November 24, 2024

आप ने दादा साहब फाल्के पुरस्कार का नाम तो सुना ही होगा, जो भारत सरकार की ओर से दिया जाने वाला वार्षिक पुरस्कार है। यह पुरस्कार किसी व्यक्ति विशेष को भारतीय सिनेमा में उसके आजीवन योगदान के लिए दिया जाता है। इस पुरस्कार का प्रारम्भ दादा साहब फाल्के के जन्म शताब्दि-वर्ष 1969 से हुआ। उस वर्ष राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार के लिए आयोजित १७वें समारोह में पहली बार यह सम्मान अभिनेत्री देविका रानी को प्रदान किया गया। तब से अब तक यह पुरस्कार लक्षित वर्ष के अंत में अथवा अगले वर्ष के आरम्भ में ‘राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार’ के लिए आयोजित समारोह में प्रदान किया जाता है। वर्तमान में इस पुरस्कार में १० लाख रुपये और स्वर्ण कमल दिये जाते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं की दादा साहब फाल्के कौन थे, अगर नहीं तो आईए आज के दिन हम उनका परिचय आप से करवा देते हैं…

धुंडिराज गोविन्द फालके यानी दादासाहब फालके वह महापुरुष हैं, जिन्हें भारतीय फिल्म उद्योग का ‘पितामह’ कहा जाता है।इनका जन्म ३० अप्रैल, १८७० को महाराष्ट्र के नाशिक शहर से लगभग २०-२५ किमी की दूरी पर स्थित बाबा भोलेनाथ की नगरी त्र्यंबकेश्वर में हुआ था। इनके पिता संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे, वे बम्बई के एलफिंस्तन कालेज में प्राध्यापक भी थे। इस कारण दादासाहब की शिक्षा मुम्बई में ही हुई थी।

बात २५ दिसम्बर १८९१ की है, मुम्बई में ‘अमेरिका-इंडिया थिएटर’ में एक विदेशी मूक चलचित्र लाइफ ऑफ क्राइस्ट दिखाया जा रहा था और दादासाहब भी यह चलचित्र देख रहे थे। चलचित्र देखते समय दादासाहब को ईसामसीह के स्थान पर कृष्ण, राम, समर्थ गुरु रामदास, शिवाजी, संत तुकाराम इत्यादि महान विभूतियाँ दिखाई दे रही थीं। उन्होंने सोचा क्यों ना चलचित्र के माध्यम से भारतीय महान विभूतियों के चरित्र को चित्रित किया जाए। उन्होंने इस चलचित्र को कई बार देखा और फिर क्या, उनके हृदय में चलचित्र-निर्माण का अंकुर फूट पड़ा।

उनमें चलचित्र-निर्माण की ललक इतनी बढ़ी कि उन्होंने चलचित्र निर्माण संबंधी कई पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन किया और कैमरा लेकर चित्र खींचना भी शुरु कर दिया। जब दादासाहब ने चलचित्र निर्माण में अपना ठोस कदम रखा तो इन्हें बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। जैसे-तैसे कुछ पैसों की व्यवस्था कर चलचित्र-निर्माण संबंधी उपकरणों को खरीदने के लिए दादासाहब लंदन पहुँचे। वे वहाँ बाइस्कोप सिने साप्ताहिक के संपादक की मदद से कुछ चलचित्र निर्माण संबंधी उपकरण खरीदे और १९१२ के अप्रैल माह में वापस मुम्बई आ गए। उन्होने दादर में अपना स्टूडियो बनाया और फालके फिल्म के नाम से अपनी संस्था स्थापित की। आठ महीने की कठोर साधना के बाद दादासाहब के द्वारा पहली मूक फिल्म राजा हरिश्चंन्द्र का निर्माण हुआ। इस चलचित्र (फिल्म) के निर्माता, लेखक, कैमरामैन इत्यादि सबकुछ दादासाहब ही थे। इस फिल्म में काम करने के लिए कोई स्त्री तैयार नहीं हुई अतः लाचार होकर तारामती की भूमिका के लिए एक पुरुष पात्र ही चुना गया। इस चलचित्र में दादासाहब स्वयं नायक (हरिश्चंन्द्र) बने और रोहिताश्व की भूमिका उनके सात वर्षीय पुत्र भालचन्द्र फालके ने निभाई। यह चलचित्र सर्वप्रथम दिसम्बर १९१२ में कोरोनेशन थिएटर में प्रदर्शित किया गया। इस चलचित्र के बाद दादासाहब ने दो और पौराणिक फिल्में भस्मासुर मोहिनी और सावित्री बनाई। १९१५ में अपनी इन तीन फिल्मों के साथ दादासाहब विदेश चले गए। लंदन में इन फिल्मों की बहुत प्रशंसा हुई। कोल्हापुर नरेश के आग्रह पर १९३७ में दादासाहब ने अपनी पहली और अंतिम सवाक फिल्म गंगावतरण बनाई। दादासाहब ने कुल १२५ फिल्मों का निर्माण किया। भारत सरकार उनकी स्मृति में प्रतिवर्ष चलचित्र जगत के किसी विशिष्ट व्यक्ति को दादा साहब फालके पुरस्कार प्रदान करती है।

