May 5, 2024

सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
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फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से शृँगार सजाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

‘सिंहासन खाली करो जनता आती है’ कविता को अपना नारा बनाकर जयप्रकाश नारायण जब इंदिरा के विरुद्ध अपनी दूसरी पारी शुरू करने को मैदान में उतरे तो सारा देश उनके पीछे चल पड़ा। क्या आप जानते हैं की यह कविता किसने लिखा है? जी हां ! सही पहचाना आपने…

राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’

दिनकर जी ने सामाजिक, आर्थिक समानता और शोषण के खिलाफ कविताओं की रचना की। एक प्रगतिवादी और मानववादी कवि के रूप में उन्होंने ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं को ओजस्वी और प्रखर शब्दों का तानाबाना दिया। उनकी महान रचनाओं में रश्मिरथी और परशुराम की प्रतीक्षा शामिल है। उर्वशी को छोड़कर दिनकर की अधिकतर रचनाएँ वीर रस से ओतप्रोत हैं। ज्ञानपीठ से सम्मानित उनकी रचना उर्वशी की कहानी मानवीय प्रेम, वासना और सम्बन्धों के इर्द-गिर्द घूमती है। उर्वशी स्वर्ग परित्यक्ता एक अप्सरा की कहानी है। वहीं कुरुक्षेत्र, महाभारत के शान्ति-पर्व का कवितारूप है। यह दूसरे विश्वयुद्ध के बाद लिखी गयी रचना है। प्रबन्ध काव्य कुरुक्षेत्र को विश्व के १०० सर्वश्रेष्ठ काव्यों में ७४वाँ स्थान दिया गया है।

परिचय…

हिन्दी के सुविख्यात कवि रामधारी सिंह दिनकर जी का जन्म २३ सितंबर, १९०८ ई. में बिहार के मुंगेर जिला के सिमरिया के एक सामान्य किसान रवि सिंह तथा उनकी पत्नी मनरूप देवी के पुत्र के रूप में हुआ था। रामधारी सिंह दिनकर एक ओजस्वी राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत कवि के रूप में जाने जाते थे। उनकी कविताओं में छायावादी युग का प्रभाव होने के कारण श्रृंगार के भी प्रमाण मिलते हैं। दिनकर के पिता एक साधारण किसान थे। दिनकर दो वर्ष के थे, जब उनके पिता का देहावसान हो गया। परिणामत: दिनकर और उनके भाई-बहनों का पालन-पोषण उनकी विधवा माता ने किया। दिनकर का बचपन और कैशोर्य देहात में बीता, जहाँ दूर तक फैले खेतों की हरियाली, बांसों के झुरमुट, आमों के बग़ीचे और कांस के विस्तार थे। प्रकृति की इस सुषमा का प्रभाव दिनकर के मन में बस गया, पर शायद इसीलिए वास्तविक जीवन की कठोरताओं का भी अधिक गहरा प्रभाव पड़ा।

शिक्षा…

संस्कृत के एक पंडित के पास अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्रारंभ करते हुए दिनकर जी ने गाँव के ‘प्राथमिक विद्यालय’ से प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की एवं निकटवर्ती बोरो नामक ग्राम में ‘राष्ट्रीय मिडिल स्कूल’ जो सरकारी शिक्षा व्यवस्था के विरोध में खोला गया था, में प्रवेश प्राप्त किया। यहीं से इनके मनोमस्तिष्क में राष्ट्रीयता की भावना का विकास होने लगा था। हाई स्कूल की शिक्षा इन्होंने ‘मोकामाघाट हाई स्कूल’ से प्राप्त की। इसी बीच इनका विवाह भी हो चुका था तथा ये एक पुत्र के पिता भी बन चुके थे। वर्ष १९२८ में मैट्रिक के बाद दिनकर ने पटना विश्वविद्यालय से वर्ष १९३२ में इतिहास में बीए ऑनर्स करने के बाद अगले ही वर्ष एक स्कूल में यह ‘प्रधानाध्यापक’ नियुक्त हुए, पर वर्ष १९३४ में बिहार सरकार के अधीन इन्होंने ‘सब-रजिस्ट्रार’ का पद स्वीकार कर लिया। लगभग नौ वर्षों तक वह इस पद पर रहे और उनका समूचा कार्यकाल बिहार के देहातों में बीता तथा जीवन का जो पीड़ित रूप उन्होंने बचपन से देखा था, उसका और तीखा रूप उनके मन को मथ गया।

