May 5, 2024

कश्मीर घाटी से हिंदूओं के पलायन की घटना कोई आकस्मिक नहीं थी। इसकी कहानी वर्ष १९६५ से शुरू हुई थी, जब भारत और पाकिस्तान का युद्ध चल रहा था। आपकी जानकारी के लिए यहां बताते चलें कि १९६५ का युद्ध जम्मू कश्मीर को पूरी तरह से पाकिस्तान में मिलाने के लिए लड़ा गया था, परंतु पाकिस्तान का यह उद्धेश्य सफल नहीं हो सका था। भारत स्वभावतहः इस युद्ध को भूल कर आगे निकल गया, मगर पाकिस्तान वहीं ठहरा रहा। उसे अपने उद्देश्य की प्राप्ति करनी थी, इसके लिए वह षडयंत्र रचने में लग गया…

षडयंत्र…

पाकिस्तान अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अगस्त १९६५ में अमानुल्लाह खान और मकबूल बट के नेतृत्व में अधिक्रांत जम्मू कश्मीर में ‘नेशनल लिबरेशन फ्रंट’ नामक अलगाववादी आतंकी संगठन बनवाया। सर्वप्रथम पाकिस्तान ने इस संगठन के माध्यम से जून १९६६ में मकबूल बट को पूर्ण ट्रेनिंग देकर नियन्त्रण रेखा के इस पार भेज दिया।

उत्पात…

मकबूल बट ने भारतीय क्षेत्र में प्रवेश करने के ठीक छः सप्ताह के बाद ही पुलिस से हुई एक मुठभेड़ में सीआईडी सब इंस्पेक्टर अमर चंद की हत्या कर दी, मगर वह पकड़ा गया। दो वर्ष बाद यानी अगस्त १९६८ को मकबूल बट को तत्कालीन सेशन जज नीलकंठ गंजू ने फांसी की सजा सुना दी। परंतु दिसम्बर में ही मकबूल बट अपने एक साथी के साथ जेल तोड़कर नियन्त्रण रेखा के उस पार भाग गया। परंतु वह वर्ष १९७६ में वापस लौट आया। आते ही उसने फिर से उत्पात मचाना शुरू कर दिया। इस बार उसने कुपवाड़ा के एक बैंक लुटने का प्रयास किया मगर इस बार भी वह पकड़ा गया। परंतु पकड़े जाने से पूर्व उसने बैंक मैनेजर की हत्या कर दी, जिसके लिए उसे एक बार फिर से फांसी की सजा सुनाई गई। उसने अपने इस उत्पात के दौरान कुछ और साथी बना लिए थे, जो मकबूल बट के पकड़े जाने के बाद इंग्लैंड चले गये।

जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट की स्थापना…

वर्ष १९७७ में उन्होंने इंग्लैंड में ‘जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट’ नामक एक संगठन बनाया। इसी संगठन से संबद्ध नेशनल लिबरेशन आर्मी’ ने मकबूल बट को जेल से छुड़ाने के लिए फरवरी १९८४ को भारतीय उच्चायुक्त रवीन्द्र म्हात्रे का अपहरण कर उनकी हत्या कर दी। उस समय देश में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार थी। रवीन्द्र म्हात्रे का अपहरण और फिर उनकी हत्या सरकार के लिए एक बड़ा तमाचा था। अतः सरकार के तत्काल निर्णय पर मकबूल बट को तिहाड़ जेल में फांसी दे दी।

फांसी का प्रभाव…

जैसा कि अखबारों आदि के माध्यम से पता चलता है कि मकबूल बट की फांसी से उन दिनों कश्मीर घाटी में रह रहे लोगों पर इसका कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा था। यह देख ‘जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट’ को यह एहसास हुआ कि संगठन को बने भले ही दस साल हो गए हों परंतु अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए घाटी के लोगों में अपनी पैठ बनानी बहुत जरूरी है। और उसके लिए वहां राजनैतिक ताकत को बढ़ाना बेहद जरूरी है।

