सर्वे की अनुमति रद्द कर दी गई।

    १९. वर्ष २०१८ को सुप्रीम कोर्ट ने आदेश की वैधता छह माह के लिए बताई।

    २०. वर्ष २०१९ को वाराणसी कोर्ट में फिर से इस मामले में सुनवाई शुरू की गई।

    २१. वर्ष २०२१ में कुछ महिलाओं द्वारा कोर्ट में याचिका दायर की गई, जिसमें मस्जिद परिसर में स्थित श्रृंगार गौरी मंदिर में पूजा करने की आज्ञा मांगी।

    २२. १२ मई, २०२२ को वाराणसी कोर्ट की एक बेंच ने ज्ञानवापी मस्जिद में वीडियोग्राफ़ी और सर्वे करने का आदेश दिया था।

    २२. कोर्ट के आदेश के अनुसार लगातार तीन दिनों तक यानी १४, १५ और १६ मई, २०२२ तक चले ज्ञानवापी मस्जिद के सर्वे का काम पूरा हुआ।

    अपनी बात…

    बीबीसी के हवाले से, सर्वे समाप्त होते ही हिंदू पक्ष के एक वकील ने बाहर आकर दावा किया कि ज्ञानवापी मस्जिद में एक जगह १२ फ़ुट का शिवलिंग मिला है और इसके अलावा तालाब में कई और अहम साक्ष्य भी मिले हैं। इसके बाद शिवलिंग मिलने के दावे पर वाराणसी के ज़िलाधिकारी कौशल राज शर्मा ने कहा, “अंदर क्या दिखा इसकी कोई जानकारी किसी भी पक्ष द्वारा बाहर नहीं दी गई है। तो किसी भी उन्माद के आधार पर नारे लगने का दावा झूठ है।” उन्होंने आगे कहा, “अंदर मौजूद सभी पक्षों को ये हिदायत दी गई थी कि १७ मई को कोर्ट में रिपोर्ट सौंपी जाएगी और तब तक किसी को कोई जानकारी सार्वजनिक करने की इजाज़त नहीं है। लेकिन किसी ने अपनी निजी इच्छा से कुछ बताने की कोशिश की है तो इसकी प्रामाणिकता कोई साबित नहीं कर सकता”

    इसके बाद वकील हरिशंकर जैन ने स्थानीय अदालत में अर्ज़ी दायर करते हुए यह दावा किया कि कमीशन की कार्रवाई के दौरान ‘शिवलिंग’ मस्जिद कॉम्प्लेक्स के अंदर पाया गया है। अदालत को बताया गया कि यह बहुत महत्वपूर्ण साक्ष्य है, इसलिए सीआरपीएफ़ कमांडेंट को आदेश दिया जाए कि वो इसे सील कर दें। थोड़े समय बाद ही स्थानीय अदालत ने उस स्थान को तत्काल सील करने का आदेश दे दिया।

    काशी विश्वनाथ मंदिर कॉरीडोर

    ज्ञानवापी

  • बौद्ध धर्म पर स्वामी विवेकानन्द के विचार…

    बौद्ध धर्म पर स्वामी विवेकानन्द के विचार…

    स्वामी विवेकानन्द ने एक बार सनातन धर्म बनाम बौद्ध धर्म के अपने व्याख्यान में कहा था, “जैसा कि आप पहले से ही जानते हैं, मैं बौद्ध नहीं हूँ। चीन, जापान, सीलोन उस महान शिक्षक के उपदेशों का पालन करते हैं, किन्तु भारत उसे पृथ्वी पर भगवान के अवतार के रूप में पूजता है।”

    उन्होंने आगे कहा, “मैं वास्तव में बौद्ध धर्म का आलोचक हूँ, लेकिन मैं नहीं चाहूंगा कि आप केवल इस पर ध्यान केंद्रित करें। सामान्यतः मैं उस व्यक्ति की आलोचना करने से दूर रहूँगा जिसे मैं भगवान के अवतार के रूप में पूजता हूँ।”

    स्वामी जी के अनुसार बुद्ध को उनके अपने ही शिष्यों एवम मानने वालों ने गहराई से नहीं समझा था…

