November 22, 2024

जीवन…

महावीर प्रसाद द्विवेदी का जन्म १५ मई वर्ष १८६४ को उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिला अंतर्गत दौलतपुर के रहने वाले रामसहाय द्विवेदी जी के यहां हुआ था। कहा जाता है कि उन्हें महावीर जी का इष्ट था, इसीलिए उन्होंने अपने पुत्र का नाम महावीर सहाय रखा। महावीर जब बड़े हुए तो उनकी प्रारम्भिक शिक्षा गाँव की पाठशाला में ही हुई। यहां एक मजेदार घटना यह घटी की प्रधानाध्यापक महोदय ने भूल से इनका नाम महावीर प्रसाद लिख दिया था। हिन्दी साहित्य में यह भूल स्थायी बन गयी और उनका नाम महावीर प्रसाद द्विवेदी हो गया। तेरह वर्ष की अवस्था में अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए आप रायबरेली के ज़िला स्कूल में भर्ती हुए। यहाँ संस्कृत के अभाव में इनको वैकल्पिक विषय फ़ारसी लेना पड़ा। इन्होंने इस स्कूल में ज्यों-त्यों एक वर्ष काटा। उसके बाद कुछ दिनों तक उन्नाव ज़िले के ‘रनजीत पुरवा स्कूल’ में और कुछ दिनों तक फ़तेहपुर में पढ़ने के बाद यह पिता के पास बम्बई चले गए। बम्बई में इन्होंने संस्कृत, गुजराती, मराठी और अंग्रेज़ी का अभ्यास किया।

कार्यक्षेत्र…

महावीर जी की ज्ञान-पिपासा कभी भी तृप्त न हुई, परंतु पेट भरने के लिए कार्य तो करना ही होगा अतः उन्होंने जीविका के लिए रेलवे में नौकरी कर ली। कुछ दिनों तक नागपुर और अजमेर में कार्य करते रहे तत्पश्चात वे पुन: बम्बई लौट आए। यहाँ पर इन्होंने तार देने की विधि सीखी और रेलवे में सिगनलर हो गए। रेलवे में विभिन्न पदों पर कार्य करने के बाद अन्तत: यह झाँसी में डिस्ट्रिक्ट सुपरिण्टेण्डेण्ट के ऑफ़िस में चीफ़ क्लर्क हो गए। पाँच वर्ष बाद उच्चाधिकारी से न पटने के कारण इन्होंने नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया। इनकी साहित्य साधना का क्रम सरकारी नौकरी के नीरस वातावरण में भी चल रहा था और इस अवधि में इनके संस्कृत ग्रन्थों के कई अनुवाद और कुछ आलोचनाएँ प्रकाश में आ चुकी थीं। वर्ष १९०३ ई. में महावीर प्रसाद जी ने ‘सरस्वती’ का सम्पादन स्वीकार किया। ‘सरस्वती’ सम्पादक के रूप में इन्होंने हिन्दी के उत्थान के लिए जो कुछ किया, उस पर साहित्य समाज आज भी गर्व कर सकता है और आगे भी। वर्ष १९२० ई. तक उन्होंने दायित्व को निष्ठापूर्वक निभाया। ‘सरस्वती’ से अलग होने पर जीवन के अन्तिम अठारह वर्ष इन्होंने गाँव के खुले वातावरण में व्यतीत किए। मगर कहा जाता है कि ये वर्ष बड़ी उन्होंने बड़ी कठिनाई में बिताए।

महावीर प्रसाद द्विवेदी जी का कृतित्व तो महान है ही लेकिन उससे अधिक महिमामय उनका व्यक्तित्व था। आस्तिकता, कर्तव्यपरायणता, न्यायनिष्ठा, आत्मसंयम, परहित-कातरता और लोक-संग्रह भारतीय नैतिकता के शाश्वत विधान हैं। यह नैतिकता के मूर्तिमान प्रतीक थे। इनके विचारों और कथनों के पीछे इनके व्यक्तित्व की गरिमा भी कार्य करती थी। वह युग ही नैतिक मूल्यों के आग्रह का था। साहित्य के क्षेत्र में सुधारवादी प्रवृत्तियों का प्रवेश नैतिक दृष्टिकोण की प्रधानता के कारण ही हो रहा था। भाषा-परिमार्जन के मूलों में भी यही दृष्टिकोण कार्य कर रहा था। इनका कृतित्व श्लाघ्य है तो इनका व्यक्तित्व पूज्य। प्राचीनता की उपेक्षा न करते हुए भी इन्होंने नवीनता को प्रश्रय दिया था। ‘भारत-भारती’ के प्रकाशन पर इन्होंने लिखा था, “यह काव्य वर्तमान हिन्दी-साहित्य में युगान्तर उत्पन्न करने वाला है”। इस युगान्तर मूल में इनका ही व्यक्तित्व कार्य कर रहा था। द्विवेदी जी ने अनन्त आकाश और अनन्त पृथ्वी के सभी उपकरणों को काव्य-विषय घोषित करके इसी युगान्तर की सूचना दी थी। यह नवयुग के विधायक आचार्य थे। उस युग का बड़े से बड़ा साहित्यकार आपके प्रसाद की ही कामना करता था।