कार्यक्षेत्र…

वर्ष १९४७ में देश स्वाधीन हुआ और वह बिहार विश्वविद्यालय में हिन्दी के ‘प्राध्यापक व विभागाध्यक्ष’ नियुक्त होकर मुज़फ़्फ़रपुर पहुँचे। वर्ष १९५२ में जब भारत की प्रथम संसद का निर्माण हुआ, तो उन्हें राज्यसभा का सदस्य चुना गया और वह दिल्ली आ गए। दिनकर १२ वर्ष तक संसद-सदस्य रहे, बाद में उन्हें वर्ष १९६४ से १९६५ ई. तक ‘भागलपुर विश्वविद्यालय’ का कुलपति नियुक्त किया गया। लेकिन अगले ही वर्ष भारत सरकार ने उन्हें वर्ष १९६५ से १९७१ ई. तक अपना ‘हिन्दी सलाहकार’ नियुक्त किया और वह फिर दिल्ली लौट आए। फिर तो ज्वार उमरा और रेणुका, हुंकार, रसवंती और द्वंदगीत रचे गए। रेणुका और हुंकार की कुछ रचनाऐं यहाँ-वहाँ प्रकाश में आईं और अंग्रेज़ प्रशासकों को समझते देर न लगी कि वे एक ग़लत आदमी को अपने तंत्र का अंग बना बैठे हैं और दिनकर की फ़ाइल तैयार होने लगी, बात-बात पर क़ैफ़ियत तलब होती और चेतावनियाँ मिला करतीं। ४ वर्ष में २२ बार उनका तबादला किया गया।

विशिष्ट महत्त्व…

दिनकर जी की प्राय: ५० कृतियाँ प्रकाशित हुई हैं। हिन्दी काव्य छायावाद का प्रतिलोम है, यह कहना तो शायद उचित नहीं होगा पर इसमें सन्देह नहीं कि हिन्दी काव्य जगत पर छाये छायावादी कुहासे को काटने वाली शक्तियों में दिनकर की प्रवाहमयी, ओजस्विनी कविता के स्थान का विशिष्ट महत्त्व है। दिनकर छायावादोत्तर काल के कवि हैं, अत: छायावाद की उपलब्धियाँ उन्हें विरासत में मिलीं पर उनके काव्योत्कर्ष का काल छायावाद की रंगभरी सन्ध्या का समय था।

द्विवेदी युगीन स्पष्टता…

कविता के भाव छायावाद के उत्तरकाल के निष्प्रभ शोभादीपों से सजे-सजाये कक्ष से ऊब चुके थे, बाहर की मुक्त वायु और प्राकृतिक प्रकाश और चाहतेताप का संस्पर्श थे। वे छायावाद के कल्पनाजन्य निर्विकार मानव के खोखलेपन से परिचित हो चुके थे, उस पार की दुनिया के अलभ्य सौन्दर्य का यथेष्ट स्वप्न दर्शन कर चुके थे, चमचमाते प्रदेश में संवेदना की मरीचिका के पीछे दौड़ते थक चुके थे, उस लाक्षणिक और अस्वाभिक भाषा शैली से उनका जी भर चुका था, जो उन्हें बार-बार अर्थ की गहराइयों की झलक सी दिखाकर छल चुकी थी। उन्हें अपेक्षा थी भाषा में द्विवेदी युगीन स्पष्टता की, पर उसकी शुष्कता की नहीं, व्यक्ति और परिवेश के वास्तविक संस्पर्श की, सहजता और शक्ति की। ‘बच्चन’ की कविता में उन्हें व्यक्ति का संस्पर्श मिला, दिनकर के काव्य में उन्हें जीवन समाज और परिचित परिवेश का संस्पर्श मिला। दिनकर का समाज व्यक्तियों का समूह था, केवल एक राजनीतिक तथ्य नहीं था।