    स्वामी जी के अनुसार, “हिंदू धर्म (हिंदू धर्म से मेरा तात्पर्य वैदिक धर्म से है) और जिसे हम आज बौद्ध धर्म कहते हैं, वे दोनों आपस में उससे भी अधिक निकट हैं जितनी निकटता यहूदी धर्म और ईसाई धर्म के बीच है। ईसा मसीह एक यहूदी थे और शाक्य मुनि हिंदू थे। यहूदियों ने यीशु मसीह को अस्वीकार कर दिया, इसके अलावा, उन्होंने उन्हें क्रूस पर चढ़ाया, जबकि हिंदुओं ने शाक्य मुनि को भगवान के रूप में स्वीकार किया और उन्हें भगवान के रूप में पूजा।”

    कारण…

    स्वामी जी के अनुसार, “हम हिंदू, यह दिखाना चाहेंगे कि आधुनिक बौद्ध धर्म के विपरीत, भगवान बुद्ध का शिक्षण, यह है कि शाक्य मुनि ने मौलिक रूप से कुछ भी नया नहीं किया। मसीह की तरह, वह पूरक था लेकिन नष्ट नहीं हुआ। लेकिन यहूदी लोग मसीह को नहीं समझते थे, तो बुद्ध के अनुयायी उनके शिक्षण में जो मुख्य बात थी, उसको महसूस नहीं कर पा रहे थे। जिस तरह यहूदी यह नहीं समझ पाए कि ईसा मसीह पुराने नियम को पूरा करने के लिए उत्पन्न हुए हैं, इसी प्रकार बौद्ध के अनुयायियों ने हिंदू धर्म के विकास में बुद्ध द्वारा उठाए गए अंतिम कदम को नहीं समझा। और मैं फिर दोहराता हूं – शाक्य मुनि विनाश करने नहीं आए थे, बल्कि पूरा करने के लिए आए थे।”

    हिंदू समाज का तार्किक विकास…

    स्वामी जी ने हिंदू समाज के उत्थान के लिए एक रास्ता सुझाया है, जिस पर बौद्ध धर्म को चलाना भी अनिवार्य बताया है, “हिन्दू धर्म बौद्ध धर्म के बिना नहीं रह सकता, ठीक वैसे ही जैसे हिन्दू धर्म के बिना बौद्ध धर्म। हमें यह समझने की जरूरत है कि इस विभाजन ने हमें क्या दिखाया। बौद्ध धर्म ब्राह्मण धर्म के ज्ञान और दर्शन के बिना खड़ा नहीं हो सकता, जैसे ब्राह्मण धर्म बुद्ध के महान हृदय के बिना नहीं खड़ा नहीं हो सकता। बौद्धों और वैदिक धर्म के अनुयायियों के बीच यह विभाजन भारत के पतन का कारण है। यही कारण है कि भारत में तीस करोड़ भिखारियों का निवास है और पिछले हजार वर्षों से भारत को विजेताओं द्वारा गुलाम बनाये जाने का कारण भी यही है। आइए हम ब्राह्मणों की अद्भुत बुद्धि को हृदय, महान आत्मा और महान शिक्षक की जबरदस्त मानव-प्रेम शक्ति के साथ जोड़ दें।”

  • परमाणु अप्रसार संधि यानी नॉन प्रॉलिफरेशन ट्रीटी (एनपीटी)

    परमाणु अप्रसार संधि यानी नॉन प्रॉलिफरेशन ट्रीटी (एनपीटी)

    परमाणु अप्रसार संधि यानी नॉन प्रॉलिफरेशन ट्रीटी को एनपीटी के नाम से जाना जाता है। इसका उद्देश्य विश्व भर में परमाणु हथियारों के प्रसार को रोकने के साथ-साथ परमाणु परीक्षण पर अंकुश लगाना है।

    परिचय…

    एनपीटी पर १ जुलाई, १९६८ से हस्ताक्षर होना शुरू हुआ। परंतु अभी तक इस संधि पर हस्ताक्षर करने वाले देशों की संख्या मात्र १९० है। जिसमें पांच के पास यानी अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और चीन के पास नाभिकीय हथियार हैं। इस संधि में सिर्फ पांच संप्रभुता संपन्न देश यानी भारत, इजरायल, पाकिस्तान, द. सूडान और उत्तरी कोरिया इसके सदस्य नहीं हैं।

