November 9, 2024

कोरोना संक्रमण काल के मध्य अथवा यूं कहें तो लॉकडाउन के बाद फिल्म शूटिंग के लिहाज से यह साल यानी 2020 बहुत ज्यादा अच्छा नहीं रहा, फिर भी जो भी फिल्मे शूट हुई हैं, उनमें से एक फिल्म सही मायनों में अहम है और जिसे हर किसी को देखनी चाहिए। हम बात कर रहे हैं बग्स भार्गव कृष्णा निर्देशित फिल्म नेल पॉलिश की।

फिल्म रिलीज से पूर्व एक वर्चुअल प्रेस कॉन्फ्रेंस में फिल्म के निर्देशक बग्स और अभिनेता अर्जुन रामपाल मौजूद थे। नेल पॉलिश नाम रखने को लेकर बग्स ने प्रेस को बताया, ‘इसे हम एकरूपक की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। नेल पॉलिश नाखूनों को छुपाने के लिए इस्तेमाल होता है, उसी तरह यह कहानी कई सच्चाईयों को छुपाती है।’ फिल्म में वकील का किरदार निभाने वाले अर्जुन रामपाल ने कहा, ‘जब मैंने फिल्म का टाइटल सुना, तब मैं नहीं जानना चाहता था कि ये नाम आखिर क्यों रखा गया है। बग्स ने कहा स्क्रिप्ट पढ़ लो, मैंने स्क्रिप्ट पढ़ी तब इस शीर्षक का मतलब साफ हो गया था। मैं वैसे भी अच्छे काम के लिए इंतजार करने के लिए तैयार हूं। अगर कुछ भी काम अपने लिए चुन लूंगा, तो खुद के साथ बेईमानी करूंगा।’ इन बातों से यह तो साफ हो गया कि शीर्षक ही फिल्म की कहानी को कहती है।

आइए हम आपको फिल्म की कहानी के माध्यम से फिल्म से आप का परिचय कराते हैं…

मनोज वशिष्ठ द्वारा लिखित यह फिल्म शुक्रवार, ०१ जनवरी, २०२१ को दोपहर के ०१ बज कर ०९ मिनट पर ओटीटी प्लेटफार्म Zee5 पर स्ट्रीम की गयी। इस फिल्म के मुख्य किरदारों में अर्जुन रामपाल, मानव कौल, आनंद तिवारी और रजित कपूर जैसे दिग्गज अभिनेताओं ने अभिनय किया है। फ़िल्म एक कोर्ट-रूम ड्रामा है, जिसमें अर्जुन रामपाल डिफेंस लॉयर बने हैं और बच्चों के क़त्ल के आरोपी मानव कौल के बचाव में जिरह करते दिख रहे हैं। वैसे तो नेल पॉलिश को कोर्ट-रूम ड्रामा कहकर प्रचारित किया गया, मगर इसमें साइकोलॉजिकल-थ्रिलर कहलाने की भरपूर क्षमता है, जैसा कि हमने ऊपर ही कहा है कि फ़िल्म का उसके शीर्षक ‘नेल पॉलिश’ से गहरा संबंध है और सही मायनों में यही रोमांच की रीढ़ भी है।

नेल पॉलिश की कहानी शुरू होती है लखनऊ में क्रिकेट प्रशिक्षण अकादमी चला रहे वीर सिंह (मानव कौल) से, जिस पर आरोप है कि वह प्रवासी मजदूरों के बच्चों की हत्या करता है। जब डीसीपी सुनील सचदेव (समीर धर्माधिकारी) मामले की जांच करते हैं तो उनकी जांच का शक पूर्व आर्मी ऑफिसर वीर सिंह पर जाता है। वीर सिंह एक जासूस के रूप में काम कर चुका है। राज्य में पहले से ही बच्चों के ख़िलाफ़ दुर्दांत अपराधों को देखते हुए वीर सिंह के पकड़े जाने के बाद सियासत गर्मा जाती है। विपक्षी राजनीतिक दल अपना हित साधने की गरज से वीर सिंह को बचाने की ज़िम्मेदारी नामी क्रिमिनल लॉयर सिद्धार्थ जय सिंह (अर्जुन रामपाल) को देता है। इसके बदले में जय सिंह को राज्य सभा सीट ऑफर की जाती है। दूसरी ओर बच्चों की गुमशुदगी और क़त्ल की वारदातों की वजह से जनता के रोष को देखते हुए राज्य सरकार वीर सिंह को कड़ी से कड़ी सज़ा दिलवाने के लिए पब्लिक प्रोसिक्यूटर अमित कुमार (आनंद तिवारी) को केस सौंपता है। मामला जज किशोर भूषण (रजित कपूर) की अदालत में जाता है और फिर दलीलों का सिलसिला शुरू होता है। मारे गये बच्चे के मुंह से मिले त्वचा के टुकड़े की डीएनए सैंम्पिलंग के आधार पर अदालत में यह लगभग तय हो जाता है कि बच्चों का क़त्ल वीर सिंह ने ही किया है। इससे पहले पुलिस वीर सिंह के फार्म हाउस में स्थित तहखाने से बड़ियों में जकड़े एक ज़िंदा बच्चे को बरामद कर चुकी होती है, जिस आधार पर उसे गिरफ़्तार किया गया था।