द्विवेदी युग और छायावाद…

आरम्भ में दिनकर ने छायावादी रंग में कुछ कविताएँ लिखीं, पर जैसे-जैसे वे अपने स्वर से स्वयं परिचित होते गये, अपनी काव्यानुभूति पर ही अपनी कविता को आधारित करने का आत्म विश्वास उनमें बढ़ता गया, वैसे ही वैसे उनकी कविता छायावाद के प्रभाव से मुक्ति पाती गयी पर छायावाद से उन्हें जो कुछ विरासत में मिला था, जिसे वे मनोनुकूल पाकर अपना चुके थे, वह तो उनका हो ही गया।

उनकी काव्यधारा जिन दो कुलों के बीच में प्रवाहित हुई, उनमें से एक छायावाद था। भूमि का ढलान दूसरे कुल की ओर था, पर धारा को आगे बढ़ाने में दोनों का अस्तित्व अपेक्षित और अनिवार्य था। दिनकर अपने को द्विवेदी युगीन और छायावादी काव्य पद्धतियों का वारिस मानते थे। उन्हीं के शब्दों में “पन्त के सपने हमारे हाथ में आकर उतने वायवीय नहीं रहे, जितने कि वे छायावाद काल में थे,” किन्तु द्विवेदी युगीन अभिव्यक्ति की शुभ्रता हम लोगों के पास आते-जाते कुछ रंगीन अवश्य हो गयी। अभिव्यक्ति की स्वच्छन्दता की नयी विरासत हमें आप से आप प्राप्त हो गयी।

आत्म परीक्षण…

दिनकर ने अपने कृतित्व के विषय में एकाधिक स्थानों पर विचार किया है। सम्भवत: हिन्दी का कोई कवि अपने ही कवि कर्म के विषय में दिनकर से अधिक चिन्तन व आलोचना न करता होगा। वह दिनकर की आत्मरति का नहीं, अपने कवि कर्म के प्रति उनके दायित्व के बोध का प्रमाण है कि वे समय-समय पर इस प्रकार आत्म परीक्षण करते रहे। इसी कारण अधिकतर अपने बारे में जो कहते थे, वह सही होता था। उनकी कविता प्राय: छायावाद की अपेक्षा द्विवेदी युगीन स्पष्टता, प्रसाद गुण के प्रति आस्था और मोह, अतीत के प्रति आदर प्रदर्शन की प्रवृत्ति, अनेक बिन्दुओं पर दिनकर की कविता द्विवेदी युगीन काव्यधारा का आधुनिक ओजस्वी, प्रगतिशील संस्करण जान पड़ती है। उनका स्वर भले ही सर्वदा, सर्वथा ‘हुंकार’ न बन पाता हो, ‘गुंजन’ तो कभी भी नहीं बनता।

सामाजिक चेतना के चारण…

“वे अहिन्दीभाषी जनता में भी बहुत लोकप्रिय थे क्योंकि उनका हिन्दी प्रेम दूसरों की अपनी मातृभाषा के प्रति श्रद्धा और प्रेम का विरोधी नहीं, बल्कि प्रेरक था।” – हज़ारी प्रसाद द्विवेदी

“दिनकर जी ने श्रमसाध्य जीवन जिया। उनकी साहित्य साधना अपूर्व थी। कुछ समय पहले मुझे एक सज्जन ने कलकत्ता से पत्र लिखा कि दिनकर को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलना कितना उपयुक्त है ? मैंने उन्हें उत्तर में लिखा था कि यदि चार ज्ञानपीठ पुरस्कार उन्हें मिलते, तो उनका सम्मान होता- गद्य, पद्य, भाषणों और हिन्दी प्रचार के लिए।” – हरिवंशराय बच्चन

“उनकी राष्ट्रीयता चेतना और व्यापकता सांस्कृतिक दृष्टि, उनकी वाणी का ओज और काव्यभाषा के तत्त्वों पर बल, उनका सात्त्विक मूल्यों का आग्रह उन्हें पारम्परिक रीति से जोड़े रखता है।” – अज्ञेय

“हमारे क्रान्ति-युग का सम्पूर्ण प्रतिनिधित्व कविता में इस समय दिनकर कर रहा है। क्रान्तिवादी को जिन-जिन हृदय-मंथनों से गुजरना होता है, दिनकर की कविता उनकी सच्ची तस्वीर रखती है।” – रामवृक्ष बेनीपुरी

