April 30, 2025

बात १३ नंबवर १९८९ की है। सुबह – सुबह पश्चिम बंगाल के रानीगंज की महाबीर कोयला खदान में ६५ खनिकों के फँसने की जानकारी मिली। खदान में पानी तेजी से भर रहा था और छह खनिकों की मौत भी हो चुकी थी। ऐसे हालात में कोल इंडिया में काम करने वाले एक दिलेर इंजीनियर ने ऐसी तरकीब का इस्तेमाल किया जिससे बाकी के सभी ६५ खनिकों की जान बचाई जा सकी, जिसका प्रयोग पहले कभी भी कहीं भी इस्तेमाल नहीं किया गया था।

 

खदान दुर्घटना…

हुआ यह था कि खदान के जिस परत से कोयला निकाला जा चुका था वहाँ पास की नदी से पानी इकट्ठा होना शुरु हो गया था। अगली परत ३३० फुट पर थी जहां मज़दूर काम कर रहे थे। वहाँ पर एक पिलर था जहाँ ब्लास्ट नहीं करना था लेकिन गलती से किसी ने वहाँ ब्लास्ट कर दिया। ब्लास्ट होने का नतीजा यह था कि वह पिलर ध्वस्त हो गया और सारा पानी नीचे खदान में आ गया। ऐसा लग रहा था मानो जैसे कोई बड़ा झरना हो।

इसके बाद खदान में बड़े बड़े पंप लगाकर पानी निकालने की कोशिश शुरु की गई लेकिन ७१ खनिकों के बारे में कोई जानकारी नहीं मिल रही थी। इसलिए खदान के अंदर जाने के लिए चमड़े की एक मज़बूत बेल्ट लटका दी गई ताकि रेस्क्यू टीम अंदर जाकर लोगों को निकाल सके, मगर पानी का प्रेशर इतना ज़्यादा था कि उसने बेल्ट के चिथड़े कर दिए।

यही वह समय था जब उस आतंक और अफरा तफरी के माहौल में जसवंत सिंह गिल वहाँ पहुँचे। उन्होंने आते ही परिस्थिति को समझा और सुझाव दिया कि एक नया बोर ड्रिल किया जाए। साथ ही उन्होंने स्टील का एक कैप्सूल बनाने का प्रस्ताव भी दिया जिसे खदान में भेजा जाए और उसके जरिए लोगों को एक-एक करके बाहर निकाला जाए।

 

दिक्कत…

उस समय दिक्कत यह थी कि किसी इंसान को ठीक से ले जाने के लिए कम से कम २२ इंच का बोर या सुराग होना चाहिए था। लेकिन ड्रिलिंग के लिए जो औज़ार (कटिंग बिट) उपलब्ध थे उनसे ८ इंच तक ही सुराग हो सकता था। लेकिन जसवंत सिंह और उनके कारीगरों ने जुगाड़ लगाया। ८ इंच के कटिंग बिट पर वेल्डिंग के ज़रिए कई बार नए कटिंग बिट जोड़े। किसी तरह 21 इंच तक पहुँचाया।

अब परेशानी की बात यह थी कि उस समय जिस कैप्सूल की बात की जा रही थी वो फिलहाल कल्पना मात्र थी। मगर गिल तो परेशानी से हार मानने वाले तो नहीं थे। उन्होंने अपने जुगाड़ू कारीगरों की सहायता से कैप्सूल का डिज़ाइन फौरन वहीं पर बनाया और पास की फैक्टरी में भेज दिया। लेकिन वो डिज़ाइन दो बार रिज़ेक्ट हो गया, मगर तीसरी बार जाकर उनके पसंद की डिज़ाइन तैयार हुई। ये सब करते करते १३ से १५ नंवबर की रात हो गई।

अब परेशानी यह थी कि पानी भर रहे खदान में खनिकों को बचाने के लिए कैप्सूल में बैठ कर कोई जाने को तैयार नहीं था। इस पर जसवंत सिंह ने स्वयं ही खदान मे जाने का जोखिम भरा फैसला लिया।

 

