October 12, 2024

मराठा साम्राज्य के प्रथम पेशवा मोरोपंत त्र्यंबक पिंगले के बाद उनके बड़े पुत्र नीलकंठ मोरेश्वर पिंगले मराठा साम्राज्य के दूसरे पेशवा बने। उनका कार्यकाल ज्यादा बड़ा नहीं रहा, वे अपने पिता के १६८३ में मरणोपरांत पद पर आसीन हुए और १६८९ में, छत्रपति संभाजी राजे के साथ मारे गए। द्वितीय पेशवा के मारे जाने पर वर्ष १६८९ में रामचंद्र पंत अमात्य (बावड़ेकर) मराठा साम्राज्य के तीसरे पेशवा बने।

परिचय…

रामचंद्र अमात्य ने वर्ष १६९० और १६९४ के मध्य मुगलों से अपने कई किलों पर एक बार फिर से कब्जा कर लिया तथा उन्होंने व्यक्तिगत रूप से गुरिल्ला युद्ध तकनीकों का संचालन भी किया। जब छत्रपति राजाराम १६८९ में जिंजी भाग गए, तो उन्होंने महाराष्ट्र से जाने से पूर्व पंत को “हुकुमत पन्हा” यानी राजा का दर्जा दिया। जिसके बाद रामचंद्र पंत ने बड़ी कुशलता से मुगलों की आमद, सामंती प्रमुखों के विश्वासघात और भोजन की कमी जैसी कई भीषण चुनौतियों में राज्य का प्रबंधन किया। उनकी मदद से, सचिन ने मराठा राज्य को एक मजबूत आर्थिक स्थिति में रखा।

जीवनी…

रामचंद्र पंत का जन्म वर्ष १६५० में एक देशस्थ ब्राह्मण नीलकंठ सोंदेव बहुतकर (जो नीलो सोंदेव के नाम से अधिक जाने जाते हैं) के यहां हुआ था, वे नीलो सोंदेव के सबसे छोटे पुत्र थे। वे शिवाजी का दरबार में स्थानीय राजस्व संग्रह पद (कुलकर्णी) से मंत्री के पद तक पहुंचे थे।

उनका परिवार कल्याण भिवंडी के नजदीक एक कोलवां नामक गांव से आया था। रामचंद्र पंत के दादा सोनोपंत और चाचा अबाजी सोंदेव शिवाजी के बेहद करीबी थे। करीबी होने की का मुख्य वजह शिवाजी के आध्यात्मिक गुरु समर्थ रामदास जी थे, शिवाजी की तरह उनके परिवार के भी वे आध्यात्मिक गुरु थे। जानकारी के लिए बताते चलें कि समर्थ रामदास ने ही नवजात बच्चे का नाम रामचंद्र रखा था।

प्राथमिक कार्य एवम पद…

रामचंद्र पंत वर्ष १६७२ से पूर्व में शिवाजी के विभिन्न प्रशासनिक कार्यों में लिपिक के पद पर रहे थे। वर्ष १६७२ में, उन्हें और उनके बड़े भाई नारायण पंत को शिवाजी ने मुजुमदार (राजस्व मंत्री) के पद पर पदोन्नत किया। वर्ष १६७४ को शिवाजी के राज्याभिषेक समारोह में मुजुमदार के पद का नाम बदलकर अमात्य कर दिया गया और यह पद सिर्फ रामचंद्र पंत को दिया गया। उन्होंने इस पद पर वर्ष १६७८ तक काम किया। उसके बाद शिवाजी महाराज जब बीमारी की अवस्था में मृत्यु शय्या पर पड़े तो उन्होंने रामचंद्र पंत को मराठा साम्राज्य के छह स्तंभों में से एक के रूप में नामित कर दिया। उनका यह मानना था कि यही वह व्यक्ति है, जो कठिन वक्त आने पर राज्य को बचाएगा।

वर्ष १६८० में शिवाजी की मृत्यु हो गई। उसके बाद, संभाजी महाराज मराठा साम्राज्य के शासक बने। उन्होंने भी अपने पिता महाराज की तरह रामचंद्र पंत को उनके विभिन्न पदों पर अपना प्रशासन जारी रखने का अधिकार दिया। रामचंद्र पंत ही वह व्यक्ति थे, जो औरंगजेब के विद्रोही पुत्र शहजादा अकबर के पास बात करने के लिए गए थे। वर्ष १६८५ में वे एक संवेदनशील वार्ता के लिए दूत बनकर विजापुर गए थे।

स्वतंत्रता की लड़ाई…

संभाजी के दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु के बाद मराठा साम्राज्य बहुत ही कठिन दौर में आ गया था। औरंगजेब ने किसी भी कीमत पर मराठा साम्राज्य को हराने का प्रण लिया था और इसी मकसद से उसने एक विशाल सेना के साथ मराठों के कई किलों पर हमला किया। पूरे मराठा साम्राज्य में मातम छा गया। ऐसी स्थिति में रामचंद्र पंत अमात्य उठ खड़े हुए और बहुत धैर्य से काम लिया। यह मराठा साम्राज्य के स्वतंत्रता संग्राम का युग था। रामचंद्र पंत अमात्य ने शाही परिवार और मराठा साम्राज्य को सुरक्षित रखने और संकट के समय के संघर्ष को सहने के लिए वह सब कुछ किया जो उस समय वे कर सकते थे। उनके साथ उस समय संताजी घोरपड़े, धनाजी जाधव, परशुरामपंत थे।

