काशी में प्राचीन काल से लेकर अब तक यानी कुछ समय के अंतराल पर महान् विभूतियों का प्रादुर्भाव अथवा वास होता रहा हैं। इनमें से कुछ के नाम हम नीचे दे रहे हैं…
भगवान धन्वन्तरि आयुर्वेद जगत् के प्रणेता तथा वैद्यक शास्त्र के देवता हैं। पौराणिक दृष्टि से ‘धनतेरस’ को स्वास्थ्य के देवता धन्वन्तरि दिवस माना जाता है। धन्वन्तरि आरोग्य, सेहत, आयु और तेज के आराध्य देवता हैं। धनतेरस के दिन उनसे प्रार्थना की जाती है कि वे समस्त जगत् को निरोग कर मानव समाज को दीर्घायु प्रदान करें। जब देवताओं और असुरों ने ‘समुद्र मंथन’ किया तो अनेक मूल्यवान वस्तुओं की प्राप्ति के बाद अंत में भगवान धन्वन्तरि हाथ में अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे।
महर्षि अगस्त्य वैदिक ॠषि हैं, तथा वे महर्षि वशिष्ठ के बड़े भाई भी हैं। उनका जन्म श्रावण शुक्ल पंचमी को महादेव की नगरी काशी में हुआ था। वर्तमान में यह स्थान अगस्त्यकुंड के नाम से प्रसिद्ध है। अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा विदर्भ देश की राजकुमारी थीं। अगस्त्य को सप्तर्षियों में से एक माना जाता है। देवताओं के अनुरोध पर उन्होंने काशी छोड़कर दक्षिण की यात्रा की और बाद में वहीं बस गये।
भगवान शंकर, ईसा की सातवी शताब्दी में आदि शंकराचार्य के रूप में अवतरित हुए थे। आदि शंकराचार्य जिन्हें ‘शंकर भगवद्पादाचार्य’ के नाम से भी जाना जाता है, वेदांत के अद्वैत मत के प्रणेता थे। अवतारवाद के अनुसार, ईश्वर तब अवतार लेता है, जब धर्म की हानि होती है। धर्म और समाज को व्यवस्थित करने के लिए ही आशुतोष शिव का आगमन दक्षिण-भारत के केरल राज्य के कालडी़ ग्राम में हुआ था ।
बौद्ध धर्म के प्रणेता गौतम बुद्ध का मूल नाम सिद्धार्थ था। सिंहली, अनुश्रुति, खारवेल के अभिलेख, अशोक के सिंहासनारोहण की तिथि, कैण्टन के अभिलेख आदि के आधार पर महात्मा बुद्ध की जन्म तिथि ५६३ ई.पूर्व स्वीकार की गयी है।
पतंजलि प्राचीन भारत के एक मुनि और नागों के राजा शेषनाग के अवतार थे, जिन्हे संस्कृत के अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों का रचयिता माना जाता है। इनमें से योगसूत्र उनकी महानतम रचना है जो योगदर्शन का मूलग्रन्थ है। भारतीय साहित्य में पतंजलि द्वारा रचित ३ मुख्य ग्रन्थ मिलते हैं। योगसूत्र, अष्टाध्यायी पर भाष्य और आयुर्वेद पर ग्रन्थ। इनका काल कोई २०० ई पू माना जाता है।
संत रविदास कबीर के समकालीन थे, यानी इनका समय सन् १३९८ से १५१८ ई. के आस पास का रहा होगा। मध्ययुगीन संतों में रैदास का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
कबीरदास का जन्म वर्ष १३९८ का माना जाता है। उनके समय में भारत की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक दशा शोचनीय थी। एक तरफ मुसलमान शासकों की धर्मांन्धता से जनता परेशान थी और दूसरी तरफ हिन्दू धर्म के कर्मकांड, विधान और पाखंड से धर्म का ह्रास हो रहा था। जनता में भक्ति- भावनाओं का सर्वथा अभाव था। पंडितों के पाखंडपूर्ण वचन समाज में फैले थे। ऐसे संघर्ष के समय में, कबीरदास का प्रार्दुभाव हुआ।