विशेषता…

आलोचक के रूप में ‘रीति’ के स्थान पर इन्होंने उपादेयता, लोक-हित, उद्देश्य की गम्भीरता, शैली की नवीनता और निर्दोषिता को काव्योत्कृष्टता की कसौटी के रूप में प्रतिष्ठित किया। इनकी आलोचनाओं से लोक-रुचि का परिष्कार हुआ। नूतन काव्य विवेक जागृत हुआ। सम्पादक के रूप में इन्होंने निरन्तर पाठकों का हित चिन्तन किया। इन्होंने नवीन लेखकों और कवियों को प्रोत्साहित किया। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त इन्हें अपना गुरु मानते थे। गुप्तजी का कहना है कि “मेरी उल्टी-सीधी प्रारम्भिक रचनाओं का पूर्ण शोधन करके उन्हें ‘सरस्वती’ में प्रकाशित करना और पत्र द्वारा मेरे उत्साह को बढ़ाना द्विवेदी महाराज का ही काम था”। इन्होंने पत्रिका को निर्दोष, पूर्ण, सरस, उपयोगी और नियमित बनाया। अनुवादक के रूप में इन्होंने भाषा की प्रांजलता और मूल भाषा की रक्षा को सर्वाधिक महत्त्व दिया।

हिन्दी साहित्य में महावीर प्रसाद द्विवेदी का मूल्यांकन तत्कालीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में ही किया जा सकता है। वह समय हिन्दी के कलात्मक विकास का नहीं, हिन्दी के अभावों की पूर्ति का था। इन्होंने ज्ञान के विविध क्षेत्रों- इतिहास, अर्थशास्त्र, विज्ञान, पुरातत्त्व, चिकित्सा, राजनीति, जीवनी आदि से सामग्री लेकर हिन्दी के अभावों की पूर्ति की। हिन्दी गद्य को माँजने-सँवारने और परिष्कृत करने में यह आजीवन संलग्न रहे। यहाँ तक की इन्होंने अपना भी परिष्कार किया। हिन्दी गद्य और पद्य की भाषा एक करने के लिए (खड़ीबोली के प्रचार-प्रसार के लिए) प्रबल आन्दोलन किया। हिन्दी गद्य की अनेक विधाओं को समुन्नत किया। इसके लिए इनको अंग्रेज़ी, मराठी, गुजराती और बंगला आदि भाषाओं में प्रकाशित श्रेष्ठ कृतियों का बराबर अनुशीलन करना पड़ता था। निबन्धकार, आलोचक, अनुवादक और सम्पादक के रूप में इन्होंने अपना पथ स्वयं प्रशस्त किया था। निबन्धकार द्विवेदी के सामने सदैव पाठकों के ज्ञान-वर्द्धन का दृष्टिकोण प्रधान रहा, इसीलिए विषय-वैविध्य, सरलता और उपदेशात्मकता उनके निबन्धों की प्रमुख विशेषताएँ बन गयीं

साहित्य संपत्ति…

महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की मौलिक और अनुदित पद्य और गद्य ग्रन्थों की कुल संख्या अस्सी से ऊपर है। गद्य में इनकी १४ अनुदित और ५० मौलिक कृतियाँ प्राप्त हैं। कविता की ओर महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की विशेष प्रवृत्ति नहीं थी। इस क्षेत्र में इनकी अनुदित कृतियाँ, जिनकी संख्या आठ है, अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। मौलिक कृतियाँ कुल ९ हैं, जिन्हें स्वयं तुकबन्दी कहा है। इनकी समस्त कृतियों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित रूप में उपस्थित किया जा सकता है।

पद्य (अनुवाद)…

१. विनय विनोद १८८९ ई.- भृतहरि के ‘वैराग्य शतक’ का दोहों में अनुवाद
२. विहार वाटिका १८९० ई.- गीत गोविन्द का भावानुवाद।
३. स्नेह माला १८९० ई.- भृतहरि के ‘श्रृंगार शतक’ का दोहों में अनुवाद।
४. श्री महिम्न स्तोत्र १८९१ ई.- संस्कृत के ‘महिम्न स्तोत्र का संस्कृत वृत्तों में अनुवाद।
५. गंगा लहरी १८९१ ई.- पण्डितराज जगन्नाथ की ‘गंगा लहरी’ का सवैयों में अनुवाद।
६. ऋतुतरंगिणी १८९१ ई.- कालिदास के ‘ऋतुसंहार’ का छायानुवाद।
७. सोहागरात अप्रकाशित- बाइरन के ‘ब्राइडल नाइट’ का छायानुवाद।
८. कुमारसम्भवसार १९०२ ई.- कालिदास के ‘कुमार सम्भवम’ के प्रथम पाँच सर्गों का सारांश।