    दोहरी मानसिकता…

    एनपीटी के तहत भारत को परमाणु संपन्न देश की मान्यता प्रदान नहीं की गई है। जो इसके दोहरे मापदंड को प्रदर्शित करती है। इस संधि का प्रस्ताव आयरलैंड ने रखा था और सबसे पहले हस्ताक्षर फिनलैंड ने किया। इस संधि के तहत परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र उसे ही माना गया है जिसने १ जनवरी, १९६७ से पूर्व परमाणु हथियारों का निर्माण और परीक्षण कर लिया हो। अब देखा जाए तो भारत ने पहला परमाणु परीक्षण वर्ष १९७४ में किया था, अतः इसे ही आधार बनाकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत को परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र का दर्जा प्राप्त नहीं है। दूसरी तरफ शुरुआती समय में उत्तरी कोरिया ने इस सन्धि पर हस्ताक्षर किया था, परंतु उसने इसका उलंघन किया और फिर इससे बाहर आ गया।

    सन्धि के मुख्य स्तम्भ…

    १. परमाणु अप्रसार (परमाणु अस्त्र संपन्न राज्य परमाणु अस्त्रविहीन राज्यों को इसके निर्माण की तकनीक नहीं देंगे।
    २. निरस्त्रीकरण
    ३. परमाणु उर्जा का शान्तिपूर्ण उपयोग

    परमाणु अस्त्रों से युक्त देश…

    दुनिया में आठ देश हैं जो परमाणु हथियार संपन्न हैं। इन में से पांच देश अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, और चीन परमाणु अप्रसार संधि के अंतर्गत परमाणु-हथियार राष्ट्र जाने जाते हैं। परमाणु अप्रसार संधि मे शामील न होने वाले तीन देश यानी भारत, उत्तर कोरिया और पाकिस्तान ने सफलतापूर्वक परमाणु परीक्षण किए हैं, इसमें उत्तरी कोरिया पहले परमाणु अप्रसार संधि मे शामिल था लेकिन २००३ में वाह इस संधि से अलग हट गया। इसके अलावा इज़राइल के पास भी परमाणु हथियार होने की व्यापक संभावना जताई जाती है, हालांकि वह इसके बारे में जानबूझकर अस्पष्टता की नीति बनाए रखता है और वह स्वीकार नहीं करता है।

    देशों के अनुमानित कुल परमाणु हथियार भंडार…

    रुस (७,०००), अमेरिका (६८००), फ्रांस (३००), ब्रिटेन (२१५), चीन (२००), पाकिस्तान (१६०), भारत (१२०), इज़राइल (८०), उत्तर कोरिया (४०)

  • सीटीबीटी यानी कॉम्प्रिहेंसिव टेस्‍ट बैन ट्रीटी (व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि)

    सीटीबीटी यानी कॉम्प्रिहेंसिव टेस्‍ट बैन ट्रीटी (व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि)

    सीटीबीटी पर बात करने से पूर्व हम वर्ष १९५४ में अमेरिका द्वारा किए गए १५ मेगाटन के हाइड्रोजन बम के परीक्षण पर बात करते हैं। इस परीक्षण का नतीजा इतना घातक था कि इस विस्‍फोट से निकले रेडियोऐक्टिव पदार्थों ने यहां के लोगों को बुरा हाल कर दिया। उस वक्‍त पूरे विश्व के अधिकार प्रभावशाली देशों में सिर्फ भारत के तत्‍कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने ही भारतीय संसद में अमेरिका के इस परीक्षण की कड़ी निंदा की। उन्‍होंने कहा कि इस प्रकार के परमाणु परीक्षणों पर तब तक रोक लगा देनी चाहिए, जब तक संयुक्‍त राष्‍ट्र में इस मुद्दे पर कोई संधि पेश नहीं की जाती।

    क्या है सीटीबीटी ?…

    सीटीबीटी यानी कॉम्प्रिहेंसिव टेस्‍ट बैन ट्रीटी (व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि)। दुनिया भर के देशों के बीच एक ऐसा समझौता, जिसके जरिए विभिन्‍न राष्‍ट्रों को परमाणु परीक्षण करने से रोका जा सके।

    भारत का रुख…

    २० जून, १९९६ को भारत ने जिनेवा सम्मेलन में सीटीबीटी पर हस्ताक्षर करने से साफ इनकार कर दिया था। इतना ही नहीं भारत के साथ साथ पाकिस्तान समेत कई अन्य देशों ने भी अब तक इस पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं है।