रामचरित मानस नामक महाकाव्य के प्रणेता गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म सन् १५३२ में राजापुर, उत्तरप्रदेश में हुआ था। तुलसी का बचपन बड़े कष्टों में बीता। माता-पिता दोनों चल बसे और इन्हें भीख मांगकर अपना पेट पालना पड़ा था। इसी बीच इनका परिचय राम-भक्त साधुओं से हुआ और इन्हें ज्ञानार्जन का अनुपम अवसर प्राप्त हुआ।
वल्लभाचार्य भक्तिकालीन सगुणधारा की कृष्णभक्ति शाखा के आधार स्तंभ एवं पुष्टिमार्ग के प्रणेता माने जाते हैं। जिनका प्रादुर्भाव सन् १४७९, वैशाख कृष्ण एकादशी को दक्षिण भारत के कांकरवाड ग्रामवासी तैलंग ब्राह्मण श्री लक्ष्मणभट्ट जी की पत्नी इलम्मागारू के गर्भ से काशी के समीप हुआ था।
लक्ष्मीबाई का जन्म १९ नवंबर, १८२८ को काशी के पुण्य व पवित्र क्षेत्र असीघाट, वाराणसी में हुआ था। इनके पिता का नाम ‘मोरोपंत तांबे’ और माता का नाम ‘भागीरथी बाई’ था। इनका बचपन का नाम ‘मणिकर्णिका’ रखा गया परन्तु प्यार से मणिकर्णिका को ‘मनु’ पुकारा जाता था।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म काशी नगरी के प्रसिद्ध ‘सेठ अमीर चंद’ के वंश में ९ सितम्बर, १८५० को हुआ था। इनके पिता ‘बाबू गोपाल चन्द्र’ भी एक कवि थे। इनके घराने में वैभव एवं प्रतिष्ठा थी। जब इनकी अवस्था मात्र ५ वर्ष की थी, इनकी माता चल बसी और दस वर्ष की आयु में पिता जी भी चल बसे। भारतेन्दु जी विलक्षण प्रतिभा के व्यक्ति थे। इन्होंने अपने परिस्थितियों से गम्भीर प्रेरणा ली। इनके मित्र मण्डली में बड़े-बड़े लेखक, कवि एवं विचारक थे, जिनकी बातों से ये प्रभावित थे। इनके पास विपुल धनराशि थी, जिसे इन्होंने साहित्यकारों की सहायता हेतु मुक्त हस्त से दान किया।
पंडित मदन मोहन मालवीय जी का जन्म २५ दिसम्बर, १८६१ को इलाहाबाद में हुआ था। वे महान् स्वतंत्रता सेनानी, राजनीतिज्ञ और शिक्षाविद ही नहीं, बल्कि एक बड़े समाज सुधारक भी थे।
खड़ी बोली को काव्य भाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने वाले कवियों में अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ का नाम बहुत आदर से लिया जाता है। उनका जन्म १५ अप्रैल, १८६५ को हुआ था।
वर्ष १८७५ में जन्में डॉ. श्यामसुन्दर दास जिस निष्ठा से हिन्दी के अभावों की पूर्ति के लिये लेखन कार्य किया और उसे कोश, इतिहास, काव्यशास्त्र भाषाविज्ञान, अनुसंधान पाठ्यपुस्तक और सम्पादित ग्रन्थों से सजाकर इस योग्य बना दिया कि वह इतिहास के खंडहरों से बाहर निकलकर विश्वविद्यालयों के भव्य-भवनों तक पहुँची।
