April 28, 2024

गुरदयाल सिंह

गुरदयाल सिंह एक प्रसिद्ध पंजाबी साहित्यकार थे। उन्हें १९९९ में ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया था। अमृता प्रीतम के बाद गुरदयाल सिंह दूसरे पंजाबी साहित्यकार थे, जिन्हें ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ दिया गया था। गुरदयाल सिंह आम आदमी की बात कहने वाले पंजाबी भाषा के विख्यात कथाकार रहे। कई प्रसिद्ध लेखकों की तरह उपन्यासकार के रूप में उनकी उपलब्धि को भी उनके आरंभिक जीवन के अनुभवों के संदर्भ में देखा जा सकता है।

 

जीवन परिचय…

गुरदयाल सिंह का जन्म १० जनवरी, १९३३ को पंजाब के जैतो में हुआ। १२-१३ वर्ष की आयु में, जब वह कुछ सोचने-समझने लायक़ हो रहे थे, पारिवारिक परिस्थितियों के कारण उन्हें स्कूल छोड़ना पड़ा, ताकि बढ़ई के धंधे में वह अपने पिता की मदद कर सकें। गुरदयाल का जीवन केवल शारीरिक मेहनत तक सिमट गया, जिसमें कोई बौद्धिक या आध्यात्मिक तत्त्व नहीं था। स्कूल छोड़ देने के बाद भी उन्होंने अपने स्कूल ले प्रधानाध्यापक से संपर्क बनाए रखा, जिन्होंने गुरदयाल की प्रतिभा को पहचाना और अपना अध्ययन निजी तौर पर जारी रखने के लिए प्रोत्साहित किया। गुरदयाल ने स्कूल छोड़ने के लगभग १० वर्ष बाद स्वतंत्र छात्र के रूप में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। उनके हितैषी प्रधानाध्यापक ने एक सरकारी प्राइमरी स्कूल में अध्यापक की नौकरी दिलाने में भी उनकी मदद की।

 

लेखन शैली…

१९६६ में उनका पहला उपन्यास “मढ़ी दा दीवा” प्रकाशित हुआ, जिसमें एक दलित और एक विवाहित जाट महिला के मौन प्रेम की नाटकीय प्रस्तुति थी। यह दुखांत प्रेम कहानी इतनी सहजता और सरलता से अभिव्यक्त की गई कि पाठक कथाशिल्प पर उनकी अद्भुत पकड़ और अपने पात्रों व सामाजिक परिवेश की उनकी गहरी समझ से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। इसमें दलित वर्ग की ग़रीबी और उनके भावात्मक असंतोष का वर्णन अत्यंत सहजता से किया गया। इसी कारण पूरे लेखकीय जीवन में उन्हें मित्रहीन के मित्र की तरह जाना जाता रहा है। कथाकार के रूप में उनका शिल्प इतना समर्थ है कि अपनी महत्त्वपूर्ण कृति “परसा” में उन्होंने अपने नायक के जीवन के अप्रत्याशित उतार – चढ़ावों का विस्तृत और सफलतापूर्णक निरूपण किया है। इस उपन्यास के नायक के तीन बेटे हैं। पहला खेल प्रशिक्षक है, जो इंग्लैंड में जाकर बस जाता है, दूसरा पुलिस अधिकारी है, जिसकी जीवन शैली अपने पिता के जीवन से बिल्कुल अलग है, तीसरा बेटा नक्सली हो जाता है और एक पुलिस मुठभेड़ में मारा जाता है। परसा आधुनिक भारतीय कथा साहित्य के एक अविस्मरणीय चरित्र की तरह अपनी छाप छोड़ता है। अपने आसपास के यथार्थ को प्रमाणिकता और विलक्षण कलात्मकता के साथ प्रस्तुत करना गुरदयाल सिंह की विशिष्टता है और यहीं उनके सभी उपन्यासों को अद्भुत रूप से पठनीय बनाती है।

 

प्रमुख कृतियाँ…

उपन्यास…

१. मढ़ी दा दीवा (१९६४)

२. अणहोए (१९६६)

३. रेत दी इक्क मुट्ठी (१९६७)

४. कुवेला (१९६८)

५. अध चानणी रात (१९७२)

 

कहानी…

१. सग्गी फुल्ल (१९६२)

२. चान्न दा बूटा (१९६४)

३. रूखे मिस्से बंदे (१९८४)

४. बेगाना पिंड (१९८५)

५. करीर दी ढींगरी (१९९१)

 

नाटक…

१. फरीदा रातीं वड्डीयां (१९८२)

२. विदायगी दे पिच्छीं (१९८२)

३. निक्की मोटी गल (१९८२)

गद्य– लेखक दा अनुभव ते सिरजन परकिरिया।

 

सम्मान एवं पुरस्कार…

१. साहित्य अकादमी पुरस्कार (१९७५)

२. पंजाब साहित्य अकादमी पुरस्कार (१९८९)

३. सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार (१९८६)

४. शिरोमणि साहित्यकार पुरस्कार (१९९२)

५. पद्मश्री (१९९८)

६. ज्ञानपीठ पुरस्कार (१९९९)

 

मृत्यु…

प्रसिद्ध पंजाबी साहित्यकार गुरदयाल सिंह का निधन १६ अगस्त, २०१६ को भटिण्डा, पंजाब में हुआ।

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