May 2, 2024

आज हम बात करेंगे एक ऐसे व्यक्ति के बारे में जिसकी सत्यनिष्ठ आचरण की शुरुआत एक झूठ से हुई थी। हम बात करने वाले हैं एक ऐसे व्यक्ति के बारे में जो कोई राजनेता नहीं था, परंतु देश की राजनीति उसके आगे नतमस्तक होकर गुजरी। हम बात करने वाले हैं एक ऐसे व्यक्ति के बारे में जो निःसंतान था, मगर सैकड़ों हजारों बच्चे जिसे अपना पिता मानते थे। हम आज बात करने वाले हैं एक ऐसे धर्मनिष्ठ व्यक्ति के बारे में जो सही मायने में मानवता का पुजारी था और जो ब्रह्म समाजी विचारों को मानने के वावजूद गीता, गुरु ग्रंथ साहिब और बाइबिल का श्रद्धा के साथ पाठ करता था। नाम था अश्विनी कुमार दत्त…

सत्यनिष्ठ आचरण…

अश्विनी जी जब हाईस्कूल में पढ़ते थे, उस समय कलकत्ता विश्वविद्यालय का नियम था कि १६ वर्ष से कम आयु के विद्यार्थी हाईस्कूल की परीक्षा में नहीं बैठ सकते। अश्विनी कुमार की इस परीक्षा के समय आयु मात्र १४ वर्ष थी। किंतु जब उन्होंने देखा कि कई कम आयु के विद्यार्थी १६ वर्ष की आयु लिखवाकर परीक्षा में बैठ रहे हैं, तब उन्हें भी यही करने की इच्छा हुई। उन्होंने अपने आवेदन पत्र में १६ वर्ष की आयु लिख दी और परीक्षा दी। इस प्रकार उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके ठीक एक वर्ष बाद जब अगली कक्षा की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए, तब उन्हें अपने असत्य आचरण पर बहुत खेद हुआ। उन्होंने अपने कॉलेज के प्राचार्य से बात की और इस असत्य को सुधारने की प्रार्थना की। प्राचार्य ने उनकी सत्यनिष्ठा की बड़ी प्रशंसा की, किंतु इसे सुधारने में अपनी असमर्थता जाहिर कर दी। अश्विनी कुमार का मन नहीं माना। अब अश्विनी कुमार विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार से मिले, किंतु वहाँ से भी उन्हें यही जवाब मिला कि अब कुछ नहीं हो सकता। किंतु सत्य प्रेमी अश्विनी कुमार को तो प्रायश्चित करना था। इसलिए उन्होंने दो वर्ष झूठी आयु बढ़ाकर जो लाभ उठाया था, उसके लिए दो वर्ष तक अपनी पढ़ाई बंद रखी और स्वयं द्वारा की गई उस गलती का उन्होंने प्रायश्चित किया, तथा आगे इस तरह के कार्य ना करने की कसम खाई। जिसे उन्होंने आजीवन निभाया।

निसंतान…

अश्विनी कुमार की कोई संतान नहीं थी, इसलिए उन्होंने अपने क्षेत्र के स्कूल जाने वाले सभी बच्चों को अपनी संतान मानकर उनकी शिक्षा की सारी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। इसके साथ ही शिक्षा के प्रसार के लिए उन्होंने कई विद्यालयों को स्थापित किया।

राजनीतिक कदमताल…

अश्विनी कुमार दत्त सार्वजनिक कार्यों में भाग लेते रहते थे। सर्वप्रथम उन्होंने बारीसाल में लोकमंच की स्थापना की। वर्ष १८८६ में कांग्रेस के दूसरे कोलकाता अधिवेशन में प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। वर्ष १८८७ की अमरावती कांग्रेस में उन्होंने कहा, “यदि कांग्रेस का संदेश ग्रामीण जनता तक नहीं पहुँचा तो यह सिर्फ़ तीन दिन का तमाशा बनकर रह जाएगी।” उनके इन विचारों का प्रभाव ही था कि वर्ष १८९८ में उनको पंडित मदनमोहन मालवीय, दीनशावाचा आदि के साथ कांग्रेस का नया संविधान बनाने का काम सौपा गया।