“दिनकर जी सचमुच ही अपने समय के सूर्य की तरह तपे। मैंने स्वयं उस सूर्य का मध्याह्न भी देखा है और अस्ताचल भी। वे सौन्दर्य के उपासक और प्रेम के पुजारी भी थे। उन्होंने ‘संस्कृति के चार अध्याय’ नामक विशाल ग्रन्थ लिखा है, जिसे पं. जवाहर लाल नेहरू ने उसकी भूमिका लिखकर गौरवन्वित किया था। दिनकर बीसवीं शताब्दी के मध्य की एक तेजस्वी विभूति थे।”- नामवर सिंह

दिनकर का नाम प्रगतिवादी कवियों में लिया जाता था, पर अब शायद साम्यवादी विचारक उन्हें उस विशिष्ट पंक्ति में स्थान देने के लिए तैयार न हों, क्योंकि आज का दिनकर “अरुण विश्व की काली जय हो! लाल सितारों वाली जय हो”? के लेखक से बहुत दूर जान पड़ता है। जो भी हो, साम्यवादी विचारक आज के दिनकर को किसी भी पंक्ति में क्यों न स्थान देना चाहे, इससे इंकार किया ही नहीं जा सकता कि जैसे बच्चन मूलत: एकांत व्यक्तिवादी कवि हैं, वैसे ही दिनकर मूलत: सामाजिक चेतना के चारण हैं।

साहित्यिक जीवन…

उनके कवि जीवन का आरम्भ वर्ष १९३५ से हुआ, जब छायावाद के कुहासे को चीरती हुई ‘रेणुका’ प्रकाशित हुई और हिन्दी जगत एक बिल्कुल नई शैली, नई शक्ति, नई भाषा की गूंज से भर उठा। तीन वर्ष बाद जब ‘हुंकार’ प्रकाशित हुई, तो देश के युवा वर्ग ने कवि और उसकी ओजमयी कविताओं को कंठहार बना लिया। सभी के लिए वह अब राष्ट्रीयता, विद्रोह और क्रांति के कवि थे। ‘कुरुक्षेत्र’ द्वितीय महायुद्ध के समय की रचना है, किंतु उसकी मूल प्रेरणा युद्ध नहीं, देशभक्त युवा मानस के हिंसा-अहिंसा के द्वंद से उपजी थी।

दिनकर के प्रथम तीन काव्य-संग्रह प्रमुख हैं…

१. रेणुका (१९३५ ई.)
२. हुंकार (१९३८ ई.) और
३. रसवन्ती’ (१९३९ ई.)

उनके आरम्भिक आत्म मंथन के युग की रचनाएँ हैं। इनमें दिनकर का कवि अपने व्यक्ति परक, सौन्दर्यान्वेषी मन और सामाजिक चेतना से उत्तम बुद्धि के परस्पर संघर्ष का तटस्थ द्रष्टा नहीं, दोनों के बीच से कोई राह निकालने की चेष्टा में संलग्न साधक के रूप में मिलता है।

रेणुका… रेणुका में अतीत के गौरव के प्रति कवि का सहज आदर और आकर्षण परिलक्षित होता है। पर साथ ही वर्तमान परिवेश की नीरसता से त्रस्त मन की वेदना का परिचय भी मिलता है।

हुंकार… हुंकार में कवि अतीत के गौरव-गान की अपेक्षा वर्तमान दैत्य के प्रति आक्रोश प्रदर्शन की ओर अधिक उन्मुख जान पड़ता है।

रसवन्ती… रसवन्ती में कवि की सौन्दर्यान्वेषी वृत्ति काव्यमयी हो जाती है पर यह अन्धेरे में ध्येय सौन्दर्य का अन्वेषण नहीं, उजाले में ज्ञेय सौन्दर्य का आराधन है।

सामधेनी (१९४७ ई.)… सामधेनी में दिनकर की सामाजिक चेतना स्वदेश और परिचित परिवेश की परिधि से बढ़कर विश्व वेदना का अनुभव करती जान पड़ती है। कवि के स्वर का ओज नये वेग से नये शिखर तक पहुँच जाता है।