    हस्ताक्षर नहीं करने की वजह…

    जैसा कि हमने ऊपर ही कहा है कि १९५४ में अमेरिका के किए गए १५ मेगाटन के हाइड्रोजन बम के परीक्षण के नुकसान को देखते हुए भारत के तात्कालिक प्रधानमंत्री श्री नेहरू द्वार कड़ी निंदा के नौ वर्ष बाद यानी वर्ष १९६३ में पार्शियल न्‍यूक्लियर टेस्‍ट बैन ट्रीटी (पीटीबीटी) पेश की गई। मगर आशा के अनुरूप परिणाम नहीं आने पर भारत ने वर्ष १९६८ में नॉन प्रॉलिफरेशन ट्रीटी का बहिष्‍कार कर दिया। भारत का यह मानना है कि इस संधि के बिंदु परमाणु संपन्‍नता को लेकर देशों के बीच भेदभाव करने वाले हैं। यही वजह है कि भारत ने अभी तक सीटीबीटी पर हस्‍ताक्षर नहीं किया है।

  • पोखरण

    पोखरण

    पोखरण या पोकरण जैसलमेर से ११० किलोमीटर दूर जैसलमेर-जोधपुर मार्ग पर एक प्रसिद्ध एवम प्रमुख कस्बा है। पोखरण में लाल पत्थरों से निर्मित एक सुन्दर दुर्ग है, जिसका निर्माण सन १५५० में राव मालदेव (राव जोधा के वंशज राव गांगा के पुत्र व राव चन्द्रसेन के पिता) ने कराया था। इस स्थल की आधुनिक प्रसिद्धी बाबा रामदेव के गुरूकुल के रूप में है। इतना ही नहीं, पोखरण के पास आशापूर्णा मंदिर, खींवज माता का मंदिर, कैलाश टेकरी दर्शनीय स्थल भी हैं। जानकारी के लिए यह भी बताते चलें कि पोखरण से तीन किलोमीटर दूर स्थित सातलमेर को पोखरण की प्राचीन राजधानी होने का गौरव प्राप्त है। और अंत में; पोखरण नाम विश्व पटल पर सुर्खियां तब बटोरा जब भारत का पहला भूमिगत परमाणु परीक्षण १८ मई, १९७४ को किया गया। पुनः ११ और १३ मई १९९८ को यह स्थान इन्हीं परीक्षणों के लिए चर्चित रहा।

  • भारत की परमाणु बम परियोजना

    भारत की परमाणु बम परियोजना

    भारत की परमाणु बम परियोजना

    भारत में परमाणु बम बनाने के लिए बुनियादी सुविधाओं और संबंधित तकनीकों पर शोध के निर्माण की दिशा में प्रयास द्वितीय विश्व युद्ध के भयानक त्रासदी को देखते हुए शुरू किया गया। भारत में परमाणु कार्यक्रम वर्ष १९४४ में आरंभ हुआ माना जाता है जब परमाणु भौतिकविद् होमी भाभा ने परमाणु ऊर्जा के दोहन के प्रति भारतीय कांग्रेस को राजी करना शुरू किया। और उसके एक साल बाद ही उन्होंने टाटा मूलभूत अनुसंधान संस्थान (टीआईएफआर) की स्थापना की।

    वर्ष १९५० के दशक में प्रारंभिक अध्ययन…

    बीएआरसी में प्लूटोनियम और अन्य बम घटकों के उत्पादन व विकसित की योजना थी। वर्ष १९६२ में, भारत और चीन विवादित उत्तरी मोर्चे पर संघर्ष में लग गए और वर्ष १९६४ के चीनी परमाणु परीक्षण से भारत ने अपने आप को कमतर महसूस किया। परंतु जब विक्रम साराभाई इसके प्रमुख बने और वर्ष १९६५ में प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने इसमें कम रुचि दिखाई तो परमाणु योजना का सैन्यकरण धीमा हो गया।

    इंदिरा गांधी और प्रथम परमाणु परीक्षण…

    जब इंदिरा गांधी वर्ष १९६६ में प्रधानमंत्री बनीं व भौतिक विज्ञानी राजा रमन्ना के प्रयासों में शामिल होने पर परमाणु कार्यक्रम समेकित (कंसोलिडेट) किया गया। चीन के द्वारा एक और परमाणु परीक्षण करने के कारण, मजबूरन वर्ष १९६७ में परमाणु हथियारों के निर्माण की ओर भारत को भी इस और अग्रसर होने का निर्णय लेना पड़ा। जिसका परिणाम वर्ष १९७४ में भारत का अपना पहला परमाणु परीक्षण ‘मुस्कुराते बुद्ध’ सफल आयोजन किया गया।