जिरह के दौरान विभिन्न गवाहों के बयानों के आधार पर वीर सिंह के बारे में कुछ सनसनीखेज़ बातें सामने आती हैं, जो उसके निर्दयी अतीत से जुड़ी होती हैं। यह बात भी सामने आती है कि वो आर्मी का प्रशिक्षित अंडर कवर एजेंट रंजीत रह चुका होता है और अपने मिशन को अंजाम देने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। यह सब बातें वीर सिंह के ख़िलाफ़ जाती हैं। जेल में क़ैदियों के हमले के बाद गंभीर रूप से ज़ख़्मी वीर सिंह को अस्पताल में भर्ती करवा दिया जाता है, जहां उसकी पर्सनैलिटी का एक नया रूप सामने आता है।

वीर ख़ुद को चारू रैना कहने लगता है और उसी तरह व्यवहार करने लगता है। नेल पॉलिश लगाता है। बाल लम्बे करने की ख्वाहिश जताता है। अदालत द्वारा नियुक्त मनोचिकित्सक की जांच में उसे डीआईडी यानि डिसोसिएटिव आइडेंटिटी डिसऑर्डर होने का पता चलता और इस प्रक्रिया में कुछ और चौंकाने वाले खुलासे होते हैं, जो अदालत में वीर सिंह के पक्ष को और कमज़ोर कर देते हैं।

अब अदालत में बहस इस बात पर शुरू होती है कि उनके सामने वीर सिंह है ही नहीं तो केस किसके लिए लड़ा जाए और सज़ा किसे दी जाए? सवाल यह भी है कि वीर सिंह ढोंग कर रहा है या वाकई गंभीर मनोरोग का शिकार है? अंत में जज ऐसा फ़ैसला देते हैं, जिसकी सब तारीफ़ करते हैं।

नेल पॉलिश की कथा और पटकथा इसके निर्देशक बग्स भार्गव कृष्ण ने ही लिखे हैं। कहानी परतदार है और स्क्रीनप्ले के ज़रिए दर्शक को बांधे रखने में सक्षम है, मगर काफ़ी हद तक प्रेडिक्टेबिल भी है। कहानी का सबसे अहम हिस्सा वीर सिंह के अतीत को लेकर होने वाले खुलासे हैं। आगे के दृश्यों के बारे में अंदाज़ा पहले से हो जाता है, मगर इससे फ़िल्म देखने की उत्सुकता कम नहीं होती, क्योंकि इस मोड़ तक आते-आते नेल पॉलिश का थ्रिल दर्शक को अपनी गिरफ़्त में ले चुका होता है।

फिल्म का असली हीरो, हिरोइन या विलेन चाहे जो कहें वीर सिंह यानी मानव कौल है, जिनकी अदाकारी ने रोमांच को एक अलग ही मुकाम दिया है। वीर सिंह के किरदार की बेपरवाही से लेकर कश्मीर में तैनात अंडरकवर एजेंट रंजीत और चारू रैना के रूप में ट्रांसफॉर्मेशन को मानव कौल ने बेहतरीन ढंग से अंजाम दिया है। इस किरदार की अपनी जटिलताएं और भावनात्मक ग्राफ है, जिसमें मानव पूरी शिद्दत से समा जाते हैं। भाव-भंगिमाएं हों या शारीरिक लचक, चारू का किरदार निभाते हुए मानव एक पल के लिए भी भटकते नहीं हैं।