डर…

इस खतरनाक मिशन को अंजाम देते वक्त क्या उन्हें वाकई डर नहीं लगा? इस बारे में जसवंत सिंह ने कई बार मीडिया इंटरव्यूज़ में बात की थी, “जिस रात कैप्सूल को कोयला खदान में ले जाया गया, अचानक वो बहुत तेजी से गोल गोल घूमने लग गया। कुछ पलों के लिए कैप्सूल रुका और फिर उल्टी दिशा में बहुत तेज़ी से घूमने लगा। उस एक पल को मुझे लगा, कि मैने गलती कर दी क्या? मेरा दिमाग़ पूरी तरह सुन्न हो गया। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि हो क्या रहा है, क्या वापस चले जाएं? मुझे लग रहा था कि क्या मैं यह कर पाऊंगा। ये कर पाऊंगा?” उनके मुताबिक यह परिस्थिति अभी सिर्फ़ ३०-३५ फुट की गहराई में उतरने के बाद की थी। अभी तो ३३० फुट और नीचे जाना था। वह आगे कहते हैं, “उन दिनों टीवी पर महाभारत आता था, मुझे अर्जुन का किस्सा याद आया कि कैसे उसने मछली की आँख पर ध्यान लगाया था। मैंने भी ध्यान लगाना शुरु किया। खदान के अंदर एक छोटी सी सफ़ेद रोशनी कहीं से दिखी। बस उसी पर अपना ध्यान केंद्रित किया। उसके बाद मुझे अहसास नहीं हुआ कि कैप्सूल घूम रहा है या नहीं। रोशनी को देखते-देखते पता नहीं कब मैं नीचे पहुँच गया। वो रोशनी धीरे धीरे धूमिल हो गई।

 

मिशन सफल…

कैप्सूल से निकलकर वहाँ फँसे खनिकों को एक एक कर के ऊपर भेजना शुरू कर दिया। हर खनिक को निकालने के बाद खाली कैप्सूल नीचे जाता, ऐसा ६५ बार हुआ लेकिन किसी की हिम्मत नहीं हुई कि वो कहे कि हम भी नीचे जाते हैं और गिल साहब की मदद करते हैं या बाकी का काम हम कर लेते हैं। वह इसलिए कि जितनी बार कैप्सूल नीचे जा रहा था, रिस्क बढ़ता जा रहा था, खदान में पानी भरता जा रहा था, अंदर हवा कम हो रही थी, कार्बन डाइऑक्साइड गैस की मात्रा बढ़ती जा रही थी।”

६५ खनिकों को निकालने के बाद जब जसवंत सिंह गिल सुबह बाहर आए तो पूरी दुनिया वहाँ इकट्ठा थी। ऐसा लग रहा था मानो कोई देवता प्रकट हुए हों। खनिकों के परिवार वाले आगे बढ़कर गिल साहब के पैर छूने की कोशिश करने लगे। गिल साहब के नाम के जयकारे लग रहे थे और फूलों के हार उनकी पगड़ी के ऊपर तक पहुँच गए थे। लोगो ने उन्हें कंधों पर उठाकर उनकी कार तक पहुंचाया। वह स्थान बंगाल था और वहाँ सिर्फ बंगाली थे मगर लोग नारे लगा रहे थे- जो बोले सो निहाल

 

इंटरव्यू…

बचाव अभियान के बाद पत्रकार बिमल देव गुप्ता ने अस्पताल में खनिकों का इंटरव्यू किया था, जिसको आधार बनाकर उन्होंने एक किताब लिखी है जिसका शीर्षक ‘बढ़ते कदम’ है। अपनी किताब में वो लिखते हैं, “शालीग्राम सिंह वो पहला मज़दूर था जो बाहर आया। शालीग्राम और दूसरे मज़दूरों ने बताया कि हादसे के वक़्त लगा कि किसी ने हमारे दिल को मुठ्ठी में बंद कर दिया हो। इंटरकॉम के ज़रिए परिवार से बात करवाने की पेशकश हमने ठुकरा दी। हमें लगा कि उनका रोना सुनकर हम कमज़ोर पड़ जाएँगे। लेकिन जब पता चला कि ऊपर हमें बचाने की कोशिश ज़ोरों से जारी है तो हम एक दूसरे का हौसला बढ़ाने लगे।”

