October 12, 2024

नमस्कार !
२६ जनवरी, भारतीय गणतन्त्र का पावन पर्व…

इस पर्व की महत्ता हम सभी जानते हैं, मगर किस तरह से पाई अथवा किस किस ने इसे पाने के लिए अपना सर्वस्व खोया और कितनों ने अपनी जान गंवाई। १५ अगस्त और २६ जनवरी सिर्फ ढोल और नगाड़ों के बजाने का दिन नहीं है और ना ही सिर्फ लड्डुओं के बांटने का ही दिन है। यह दिन उन महान आत्माओं को समर्पित होना चाहिए जिनकी वजह से आज हम आजाद हैं।

हर दिन के भांति मैं अश्विनी राय ‘अरुण’ एक ऐसे ही महान विभूति से आप सभी को मिलवाने जा रहा हूँ जिन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान नागालैण्ड में अंग्रेजी हुकुमत के विरुद्ध अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम दिया। एक ऐसी वीरांगना जिन्हें आजादी की लड़ाई में तमाम वीरतापूर्ण कार्य करने के कारण ‘नागालैण्ड की रानी लक्ष्मीबाई’ भी कहा जाता था। मात्र १३ साल की उम्र में वे अपने चचेरे भाई जादोनाग के ‘हेराका’ आन्दोलन में शामिल हो गयीं। प्रारंभ में इस आन्दोलन का स्वरुप धार्मिक था पर धीरे-धीरे इसने राजनैतिक रूप धारण कर लिया जब आन्दोलनकारियों ने मणिपुर और नागा क्षेत्रों से अंग्रेजों को खदेड़ना शुरू किया। अंग्रेजों ने क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए जब उन्हें गिरफ़्तार किया उस समय उनकी उम्र मात्र १६ साल थी। इतनी कम उम्र और इतने बड़े बड़े काम जिससे अंग्रेजी हुकूमत के रातों की नींद उड़ चुकी हो, यह वह वीरांगना थीं जिन्हें हेराका पंथ में चेराचमदिनल्यू देवी का अवतार माना जाने लगा था… वो थीं….

रानी गाइदिनल्यू

रानी गाइदिनल्यू का जन्म २६ जनवरी,  १९१५ को नंग्‍कओं, ग्राम रांगमई, मणिपुर में हुआ था। वह बचपन से ही बड़े स्वतंत्र और स्वाभिमानी स्वभाव की थीं। 13 वर्ष की आयु में वह अपने चचेरे भाई और नागा नेता जादोनाग के सम्पर्क में आईं। जादोनाग मणिपुर से अंग्रेज़ों को निकाल बाहर करने के प्रयत्न में लगे हुए थे। वे अपने आन्दोलन को क्रियात्मक रूप दे पाते, उससे पहले ही गिरफ्तार करके अंग्रेजों ने उन्हें २९ अगस्त १९३१ को फांसी पर लटका दिया। अब स्वतंत्रता के लिए चल रहे आन्दोलन का नेतृत्व बालिका गाइदिनल्यू के हाथों में आ गया। उसने गांधी जी के आन्दोलन के बारे में सुनकर सरकार को किसी प्रकार का कर न देने की घोषणा की। उसने नागाओं के कबीलों में एकता स्थापित करके अंग्रेज़ों के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा बनाने के लिए कदम उठाये। उसके तेजस्वी व्यक्तित्व और निर्भयता को देखकर जनजातीय लोग उसे सर्वशक्तिशाली देवी मानने लगे थे। नेता जादोनाग को फांसी देने से लोगों में असंतोष व्याप्त था, गाइदिनल्यू ने उसे सही दिशा की ओर की मोड़ा। सोलह वर्ष की इस बालिका के साथ केवल चार हज़ार सशस्त्र नागा सिपाही थे। इन्हीं को लेकर भूमिगत गाइदिनल्यू ने अंग्रेज़ों की सेना का सामना किया। वह छापामार युद्ध और शस्त्र संचालन में अत्यन्त निपुण थी। अंग्रेज उन्हें बड़ी खूंखार नेता मानते थे। दूसरी ओर जनता का हर वर्ग उसे अपना उद्धारक समझता था। इस आन्दोलन को दबाने के लिए अंग्रेज़ों ने वहाँ के कई गांव जलाकर राख कर दिए लेकिन इससे लोगों का उत्साह कम नहीं हुआ। सशस्त्र नागाओं ने एक दिन खुलेआम ‘असम राइफल्स’ की सरकारी चौकी पर हमला कर दिया। स्थान बदलते, अंग्रेज़ों की सेना पर छापामार प्रहार करते हुए गाइदिनल्यू ने एक इतना बड़ा किला बनाने का निश्चय किया, जिसमें उसके चार हज़ार नागा साथी रह सकें। इस पर काम चल ही रहा था कि १७ अप्रैल १९३२ को अंग्रेज़ों की सेना ने अचानक आक्रमण कर दिया। गाइदिनल्यू गिरफ्तार कर ली गईं। उन पर मुकदमा चला और कारावास की सजा हुई। उनने चौदह वर्ष अंग्रेज़ों की जेल में बिताए।

जब सन १९४६ में अंतरिम सरकार का गठन हुआ तब प्रधानमंत्री नेहरु के निर्देश पर रानी गाइदिनल्यू को तुरा जेल से रिहा कर दिया गया। रानी गाइदिनल्यू नागा नेशनल कौंसिल (एन.एन.सी.) का विरोध करती थीं क्योंकि वे नागालैंड को भारत से अलग करने चाहते थे जबकि रानी ज़ेलिआन्ग्रोन्ग समुदाय के लिए भारत के अन्दर ही एक अलग क्षेत्र चाहती थीं। एन.एन.सी.उनका इस बात के लिए भी विरोध कर रहे थे क्योंकि वे परंपरागत नागा धर्म और रीति-रिवाजों को पुनर्जीवित करने का प्रयास भी कर रही थीं। नागा कबीलों की आपसी स्पर्धा के कारण रानी को अपने सहयोगियों के साथ १९६० में भूमिगत हो जाना पड़ा और भारत सरकार के साथ एक समझौते के बाद वे ६ साल बाद १९६६ में बाहर आयीं। फरवरी १९६६ में वे दिल्ली में तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री जी से मिलीं और एक पृथक ज़ेलिआन्ग्रोन्ग प्रशासनिक इकाई की मांग की। इसके बाद उनके समर्थकों ने आत्म-समर्पण कर दिया जिनमें से कुछ को नागालैंड आर्म्ड पुलिस में भर्ती भी कर लिया गया।

वो नागाओं के पैतृक धार्मिक परंपरा में विश्वास रखती थीं इसलिए उन्होंने नागाओं द्वारा ईसाई धर्म अपनाने का घोर विरोध किया। भारत सरकार ने उन्हें ‘स्वतंत्रता सेनानी’ का दर्जा दिया और ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित भी किया।

ऐसे धर्म पर अडिग रहने वाली स्वतंत्रता सेनानी को उनके जन्मदिवस पर शत शत नमन।

धन्यवाद !

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