April 26, 2024

ओशो, भगवान श्री रजनीश, ओशो रजनीश या सिर्फ रजनीश आप जिस भी नाम से उन्हें जानते हों, मगर आप यह नहीं जानते होंगे कि ये सभी नाम उनके मूल नाम नहीं है। उनका मूल नाम चंद्र मोहन जैन है। वे एक भारतीय विचारक, धर्मगुरु और रजनीश आंदोलन के प्रणेता थे। आचार्य रजनीश को इस दुनिया में हर एक व्यक्ति अपनी अपनी नजरों से देखता है, जैसे वे किसी के लिए एक विवादास्पद रहस्यदर्शी हैं तो किसी के लिए गुरु और किसी के लिए आध्यात्मिक शिक्षक हैं।

परिचय…

चन्द्र मोहन जैन का जन्म ११ दिसम्बर, १९३१ को मध्यप्रदेश के रायसेन अंतर्गत कुच्वाडा नामक एक छोटे से गांव के रहने श्री बाबूलाल और श्रीमती सरस्वती जैन के यहां हुआ था। वे ग्यारह भाई बहनों में सबसे बड़े थे। उनका परिवार तेैरापंथी दिगंबर जैन था। उन्हें ननिहाल में ७ वर्ष की उम्र तक रखा गया था। ओशो के अनुसार उनके विकास में इसका प्रमुख योगदान रहा क्योंकि उनकी नानी ने उन्हें संपूर्ण स्वतंत्रता, उन्मुक्तता तथा रुढ़िवादी शिक्षाओं से दूर रखा। जब वे ७ वर्ष के थे, तब उनके नाना का निधन हो गया और वे गाडरवारा अपने माता पिता के पास वापस रहने चले आए। रजनीश बचपन से ही गंभीर व सरल स्वभाव के थे। उनकी शिक्षा शासकीय आदर्श उच्चतर माध्यमिक विद्यालय से हुई। वे बचपन से ही बगावती विचारधारा के थे। जिसे परंपरागत तरीके नहीं भाते थे। किशोरावस्था तक आते-आते रजनीश नास्तिक बन चुके थे। उन्हें ईश्वर और आस्तिकता में जरा भी विश्वास नहीं था। अपने विद्यार्थी काल में उन्होंने ने एक कुशल वक्ता और तर्कवादी के रूप में अपनी पहचान बना ली थी। किशोरावस्था में वे आज़ाद हिंद फ़ौज और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में भी क्षणिक काल के लिए शामिल भी हुए थे।

व्यापक जीवन…

वर्ष १९५७ में दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक के तौर पर रजनीश रायपुर विश्वविद्यालय से जुड़े। लेकिन उनके गैर परंपरागत धारणाओं और जीवनयापन करने के तरीके को छात्रों के नैतिक आचरण के लिए घातक समझते हुए विश्वविद्यालय के कुलपति ने उनका स्थानांतरण कर दिया। अगले ही वर्ष वे दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक के रूप में जबलपुर विश्वविद्यालय में शामिल हुए। इस दौरान उन्होंने भारत के कोने-कोने में जाकर गांधीवाद और समाजवाद पर भाषण दिया। ये सारे कार्य उन्होंने आचार्य रजनीश के नाम से ही किया था, अतः यही नाम उनकी पहचान बन गई थी। उनके द्वारा समाजवाद, महात्मा गाँधी की विचारधारा तथा संस्थागत धर्म पर की गई अलोचनाओं ने उन्हें विवादास्पद बना दिया। वे मानव कामुकता के प्रति स्वतंत्र दृष्टिकोण रखते थे। जिसकी वजह से उन्हें भारतीय और फिर विदेशी पत्रिकाओ में ‘सेक्स गुरु’के नाम से संबोधित किया गया।

नव संन्यास…

वर्ष १९७० में ओशो कुछ समय के लिए मुंबई में रुके और उन्होने अपने शिष्यों को नव संन्यास में दीक्षित किया और अध्यात्मिक मार्गदर्शक की तरह कार्य प्रारंभ किया। उनके विचारों के अनुसार, अपनी देशनाओं में वे सम्पूूूर्ण विश्व के रहस्यवादियों, दार्शनिकों और धार्मिक विचारधारों को नवीन अर्थ दिया करते थे। वर्ष १९७४ में पुणे आने के बाद उन्होनें अपने आश्रम की स्थापना की जिसके बाद विदेशियों की संख्या बढ़ने लगी, जिसे आज ओशो इंटरनॅशनल मेडिटेशन रेसॉर्ट के नाम से जाना जाता है। तत्कालीन जनता पार्टी सरकार के साथ मतभेद के बाद वर्ष १९८० में ओशो अमेरिका चले गए और वहां ओरेगॉन, संयुक्त राज्य की वास्को काउंटी में रजनीशपुरम की स्थापना की। वर्ष १९८५ में इस आश्रम में सामुहिक फ़ूड पॉइज़निंग की एक घटना घटित हुई, जिसकी वजह से उन्हें संयुक्त राज्य से निर्वासित कर दिया गया।