राजनीतिक पृष्ठभूमि…

मकबूल बट को फांसी दिए जाने के दो वर्ष पश्चात् यानी वर्ष १९८६ में फारुख अब्दुल्लाह को हटाकर गुलाम मोहम्मद शाह जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री बना दिए गए। शाह ने आते ही अलगाववादियों के सुर में सुर मिलाने शुरू कर दिए। उसने सर्वप्रथम जम्मू स्थित न्यू सिविल सेक्रेटेरिएट एरिया में एक प्राचीन मन्दिर परिसर के भीतर ही मस्जिद बनाने की अनुमति दे दी। उसके लिए उसने यह कहा कि मुस्लिम कर्मचारी आखिर नमाज अदा करने कहां जायेंगे। इस विचित्र निर्णय के विरुद्ध जम्मू के लोग सड़क पर उतर आये। शाह अपने षडयंत्र में सफल रहा उसने लोगों के हुजूम को दंगे में परिवर्तित कर दिया। हिंदू मंदिर में मस्जिद बनने से नाराज थे और उसने मुसलमानों को यह कह कर भड़का दिया कि हिंदू समाज मस्जिद बनने के विरुद्ध है, उस पवित्र जगह को वह तोड़ना चाहती है। जिसके फलस्वरूप दंगे भड़क गये। अनंतनाग में हिंदुओं पर भीषण अत्याचार हुआ, उन्हें बेरहमी से मारा गया, महिलाओं से बलात्कार किया गया और उनके संपत्ति व मकान को तोड़ डाला गया। वर्ष १९८७ से जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट की गतिविधियों में तेजी आने लगी। अब हिंदू और मुसलमान एक दूसरे को शक की निगाह से देखने लगे थे। यह अलगाववादियों के लिए अच्छा मौका था, उसके दुष्प्रचार मशीनरी ने एक सुनियोजित तरीके से हिंदुओं के विरुद्ध वैमनस्यता फैलाना शुरू कर दिया।

शहादत दिवस…

मुसलमानों के मन में इतनी वैमनस्यता भर गई थी कि, जिस मकबूल बट को १९८४ के वर्ष में कोई जानता नहीं था, फरवरी १९८९ में उस आतंकवादी के लिए ‘शहादत दिवस’ मनाने के लिए लोग आतुर हो गए थे। परिणामस्वरूप १३ फरवरी को श्रीनगर में एक बार फिर से दंगे हुए जिसमें कश्मीरी हिंदुओं को बेरहमी से हत्या की गई।

जस्टिस नीलकंठ गंजू की हत्या…

पं टपलू की हत्या (पं टपलू की हत्या के बारे में, हमने अपने पिछले आलेख में लिखा है) के बाद यानी तकरीबन दो माह के अंदर जस्टिस नीलकंठ गंजू की भी हत्या कर दी गयी। वही पं० नीलकंठ गंजू, जिन्होंने मकबूल बट को फांसी की सजा सुनाई थी। वे अब हाई कोर्ट के जज बन चुके थे। वे ४ नवंबर, १९८९ को दिल्ली से लौटे थे और उसी दिन श्रीनगर के हरि सिंह हाई स्ट्रीट मार्केट के समीप स्थित उच्च न्यायालय के पास ही आतंकवादियों ने उन्हें गोली मार दी। आतंकवादियों ने जस्टिस गंजू की हत्या कर, मकबूल बट के फांसी का प्रतिशोध लिया था। इतना ही नहीं वहां के मस्जिदों से लगते नारों ने कश्मीर के लोगों को यह भी बताया कि ‘ज़लज़ला आ गया है कुफ़्र के मैदान में, लो मुजाहिद आ गये हैं मैदान में’। अर्थात अब अलगाववादियों के अंदर भारतीय न्याय, शासन और दंड प्रणाली का भय नहीं रह गया था। बाकी आगे के नरसंहार की कहानी आप सभी भली भांति जानते हैं।

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