ब्रह्म समाजी विचारों के अश्विनी कुमार दत्त गीता, गुरु ग्रंथ साहिब और बाइबिल का श्रद्धा के साथ पाठ करते थे। वे समाज सुधारों के पक्षधर थे और छुआछूत, मद्यपान आदि का सदा विरोध करते रहे।

परिचय…

अश्विनी कुमार दत्त का जन्म का जन्म १५ जनवरी, १८५६ को बारीसाल ज़िला (पूर्वी बंगाल) में हुआ था। उनके पिता ब्रज मोहन दत्त डिप्टी कलक्टर थे, जो बाद में ज़िला न्यायाधीश भी बने थे। अश्विनी कुमार ने इलाहाबाद और कलकत्ता से अपनी क़ानून की शिक्षा प्राप्त की थी। इसके बाद उन्होंने कुछ समय तक अध्यापक पद पर भी कार्य किया। बाद में वर्ष १८८० में बारीसाल से वकालत की शुरुआत की।

जेल यात्रा…

बंगाल की जनता पर अश्विनी कुमार दत्त का बढ़ता हुआ प्रभाव अंग्रेज़ सरकार को सहन नहीं हुआ। सरकार ने उन्हें बंगाल से निर्वासित करके १९०८ में लखनऊ जेल में बंद कर दिया। वर्ष १९१० में वे जेल से बाहर आ सके। अब वे विदेशी सरकार से किसी प्रकार का सहयोग करने के विरुद्ध थे। यहीं से शुरू हुआ असहयोग आन्दोलन, कालांतर में जिसके साक्षी स्वयं गांधी जी बने।

विचार…

बंगाल विभाजन ने अश्विनी कुमार दत्त के विचार बदल दिए। वे नरम विचारों के राजनीतिज्ञ न रहकर उग्र विचारों के हो गए थे। वे लोगों के उग्र विचारों के प्रतीक बन गए। उनके शब्दों का बारीसाल के लोग क़ानून की भांति पालन करते थे। महान् क्रान्तिकारी विचारक एवं लेखक सखाराम गणेश देउस्कर द्वारा लिखित क्रांतिकारी बांग्ला पुस्तक ‘देशेर कथा’ के बारे में अश्विनी कुमार ने अपनी कालीघाट वाली वक्तृता में कहा था कि “इतने दिनों तक सरस्वती की आराधना करने पर भी बंगालियों को मातृभाषा में वैसा उपयोगी ग्रंथ लिखना न आया जैसा एक परिणामदर्शी महाराष्ट्र के युवा ने लिख दिखाया। बंगालियों, इस ग्रंथ को पढ़ो और अपने देश की अवस्था और निज कर्तव्य पर विचार करो।”

अपने समय में पूर्वी बंगाल के बेताज बादशाह माने जाने वाले अश्विनी कुमार दत्त ७ नवम्बर, १९२३ को इस दुनिया से विदा ले परलोक वासी हो गए। मगर कई सवाल उन्होंने इतिहास के मुहाने पर छोड़ दिया।

पहला सवाल; असहयोग आंदोलन की शुरुआत अश्विनी कुमार ने वर्ष १९१० में जेल से बाहर आने पर ही कर दी थी, मगर इतिहास इसकी शुरुआत गांधी जी द्वारा १९२० में बताता है, ऐसा क्यूं?

दूसरा सवाल; वर्ष १९०५ में वाइसरॉय लॉर्ड कर्ज़न द्वारा बंगाल का विभाजन (पश्चिम बंगाल और पूर्वी बंगाल) किया गया और जिसका भारी विरोध अश्विनी कुमार साहित भारतीय राष्ट्रवादियोंने ने किया और जो कालांतर में पूर्वी बंगाल, बांग्लादेश के रूप में स्वतन्त्र राष्ट्र बना। उस समय गांधी जी सहित बाकी कांग्रेस ने उनका साथ क्यों नहीं दिया? ऐसे ही अनेकों सवाल हैं जिनके जवाब हमें इतिहास कब देता है यही देखना है। जिनमें संविधान से संबंधित भी एक सवाल है…

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