वर्ष १६९७ में छत्रपति राजाराम महाराज का प्रवास समाप्त हुआ। वे वापस लौट आए। परंतु वर्ष १७०० में राजाराम की मृत्यु हो गई और फिर एक बार मराठा साम्राज्य संकट में आ गया। पुनः एक बार रामचंद्र पंत अमात्य पर मराठा साम्राज्य को संकट से बचाने की जिम्मेदारी आ गई और पूर्व की भांति इस बार भी वे सफल रहे।

राजाराम की मृत्यु के बाद औरंगजेब ने और भी अधिक बल से आक्रमण करना शुरू कर दिया। उसने सोचा कि अब, वह आसानी से मराठा साम्राज्य को हरा सकता है क्योंकि कोई राजा नहीं था। उसने पूरे साम्राज्य पर अधिकार करने की योजना बनाई। लेकिन वह गलत था, क्योंकि इस बार भी रामचंद्र पंत और उनके साथी धनाजी जाधव, परशुराम पंत प्रतिनिधि ने हजारों सैनिकों के साथ साम्राज्य की रक्षा करने का संकल्प लिया। उन्होंने औरंगजेब के साथ लगातार सात वर्षो तक यानी १७०० से १७०७ तक, तब तक लड़ाई लड़ी जब तक अहमदनगर में औरंगजेब की मृत्यु नहीं हो गई। यह महारानी ताराबाई के नेतृत्व और रामचंद्र पंत के ज्ञान का दौर था।

महारानी ताराबाई अपने पुत्र शिवाजी द्वितीय को मराठा सिंहासन पर बिठाना चाहती थीं, परंतु रामचंद्र पंत राजकुमार शाहू के लौटने की प्रतीक्षा करना चाहते थे। परंतु उन्होंने चुप रहकर सिंहासन के प्रति वफादार रहने का फैसला किया। महारानी ताराबाई रामचंद्र पंत की क्षमताओं और गुणों के बारे में भली भांति परिचित थीं, वे यह जानती थी कि संकट की हर घड़ी में वह पहाड़ की तरह मराठा सिंहासन के पीछे खड़ा रहता है। एक बार ताराबाई ने अपने पुत्र भगवंतराव को लिखे एक पत्र में उनकी महानता को स्वीकार भी किया था। वह कहती हैं, “रामचंद्र पंत ने बड़ी निष्ठा के साथ मराठा साम्राज्य की सेवा की। उन्होंने लगभग समाप्त हो चुके स्वराज्य को बहाल किया और अपने लिए एक बड़ा नाम बनाया”।

विशेष…

रामचंद्र पंत अमात्य एकमात्र व्यक्ति थे, जिन्होंने लगातार ५ छत्रपति के अधीन मराठा साम्राज्य की सेवा की। शिवाजी के राज्याभिषेक के दौरान से लेकर संभाजी महाराज, राजाराम, महारानी ताराबाई और कोल्हापुर के पहले शासक राजर्षि शाहू महाराज तक उन्होंने अपनी सेवा दी।

और अंत में…

ऐसा कहा जाता है कि रामचंद्र पंत अमात्य रक्तहीन तख्तापलट के पीछे थे जिसके कारण राजसबाई के पुत्र संभाजी को वर्ष १७१३-१७१४ में छत्रपति के रूप में ताज पहनाया गया था। उन्होंने महसूस किया कि यह आवश्यक है क्योंकि कोल्हापुर साम्राज्य एक अलग रास्ते की ओर बढ़ रहा था। ऐसा लगता है कि इस तख्तापलट के पीछे कोई गुप्त मकसद नहीं है। उन्होंने संभाजी को छत्रपति के रूप में ताज पहनाया और जल्द ही पृष्ठभूमि में चले गए। चूंकि संभाजी केवल १६-१७ वर्ष के थे, वे स्वाभाविक रूप से रामचंद्र पंत अमात्य को मार्गदर्शन के लिए देखते थे। कुछ ही समय बाद यानी फरवरी, १७१६ को रामचंद्र पंत अमात्य की मृत्यु हो गई।

उनकी मृत्यु के बाद प्रथम पेशवा मोरोपंत त्र्यंबक पिंगले के पुत्र तथा द्वितीय पेशवा नीलकंठ मोरेश्वर पिंगले के छोटे भाई बहिरोजी पिंगले उर्फ भैरोंजी पंत पिंगले चौथे पेशवा बने, इनका भी कार्यकाल अपने बड़े भाई द्वितीय पेशवा नीलकंठ मोरेश्वर पिंगले की तरह लंबा नहीं रहा और ना तो इनके कार्यकाल में इनके द्वारा ऐसी कोई बड़ी बात हुई, जो इतिहास में याद करने लायक रहा हो। हां एक घटना वर्ष १७११ की है, कान्होजी आंग्रे ने सतारा पर हमला कर बहिरोजी को बंदी बना लिया। इसके तुरंत बाद शाहूजी प्रथम ने बालाजी विश्वनाथ को उनकी रिहाई सुनिश्चित करने का आदेश दिया। इसके लिए उन्होंने बालाजी विश्वनाथ को पेशवाई का आंसिक रूप में अधिकार भी दिया, ताकि वह राजा की ओर से कान्होजी आंग्रे से बातचीत कर सकें। बहिरोजी पिंगले वर्ष १७०८ से वर्ष १७११ तक पद पर रहे। उनके बाद परशुराम त्र्यंबक कुलकर्णी पांचवे पेशवा के पद पर आसीन हुए।

परशुराम त्र्यंबक कुलकर्णी (१७११–१७१३)

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