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छोटा सा नन्हा सा

वो पोस्टकार्ड

ना जाने कहां खो गया

या फिर बच्चों की भांति

बड़ा हो कहीं निकल गया

बड़ी नीली चिट्ठी की तरह ही

वह भी कुशलता की 

कामना करता था,

चरणों को स्पर्श भी करता था।

वह भी बहुत बातें करता था,

मगर थोड़े से ही शब्दों में

जैसे उसके पास शब्द नहीं होते

जैसे जिंदगी के अनुभव नहीं होते

मगर वह कभी कभी

माई की तबियत का हाल बताता

कभी वह बापू के फसलों का

आनंद मनाता

कभी वह बचपन की

सखी की याद दिलाता

कभी पत्नी की 

विवशताओं को दर्शाता

कितना कुछ लिखा होता था

इस छोटे से कार्ड में

जिसे प्रेमिका कभी सीने से लगाए

छुप छुप आंसू बहाया करती थी

वह कभी मुन्ने के जन्म की

खुशियां लाता, तो

कभी दादा के गुजरने का

पहाड़ गिराता।

पोस्टकार्ड हर घर में

बच्चे की तरह ही तो था

मां के आंखों का तारा तो

बापू के बुढ़ापे का सहारा था।

वह जब आता तो

मुनिया चहकती जैसे

उसका भैया आ गया।

मगर आज हर हांथ में

मोबाइल है, फिर भी 

ना तो भैया को

उसकी याद आती है

ना उसकी कोई खबर

उसे चहकाती है।

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