ओशो…

अब आते हैं ओशो की परिभाषा पर, वैसे तो ओशो शब्द की मूल उत्पत्ति के सम्बन्ध में कई धारणायें हैं, मगर एक मान्यता के अनुसार, जिसे स्वयं ओशो ने कहा है, ‘ओशो शब्द कवि विलयम जेम्स की एक कविता “ओशनिक एक्सपीरियंस” के शब्द ‘ओशनिक’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है ‘सागर में विलीन हो जाना। शब्द ‘ओशनिक’ अनुभव का वर्णन करता है। लेकिन अनुभवकर्ता के बारे में क्या? इसके लिए हम ‘ओशो’ शब्द का प्रयोग करते हैं। अर्थात, ओशो मतलब – ‘सागर से एक हो जाने का अनुभव करने वाला’।

वर्ष १९६० के दशक में वे ‘आचार्य रजनीश’ के नाम से एवं १९७०-८० के दशक में भगवान श्री रजनीश नाम से और १९८९ के समय से ओशो के नाम से पहचाने जाने लगे। वे एक आध्यात्मिक गुरु थे। रजनीश ने अपने विचारों का प्रचार करना मुम्बई में शुरू किया, जिसके बाद उन्होंने पुणे में अपना एक आश्रम स्थापित किया, जिसमें विभिन्न प्रकार के उपचारविधान पेश किये जाते थे। तत्कालीन भारत सरकार से कुछ मतभेद के बाद उन्होंने अपने आश्रम को ऑरगन, अमरीका में स्थानांतरण कर लिया। वर्ष १९८५ में एक खाद्य सम्बंधित दुर्घटना के बाद उन्हें संयुक्त राज्य से निर्वासित कर दिया गया और २१ अन्य देशों से ठुकराया जाने के बाद वे वापस भारत लौटे और पुणे स्थित अपने आश्रम में अपने जीवन के अंतिम दिनों को बिताया।

मृत्यु…

ओशो की मृत्यु १९ जनवरी, १९९० को मात्र ५८ वर्ष की आयु में ही पुणे स्थित उनके आश्रम में हुई। मौत का आधिकारिक कारण हृदय गति रुकना बताया जाता है, परंतु उनके कम्यून द्वारा जारी एक बयान में कहा गया है कि अमेरिकी जेलों में कथित जहर देने के बाद “शरीर में रहना नरक बन गया था” इसलिए उनकी मृत्यु हो गई। उनकी राख को पुणे के आश्रम में लाओ त्ज़ु हाउस में उनके नवनिर्मित बेडरूम में रखा गया था। ओशो की समाधि पर स्मृतिलेख है, ‘न जन्में न मरे – सिर्फ ११ दिसंबर, १९३१ और १९ जनवरी, १९९० के बीच इस ग्रह पृथ्वी का दौरा किया’।

अपनी बात…

ओशो की मौत पर ‘हू किल्ड ओशो’ टाइटल से क़िताब लिखने वाले अभय वैद्य का कहते हैं, ‘१९ जनवरी, १९९० को ओशो आश्रम से डॉक्टर गोकुल गोकाणी को फोन आया। उनको कहा गया कि आपका लेटर हेड और इमरजेंसी किट लेकर आएं।” डॉक्टर गोकुल गोकाणी ने अपने हलफनामे में लिखा है, “वहां मैं करीब दो बजे पहुंचा। उनके शिष्यों ने बताया कि ओशो देह त्याग कर रहे हैं। आप उन्हें बचा लीजिए। लेकिन मुझे उनके पास जाने नहीं दिया गया। कई घंटों तक आश्रम में टहलते रहने के बाद मुझे उनकी मौत की जानकारी दी गई और कहा गया कि डेथ सर्टिफिकेट जारी कर दें।” डॉक्टर गोकुल ओशो की मौत की टाइमिंग को लेकर भी सवाल खड़े करते हैं। डॉक्टर ने अपने हलफ़नामे में ये भी दावा किया है कि ओशो के शिष्यों ने उन्हें मौत की वजह दिल का दौरा लिखने के लिए दबाव डाला था। ओशो के आश्रम में किसी संन्यासी की मृत्यु को उत्सव की तरह मनाने का रिवाज़ था। लेकिन जब खुद ओशो की मौत हुई तो इसकी घोषणा के एक घंटे के भीतर ही उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया और उनके निर्वाण का उत्सव भी संक्षिप्त रखा गया था। ओशो की मां भी उनके आश्रम में ही रहती थीं। ओशो की सचिव रहीं नीलम ने बाद में एक इंटरव्यू में उनकी मौत से जुड़े रहस्यों पर कहा था कि ओशो के निधन की सूचना उनकी मां को भी देर से दी गई थी। नीलम ने इस इंटरव्यू में ये दावा किया था कि ओशो की मां लंबे समय तक ये कहती रहीं कि बेटा उन्होंने तुम्हें मार डाला।

ओशो की मृत्यु अभी भी एक रहस्य बनी हुई है और जनवरी २०१९ में ‘द क्विंट’ के एक लेख में कुछ प्रमुख प्रश्न पूछे गए हैं जैसे “क्या ओशो की हत्या पैसे के लिए की गई थी? क्या उनकी वसीयत नकली है? क्या विदेशी भारत के खजाने को लूट रहे हैं?”

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