अर्जुन रामपाल ने डिफेंस लॉयर जय सिंह के किरदार को संजीदगी से निभाया है। कोर्ट में बहस के दृश्यों में अर्जुन प्रभाव छोड़ते हैं और वकील के किरदार में सहज लगते हैं। इसका श्रेय निर्देशक बग्स को जाता है, जिन्होंने अपने कलाकारों को बेवजह चिल्लम चिल्ली से दूर रखा है। कोर्ट रूम ड्रामा के दृश्यों में असर उस समय पैदा होता है, जब पक्ष और विपक्ष के वकील बराबर की टक्कर के हों। इस मामले में आनंद तिवारी ने अर्जुन के साथ बेहतरीन जुगलबंदी की है। अक्सर हम हिंदी सिनेमा के जजों को अमूमन ऑर्डर-ऑर्डर करते देखा है, मगर सीमित दायरे में रहकर भी जज की भूमिका में रजित कपूर ने साबित कर दिया की मझा हुआ कलाकार किसी विशेस किरदार का मोहताज नहीं होता। उन्होंने अपने किरदार के साथ स्टैंड लिया है, वे दृश्यों में लगातार इनवॉल्व रहे हैं और अपना प्रभाव छोड़ते हैं।

अब बात करते हैं फिल्म की कमजोरियों पर…

नेल पॉलिश के सहायक कलाकार इसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी दिखाई पड़ते हैं। ऐसा लगता है कि निर्देशक ने इन पर ध्यान दिया ही नहीं है, क्योंकि उनके अभिनय में ग़ैरज़रूरी नाटकीयता नज़र आती है। जज की नशे में डूबी रहने वाली पत्नी का किरदार मधु ने निभाया है। हालांकि, यह किरदार बस खानापूर्ति के लिए है। स्क्रीनप्ले में कुछ चीज़ों को नज़रअंदाज़ भी किया गया है, जिससे बहुत-सी बातें साफ़ नहीं हो पातीं जैसे ; राजनीतिक उठा-पटक की साजिशों को बस संवादों और फोन कॉल के ज़रिए दिखाया जाना। अर्जुन रामपाल का किरदार जय सिंह अपने पिता से इतनी नफ़रत करता है कि डार्ट गेम खेलते हुए लक्ष्य के तौर पर उनकी फोटो इस्तेमाल करता है, मगर ऐसा क्यों? हालांकि, एक-दो संवादों के ज़रिए बताने की कोशिश की गयी है कि वीर सिंह को शायद उनके तौर-तरीके पसंद नहीं आते होंगे।

फ़िल्म के तीनों मुख्य किरदारों वीर सिंह, जज भूषण और पब्लिक प्रोसिक्यूटर अमित की निजी ज़िंदगी के दृश्य बिल्कुल निष्प्रभावी हैं। ऐसा क्यूं है?? बस इसका अंदाजा लगाया जा सकता है कि निर्देशक बग्स भार्गव कृष्ण ने स्क्रीनप्ले की एकरसता तोड़ने के लिए महज़ औपचारिकता के तौर पर इस्तेमाल किया होगा। ये दृश्य ना भी होते तो नेल पॉलिश की कहानी पर कोई फर्क नहीं पड़ता।

दूसरी बात कि फ़िल्म की प्रोडक्शन क्वालिटी प्रभावशाली नज़र नहीं आती, जिसकी जिम्मेदारी जहांआरा भार्गव, धीरज विनोद आदि के पास था। ख़ासकर, जेल और कोर्ट के सेटों की बनावट और साज-सज्जा में कृत्रिमता साफ झलकती है। लेकिन निर्माता की कमियों को निर्देशक ने ट्विस्ट और टर्न्स के जरिए ढंक दिया है, अतः इन्हें नज़रअंदाज़ किया जा सकता है।

अब आप पूछेंगे कि क्या यह फिल्म देखनी चाहिए या नहीं तो मैं यही कहूंगा कि थ्रिलर फ़िल्मों के शौकीनों को नेल पॉलिश जरूर देखनी चाहिए। और बाकी के दर्शकों को ना देखने के लिए मैं कह ही नहीं सकता। क्यूंकि मैं अपनी तरफ से इस फिल्म को पांच में से साढ़े तीन अंक तो आसानी से दे सकता हूं।

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