आग़ा हश्र कश्मीरी का जन्म वर्ष १८७९ में हुआ था। वे वाराणसी के प्रसिद्ध उर्दू-साहित्यकार थे। आग़ा हश्र कश्मीरी पारसी नाटक कम्पनियों के युग के प्रसिद्ध नाटककार थे। मूलतः आग़ा हश्र कश्मीरी उर्दू-साहित्यकार थे परंतु हिन्दी में ‘सीता-बनवास’, ‘भीष्म-प्रतिज्ञा’ ‘श्रवणकुमार’ इत्यादि नाटक भी लिखे जिनमें हिन्दू धर्म-संस्कृति का अच्छा चित्रण है।
उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद…
प्रेमचंद जी का जन्म ३१ जुलाई, १८८० को हुआ था। यह कालखण्ड भारत के इतिहास में बहुत महत्त्व का है। इस युग में भारत का स्वतंत्रता-संग्राम नई मंज़िलों से गुज़रा।
रामचन्द्र शुक्ल जी का जन्म बस्ती ज़िले के अगोना नामक गाँव में सन् १८८४ ई. में हुआ था। सन् १८८८ ई. में वे अपने पिता के साथ राठ हमीरपुर गये तथा वहीं पर विद्याध्ययन प्रारम्भ किया। सन् १८९१ ई. में उनके पिता की नियुक्ति मिर्ज़ापुर में सदर क़ानूनगो के रूप में हो गई और वे पिता के साथ मिर्ज़ापुर आ गये।
महाकवि जयशंकर प्रसाद जी का जन्म ३० जनवरी, १८८९ को वाराणसी में हुआ था। वे हिन्दी नाट्य जगत और कथा साहित्य में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। कथा साहित्य के क्षेत्र में भी उनकी देन महत्त्वपूर्ण है। भावना-प्रधान कहानी लिखने वालों में जयशंकर प्रसाद अनुपम थे।
राय कृष्णदास का जन्म १३ नवंबर, १८९२ को वाराणसी में हुआ था। कहानी सम्राट प्रेमचन्द के समकालीन कहानीकार और गद्य गीत लेखक थे। इन्होंने ‘भारत कला भवन’ की स्थापना की थी, जिसे वर्ष १९५० में ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय’ को दे दिया गया। आज ‘भारत कला भवन’ शोधार्थियों के लिए किसी तीर्थ स्थल से कम नहीं है। राय कृष्णदास को ‘साहित्य वाचस्पति पुरस्कार’ तथा ‘भारत सरकार’ द्वारा ‘पद्म विभूषण’ की उपाधि मिली थी।
डॉ. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म १९ अगस्त, १९०७ ई. को गाँव ‘आरत दुबे का छपरा’, बलिया में हुआ था। हिन्दी के शीर्षस्थानीय साहित्यकारों में से हैं। वे उच्चकोटि के निबन्धकार, उपन्यास लेखक, आलोचक, चिन्तक तथा शोधकर्ता हैं। साहित्य के इन सभी क्षेत्रों में द्विवेदी जी अपनी प्रतिभा और विशिष्ट कर्तव्य के कारण विशेष यश के भागी हुए हैं।
भारत रत्न सम्मानित बिस्मिल्ला ख़ाँ का जन्म २१ मार्च, १९१६ को हुआ था। वे एक प्रख्यात शहनाई वादक थे। वर्ष १९६९ में एशियाई संगीत सम्मेलन के रोस्टम पुरस्कार तथा अनेक अन्य पुरस्कारों से सम्मानित बिस्मिल्ला खाँ ने शहनाई को भारत के बाहर एक पहचान प्रदान किया है।
पंडित रविशंकर का जन्म ७ अप्रैल, १९२० को बनारस में हुआ था। विश्व में भारतीय शास्त्रीय संगीत की उत्कृष्टता के सबसे बड़े उदघोषक हैं। एक सितार वादक के रूप में उन्होंने ख्याति अर्जित की है। रवि शंकर और सितार मानों एक-दूसरे के लिए ही बने हैं। वह इस सदी के सबसे महान् संगीतज्ञों में गिने जाते हैं।
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