वहीं एबीपी की एक इंटरव्यू में जसवंत सिंह जी ने स्वयं एक किस्सा बताया था कि जब वे खनिकों के साथ खदान में थे तो खनिक लगातार पूछते रहे कि आप हो कौन हैं- आर्मी से हैं, एयर फ़ोर्स से हैं या फायर ब्रिगेड से हैं। लेकिन जसवंत यह बताकर मज़दूरों को असहज नहीं करना चाहते थे कि वो जनरल मैनेजर हैं। उन्होंने मजदूरों से कहा कि मुझे पता चला कि ‘तुम लोग नीचे पिकनिक मना रहे हो तो मैं भी आ गया पिकनिक मनाने।’

 

जसवंत जी भगवान हैं…

जसवंत जी ने जिन लोगों की जान बचाई थी, वो मज़दूर बताते थे कि उनके घर में सबसे ऊपर उनके इष्ट देवता की मूर्ति होती है और उसके बाद गिल जी की तस्वीर।

 

परिवार को कोई खबर नहीं…

दिलचस्प बात ये है कि जसवंत सिंह के परिवार को इस बात का कोई अंदाज़ा ही नहीं था कि बंगाल में कोई ख़तरनाक मिशन चल रहा है।

उनका परिवार अमृतसर में रहता था। मिशन के बाद एक दिन ट्रंक कॉल आया कि शाम को दूरदर्शन पर बुलेटिन देखना। जैसे ही परिवार वाले १६ नंवबर, १९८९ को टीवी चलाया तो हेडलाइन चल रही थी कि बंगाल में ६५ खनिक बचाए गए, जसवंत सिंह जी की मां ने जब यह देखा तो कहा कि कोई रोको इसनू। उनके छोटे भाई हँसते हुए बोले कि अब तो वो कर चुका जो उसे करना था।

 

सम्मान…

वर्ष १९९१ में जसवंत सिंह गिल को उनकी जाबांजी के लिए राष्ट्रपति की ओर से सर्वोत्तम जीवन रक्षा पुरस्कार से नवाजा गया।

 

कैप्सूल गिल का परिचय…

जसवंत सिंह गिल ने इस बचाव अभियान को अंजाम देने से पहले अपने वरिष्ठ अधिकारी को चौंका दिया था। वे अपने चेयरमैन के पास गए और पूछा कि जो आदमी नीचे खदान में बचाव अभियान के लिए जाएगा उसे शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से फिट होना चाहिए? उसे भीड़ को संभालना आना चाहिए? खदान की समझ होनी चाहिए? उनकी बातों पर चेयरमैन हाँ हाँ बोलते जा रहे थे। चेयरमैन की हामी के बाद जैसे ही जसवंत सिंह ने कहा कि ये सारी खूबियां मेरे अंदर है और मैं मिशन के लिए जा रहा हूं तो चेयरमैन पूरी तरह चौंक गए। उन्होंने यह कहते हुए जसवंत सिंह को रोकने की कोशिश की कि वो इतने सीनियर अफ़सर को जान जोखिम में डालने की अनुमति नहीं दे सकते। लेकिन जसवंत सिंह ने उनकी कोई बात नहीं सुनी और कहा कि ‘सुबह लौटकर आपके साथ चाय पिऊंगा।’

जसवंत सिंह बेहद हँसमुख और मज़ाकिया किस्म के इंसान थे और उनका ये पहलू तनाव के उस दौर में भी बरकरार रहा। जब वो खदान के अंदर जा रहे थे तो एक लोकल रिपोर्टर उनसे पूछने लगा कि आपका जन्म कहां हुआ है, पढ़ाई कहां हुई है, परिवार में कौन है, पत्नी से अनुमति ली या नहीं? तो जसवंत सिंह ने मज़ाक में उससे पूछा, कि इतनी जानकारी ले रहे हो, कल मेरी ऑब्यूचरी लिखोगे क्या?

अमृतसर के सठियाल में वर्ष १९३९ को जन्मे जसवंत सिंह गिल ने ६० के दशक में इंडियन स्कूल ऑफ़ माइन्स, धनबाद से अपनी पढ़ाई पूरी की और वर्ष १९८९ में हुए हादसे के दौरान बतौर जनरल मैनेजर वहां कार्यरत थे।

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