दादा साहब फालके, सर जेजे स्कूल ऑफ आर्ट से प्रशिक्षित थे। वे मंच के अनुभवी अभिनेता थे साथ ही शौकिया जादूगर थे। उन्होने कला भवन बड़ौदा से फोटोग्राफी भी किया था। उन्होंने फोटो केमिकल प्रिंटिंग की प्रक्रिया में भी प्रयोग किये थे। प्रिंटिंग के जिस कारोबार में वे लगे हुए थे, उनके एक साझेदार ने उससे अपना आर्थिक सहयोग वापस ले लिया। उस समय इनकी उम्र ४० वर्ष की थी कारोबार में हुई हानि से उनका स्वभाव चिड़िचड़ा हो गया था। उन्होंने क्रिसमस के अवसर पर ईसामसीह पर बनी एक फिल्म देखी। फिल्म देखने के दौरान ही फालके ने निर्णय कर लिया कि उनकी जिंदगी का मकसद फिल्मकार बनना है। उन्हें लगा कि रामायण और महाभारत जैसे पौराणिक महाकाव्यों से फिल्मों के लिए अच्छी कहानियां मिलेंगी। उनके पास सभी तरह का हुनर था। वह नए-नए प्रयोग करते थे। अतः प्रशिक्षण का लाभ उठाकर और अपनी स्वभावगत प्रकृति के चलते भारतीय चलचित्र बनाने जैसे असंभव कार्य को करने वाले वे पहले व्यक्ति बने।

उन्होंने ५ पौंड में एक कैमरा खरीदा और शहर के सभी सिनेमाघरों में जाकर फिल्मों का अध्ययन और विश्लेषण करने लगे, फिर २०-२० घंटे लगकर लगातार प्रयोग करते रहे। ऐसे उन्माद से काम करने का प्रभाव उनकी सेहत पर भी पड़ने लगा। उनकी एक आंख जाती रही। उस समय उनकी पत्नी सरस्वती बाई ने उनका साथ दिया। सामाजिक निष्कासन और सामाजिक गुस्से को चुनौती देते हुए उन्होंने अपने जेवर गिरवी रख दिये। उनके अपने मित्र ही उनके पहले आलोचक थे। अतः अपनी कार्यकुशलता को सिद्ध करने के लिए उन्होंने एक बर्तन में मटर बोई। फिर इसके बढ़ने की प्रक्रिया को एक समय में एक फ्रेम खींचकर साधारण कैमरे से उतारा। इसके लिए उन्होंने टाइमैप्स फोटोग्राफी की तकनीक इस्तेमाल की। इस तरह से बनी अपनी पत्नी की जीवन बीमा पॉलिसी गिरवी रखकर, ऊंची ब्याज दर पर ऋण प्राप्त करने में वह सफल रहे।

फरवरी 1912 में, फिल्म प्रोडक्शन में एक क्रैश-कोर्स करने के लिए वे इंग्लैण्ड गए और एक सप्ताह तक सेसिल हेपवर्थ के अधीन काम सीखा। कैबाउर्न ने विलियमसन कैमरा, एक फिल्म परफोरेटर, प्रोसेसिंग और प्रिंटिंग मशीन जैसे यंत्रों तथा कच्चा माल का चुनाव करने में मदद की। इन्होंने राजा हरिशचंद्र बनायी। चूंकि उस दौर में उनके सामने कोई और मानक नहीं थे, अतः सब कामचलाऊ व्यवस्था उन्हें स्वयं करनी पड़ी। अभिनय करना सिखाना पड़ा, दृश्य लिखने पड़े, फोटोग्राफी करनी पड़ी और फिल्म प्रोजेक्शन के काम भी करने पड़े। महिला कलाकार उपलब्ध न होने के कारण उनकी सभी नायिकाएं पुरुष कलाकार थे। होटल का एक पुरुष रसोइया सालुंके ने भारतीय फिल्म की पहली नायिका की भूमिका की। शुरू में शूटिंग दादर के एक स्टूडियो में सेट बनाकर की गई। सभी शूटिंग दिन की रोशनी में की गई क्योंकि वह एक्सपोज्ड फुटेज को रात में अपनी पत्नी की सहायता से डेवलप करते थे और प्रिंट करते थे। छह माह में ३७०० फीट की लंबी फिल्म तैयार हुई। २१ अप्रैल, 1913 को ओलम्पिया सिनेमा हॉल में यह रिलीज की गई। पश्चिमी फिल्म के दर्शकों के साथ प्रेस ने भी इसकी उपेक्षा की। लेकिन फालके जानते थे कि वे आम जनता के लिए अपनी फिल्म बना रहे हैं, अतः यह फिल्म जबरदस्त हिट रही।

दादासाहब नें अपने १९ साल के लंबे करियर में कुल ९५ फिल्म और २७ लघु फिल्म बनाईं…

राजा हरिश्चंद्र, मोहिनी भास्मासुर, सत्यवान सावित्री, लंका दहन, श्री कृष्ण जन्म, कलिया मर्दन, बुद्धदेव, बालाजी निम्बारकर, भक्त प्रहलाद, भक्त सुदामा, रूक्मिणी हरण, रुक्मांगदा मोहिनी, द्रौपदी वस्त्रहरण, हनुमान जन्म, नल दमयंती, भक्त दामाजी, परशुराम, कुमारी मिल्ल्चे शुद्धिकरण, श्रीकृष्ण शिष्टई, काचा देवयानी, चन्द्रहास, मालती माधव, मालविकाग्निमित्र, वसंत सेना, बोलती तपेली, संत मीराबाई, त मीराबाई, कबीर कमल, सेतु बंधन एवं गंगावतरण जो दादा साहब फाल्के द्वारा निर्देशित पहली बोलती फिल्म है।

फालके के फिल्म निर्मिती के प्रयास तथा पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र के निर्माण पर मराठी में एक फिचर फिल्म हरिश्चंद्राची फॅक्टरी २००९ में बनी थी, जिसे देश विदेश में जबरदस्त सराहाना मिली थी।

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