नीलकुसुम (१९५५)… नीलकुसुम दिनकर के काव्य में एक मोड़ बनकर आया। यहाँ वह काव्यात्मक प्रयोगशीलता के प्रति आस्थावान है। स्वयं प्रयोगशील कवियों को अजमाल पहनाने और राह पर फूल बिछाने की आकांक्षा उसे विह्वल कर देती है। नवीनतम काव्यधारा से सम्बन्ध स्थापित करने की कवि की इच्छा तो स्पष्ट हो जाती है, पर उसका कृतित्व साथ देता नहीं जान पड़ता है। अभी तक उनका काव्य आवेश का काव्य था, नीलकुसुम ने नियंत्रण और गहराइयों में पैठने की प्रवृत्ति की सूचना दी।

उर्वशी… ६ वर्ष बाद उर्वशी प्रकाशित हुई, हिन्दी साहित्य संसार में एक ओर उसकी कटु आलोचना और दूसरी ओर मुक्तकंठ से प्रशंसा हुई। धीरे-धीरे स्थिति सामान्य हुई इस काव्य-नाटक को दिनकर की ‘कवि-प्रतिभा का चमत्कार’ माना गया। कवि ने इस वैदिक मिथक के माध्यम से देवता व मनुष्य, स्वर्ग व पृथ्वी, अप्सरा व लक्ष्मी और अध्यात्म के संबंधों का अद्भुत विश्लेषण किया है।

काव्य रचना…

इन मुक्तक काव्य संग्रहों के अतिरिक्त दिनकर ने अनेक प्रबन्ध काव्यों की रचना भी की है, जिनमें ‘कुरुक्षेत्र’ (१९४६ ई.), ‘रश्मिरथी’ (१९५२ ई.) तथा ‘उर्वशी’ (१९६१ ई.) प्रमुख हैं। ‘कुरुक्षेत्र’ में महाभारत के शान्ति पर्व के मूल कथानक का ढाँचा लेकर दिनकर ने युद्ध और शान्ति के विशद, गम्भीर और महत्त्वपूर्ण विषय पर अपने विचार भीष्म और युधिष्ठर के संलाप के रूप में प्रस्तुत किये हैं। दिनकर के काव्य में विचार तत्त्व इस तरह उभरकर सामने पहले कभी नहीं आया था। ‘कुरुक्षेत्र’ के बाद उनके नवीनतम काव्य ‘उर्वशी’ में फिर हमें विचार तत्त्व की प्रधानता मिलती है। साहसपूर्वक गांधीवादी अहिंसा की आलोचना करने वाले ‘कुरुक्षेत्र’ का हिन्दी जगत में यथेष्ट आदर हुआ। ‘उर्वशी’ जिसे कवि ने स्वयं ‘कामाध्याय’ की उपाधि प्रदान की है – ’दिनकर’ की कविता को एक नये शिखर पर पहुँचा दिया है। भले ही सर्वोच्च शिखर न हो, दिनकर के कृतित्त्व की गिरिश्रेणी का एक सर्वथा नवीन शिखर तो है ही। दिनकर ने अनेक पुस्तकों का सम्पादन भी किया है, जिनमें ‘अनुग्रह अभिनन्दन ग्रन्थ’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

रे रोक युधिष्ठर को न यहाँ,
जाने दे उनको स्वर्ग धीर पर फिरा हमें गांडीव गदा,
लौटा दे अर्जुन भीम वीर – (हिमालय से)

क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो,
उसको क्या जो दंतहीन विषहीन विनीत सरल हो – (कुरुक्षेत्र से)

मैत्री की राह बताने को, सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को, भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान हस्तिनापुर आये, पांडव का संदेशा लाये। – (रश्मिरथी से)

