October 12, 2024

छोटा सा नन्हा सा

वो पोस्टकार्ड

ना जाने कहां खो गया

या फिर बच्चों की भांति

बड़ा हो कहीं निकल गया

बड़ी नीली चिट्ठी की तरह ही

वह भी कुशलता की 

कामना करता था,

चरणों को स्पर्श भी करता था।

वह भी बहुत बातें करता था,

मगर थोड़े से ही शब्दों में

जैसे उसके पास शब्द नहीं होते

जैसे जिंदगी के अनुभव नहीं होते

मगर वह कभी कभी

माई की तबियत का हाल बताता

कभी वह बापू के फसलों का

आनंद मनाता

कभी वह बचपन की

सखी की याद दिलाता

कभी पत्नी की 

विवशताओं को दर्शाता

कितना कुछ लिखा होता था

इस छोटे से कार्ड में

जिसे प्रेमिका कभी सीने से लगाए

छुप छुप आंसू बहाया करती थी

वह कभी मुन्ने के जन्म की

खुशियां लाता, तो

कभी दादा के गुजरने का

पहाड़ गिराता।

पोस्टकार्ड हर घर में

बच्चे की तरह ही तो था

मां के आंखों का तारा तो

बापू के बुढ़ापे का सहारा था।

वह जब आता तो

मुनिया चहकती जैसे

उसका भैया आ गया।

मगर आज हर हांथ में

मोबाइल है, फिर भी 

ना तो भैया को

उसकी याद आती है

ना उसकी कोई खबर

उसे चहकाती है।

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