    मुस्कुराते बुद्ध के बाद…

    दुनिया की प्रमुख परमाणु शक्तियों ने भारत और पाकिस्तान, जो भारत की चुनौती को पूरा करने के लिए होड़ लगा रहा था, पर अनेक तकनीकी प्रतिबन्ध लगाये। परमाणु कार्यक्रम ने वर्षों तक साख और स्वदेशी संसाधनों की कमी तथा आयातित प्रौद्योगिकी और तकनीकी सहायता पर निर्भर रहने के कारण संघर्ष किया। आईएईए में, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने घोषणा की कि भारत के परमाणु कार्यक्रम सैन्यकरण के लिए नहीं है हालाँकि हाइड्रोजन बम के डिजाइन पर प्रारंभिक काम के लिए उनके द्वारा अनुमति दे दी गई थी।

    वर्ष १९७५ में देश में आपातकाल लागू होने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार के पतन के परिणामस्वरूप, परमाणु कार्यक्रम राजनीतिक नेतृत्व और बुनियादी प्रबंधन के आभाव के साथ छोड़ दिया गया था। हाइड्रोजन बम के डिजाईन का काम एम. श्रीनिवासन, एक यांत्रिक इंजीनियर के तहत जारी रखा गया पर प्रगति धीमी थी। परमाणु कार्यक्रम को प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई जो शांति की वकालत करने के लिए प्रसिद्ध थे की ओर से कम ध्यान दिया गया। वर्ष १९७८ में प्रधानमंत्री देसाई ने भौतिक विज्ञानी रमन्ना का तबादला भारतीय रक्षा मंत्रालय में किया और उनकी सरकार में परमाणु कार्यक्रम ने वांछनीय दर से बढ़ना जारी रखा।

    परेशान करने वाली खबर…

    भारत के परमाणु कार्यक्रम के विपरीत, पाकिस्तान का परमाणु बम कार्यक्रम अमेरिका के मैनहट्टन परियोजना के लिए समान था, यह कार्यक्रम नागरिक वैज्ञानिकों के साथ सैन्य निरीक्षण के तहत था। पाकिस्तानी परमाणु बम कार्यक्रम अच्छी तरह से वित्त पोषित था; भारत को एहसास हुआ कि पाकिस्तान संभवतः दो साल में अपनी परियोजना में सफल हो जायेगा।

    १९८० का आम चुनाव…

    इंदिरा गांधी की वापसी तो चिह्नित किया और परमाणु कार्यक्रम की गतिशीलता में तेजी आ गई। सरकार की ओर अन्य कोई परमाणु परीक्षण करने से इनकार किया जाता रहा पर जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देखा कि पाकिस्तान ने अपने परमाणु कार्य को जारी रखा है तो परमाणु कार्यक्रम को आगे बढ़ाना जारी रखा गया। हाइड्रोजन बम की दिशा में शुरुआती कार्य के साथ ही मिसाइल कार्यक्रम का भी शुभारंभ दिवंगत राष्ट्रपति अब्दुल कलाम के अंतर्गत शुरू हुआ, जो तब एक एयरोस्पेस इंजीनियर थे।

    अटल बिहारी वाजपेई और पोखरण २…

    भारत ने अपना पहला सफल परमाणु परीक्षण १८ मई, १९७४ को किया था। परंतु उस समय भारत सरकार ने यह घोषणा की थी कि भारत का परमाणु कार्यक्रम शांतिपूर्ण कार्यो के लिये होगा और यह परीक्षण भारत को उर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने के लिये किया गया है। बाद में ११ और १३ मई, १९९८ को पाँच और भूमिगत परमाणु परीक्षण किये और भारत ने स्वयं को परमाणु शक्ति संपन्न देश घोषित कर दिया।

    प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी २० मई को बुद्ध-स्थल पहुंचे। वही प्रधानमंत्री ने देश को एक नया नारा दिया ‘जय जवान-जय किसान-जय विज्ञान’। सभी देशवासी प्रधान मंत्री के साथ-साथ गर्व से भर उठे। इन परीक्षणों का असर परमाणु संपन्न देशों पर बहूत अधिक हूआ। अमरीका, रूस, फ्रांस, जापान और चीन आदि देशों ने भारत को आर्थिक सहायता न देने की धमकी भी दी। परंतु भारत इन धमकियों के सामने नहीं झुका।


    पोखरण-१ (परमाणु परीक्षण)

    पोखरण २ (परमाणु परीक्षण)