गद्य (अनुवाद)…

१. भामिनी-विलास १८९१ ई.- पण्डितराज जगन्नाथ के ‘भामिनी विलास’ का अनुवाद।
२. अमृत लहरी १८९६ ई.- पण्डितराज जगन्नाथ के ‘यमुना स्तोत्र’ का भावानुवाद।
३. बेकन-विचार-रत्नावली १९०१ ई.- बेकन के प्रसिद्ध निबन्धों का अनुवाद।
४. शिक्षा १९०६ ई.- हर्बर्ट स्पेंसर के ‘एज्युकेशन’ का अनुवाद।
५. स्वाधीनता १९०७ ई.- जॉन स्टुअर्ट मिल के ‘ऑन लिबर्टी’ का अनुवाद।
६. जल चिकित्सा १९०७ ई.- जर्मन लेखक लुई कोने की जर्मन पुस्तक के अंग्रेज़ी अनुवाद का अनुवाद।
७. हिन्दी महाभारत १९०८ ई.-‘महाभारत’ की कथा का हिन्दी रूपान्तर।
८. रघुवंश १९१२ ई.- ‘रघुवंश’ महाकाव्य का भाषानुवाद।
९. वेणी-संहार १९१३ ई.- संस्कृत कवि भट्टनारायण के ‘वेणीसंहार’ नाटक का अनुवाद।
१०. कुमार सम्भव १९१५ ई.- कालिदास के ‘कुमार सम्भव’ का अनुवाद।
११. मेघदूत १९१७ ई.- कालिदास के ‘मेघदूत’ का अनुवाद।
१२. किरातार्जुनीय १९१७ ई.- भारवि के ‘किरातार्जुनीयम्’ का अनुवाद।
१३. प्राचीन पण्डित और कवि १९१८ ई.- अन्य भाषाओं के लेखों के आधार पर प्राचीन कवियों और पण्डितों का परिचय।
१४. आख्यायिका सप्तक १९२७ ई.- अन्य भाषाओं की चुनी हुई सात आख्यायिकाओं का छायानुवाद।

मौलिक पद्य रचनाएँ…

१. देवी स्तुति-शतक १८९२ ई.
२. कान्यकुब्जावलीव्रतम १८९८ ई.
३. समाचार पत्र सम्पादन स्तव: १८९८ ई.
४. नागरी १९०० ई.
५. कान्यकुब्ज- अबला-विलाप १९०७ ई.
६. काव्य मंजूषा १९०३ ई.
७. सुमन १९२३ ई.
८. द्विवेदी काव्य-माला १९४० ई.
९. कविता कलाप १९०९ ई.।

मौलिक गद्य रचनाएँ…

१. तरुणोपदेश (अप्रकाशित)
हिन्दी शिक्षावली तृतीय भाग की समालोचना १९०१ ई.
२. वैज्ञानिक कोश १९०६ ई.,
३. नाट्यशास्त्र १९१२ ई.
४. विक्रमांकदेवचरितचर्चा १९०७ ई.
५. हिन्दी भाषा की उत्पत्ति १९०७ ई.
६. सम्पत्तिशास्त्र १९०७ ई.
७. कौटिल्य कुठार १९०७ ई.
८. कालिदास की निरकुंशता १९१२ ई.
९. वनिता-विलाप १९१८ ई.
१०. औद्यागिकी १९२० ई.
११. रसज्ञ रंजन १९२० ई.
१२. कालिदास और उनकी कविता १९२० ई.
१३. सुकवि संकीर्तन १९२४ ई.
१४. अतीत स्मृति १९२४ ई.
१५. साहित्य सन्दर्भ १९२८ ई.
१६. अदभुत आलाप १९२४ ई.
१७. महिलामोद १९२५ ई.
१८. आध्यात्मिकी १९२८ ई.
१९. वैचित्र्य चित्रण १९२६ ई.
२०. साहित्यालाप १९२६ ई.
२१. विज्ञ विनोद १९२६ ई.
२२. कोविद कीर्तन १९२८ ई.
२३. विदेशी विद्वान् १९२८ ई.
२४. प्राचीन चिह्न १९२९ ई.
२५. चरित चर्या १९३० ई.
२६. पुरावृत्त १९३३ ई.
२७. दृश्य दर्शन १९२८ ई.
२८. आलोचनांजलि १९२८ ई.
२९. चरित्र चित्रण १९२९ ई.
३०. पुरातत्त्व प्रसंग १९२९ ई.
३१. साहित्य सीकर १९३० ई.
३२. विज्ञान वार्ता १९३० ई.
३३. वाग्विलास १९३० ई.
३४. संकलन १९३१ ई.
३५. विचार-विमर्श १९३१ ई.

उपर्युक्त कृतियों के अतिरिक्त तेरहवें हिन्दी साहित्य सम्मेलन (१९२३ ई.), काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा किये गये अभिनन्दन (१९३३ ई. और प्रयाग में आयोजित ‘द्विवेदी मेला’, १९३३ ई.) के अवसर पर इन्होंने जो भाषण दिये थे, उन्हें भी पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित किया गया है। साथ ही उनकी छ: बालोपयोगी स्कूली पुस्तकें भी प्रकाशित हैं।

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