शैली…

दिनकर आधुनिक कवियों की प्रथम पंक्ति में बैठने के अधिकारी हैं, इस पर दो राय नहीं हो सकती। उनकी कविता में विचार तत्त्व की कमी नहीं है, यदि अभाव है तो विचार तत्त्व के प्राचुर्य के अनुरूप गहराई का। उनके व्यक्तित्व की छाप उनकी प्रत्येक पंक्ति पर है, पर कहीं-कहीं भावक को व्यक्तित्व की जगह वक्तृत्व ही मिल पाता है। दिनकर की शैली में प्रसादगुण यथेष्ट हैं, प्रवाह है, ओज है, अनुभूति की तीव्रता है, सच्ची संवेदना है। यदि कमी खटकती है तो तरलता की, घुलावट की। पर यह कमी कम ही खटकती है, क्योंकि दिनकर ने प्रगीत कम लिखे हैं। इनकी अधिकांश रचनाओं में काव्य की शैली रचना के विषय और ‘मूड’ के अनुरूप हैं। उनके चिन्तन में विस्तार अधिक और गहराई कम है, पर उनके विचार उनके अपने ही विचार हैं। उनकी काव्यनुभूति के अविच्छेद्य अंग हैं, यह स्पष्ट है। यह दिनकर की कविता का विशिष्ट गुण है कि जहाँ उसमें अभिव्यक्ति की तीव्रता है, वहीं उसके साथ ही चिन्तन-मनन की प्रवृत्ति भी स्पष्ट दिखती है।परिणामत: निरन्तर परिवर्तनशील है। दिनकर प्रगतिवादी, जनवादी, मानववादी आदि रहे हैं और आज भी हैं, पर ‘रसवन्ती’ की भूमिका में यह कहने में उन्हें संकोच नहीं हुआ कि “प्रगति शब्द में जो नया अर्थ ठूँसा गया है, उसके फलस्वरूप हल और फावड़े कविता का सर्वोच्च विषय सिद्ध किये जा रहे हैं और वातावरण ऐसा बनता जा रहा है कि जीवन की गहराइयों में उतरने वाले कवि सिर उठाकर नहीं चल सकें।”
गांधीवादी और अहिंसा के हामी होते हुए भी ‘कुरुक्षेत्र’ में वह कहते नहीं हिचके कि कौन केवल आत्मबल से जूझकर, जीत सकता देह का संग्राम है, पाशविकता खड्ग जो लेती उठा, आत्मबल का एक वश चलता नहीं। योगियों की शक्ति से संसार में, हारता लेकिन नहीं समुदाय है।

बाल-साहित्य…

जो कवि सामाजिक उत्तरदायित्व के प्रति सचेत हैं तथा जो अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित हैं, प्रतिबद्ध हैं, वे बाल-साहित्य लिखने के लिए भी अवकाश निकाल लेते हैं। विश्व-कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसे अतल-स्पर्शी रहस्यवादी महाकवि ने कितना बाल-साहित्य लिखा है, यह सर्वविदित है। अतः दिनकर जी की लेखनी ने यदि बाल-साहित्य लिखा है तो वह उनके महत्त्व को बढ़ाता ही है। बाल-काव्य विषयक उनकी दो पुस्तिकाएँ प्रकाशित हुई हैं —‘मिर्च का मजा’ और ‘सूरज का ब्याह’। ‘मिर्च का मजा’ में सात कविताएँ और ‘सूरज का ब्याह’ में नौ कविताएँ संकलित हैं। ‘मिर्च का मजा’ में एक मूर्ख क़ाबुलीवाले का वर्णन है, जो अपने जीवन में पहली बार मिर्च देखता है। मिर्च को वह कोई फल समझ जाता है-

सोचा, क्या अच्छे दाने हैं, खाने से बल होगा,
यह ज़रूर इस मौसम का कोई मीठा फल होगा।

‘सूरज का ब्याह’ में एक वृद्ध मछली का कथन पर्याप्त तर्क-संगत है।

सामाजिक चेतना…

दिनकर की प्रगतिशीलता साम्यवादी लीग पर चलने की प्रक्रिया का साहित्यिक नाम नहीं है, एक ऐसी सामाजिक चेतना का परिणाम है, जो मूलत: भारतीय है और राष्ट्रीय भावना से परिचालित है। उन्होंने राजनीतिक मान्यताओं को राजनीतिक मान्यताएँ होने के कारण अपने काव्य का विषय नहीं बनाया, न कभी राजनीतिक लक्ष्य सिद्धि को काव्य का उद्देश्य माना, पर उन्होंने नि:संकोच राजनीतिक विषयों को उठाया है और उनका प्रतिपादन किया है, क्योंकि वे काव्यानुभूति की व्यापकता स्वीकार करते हैं। राजनीतिक दायित्वों, मान्यताओं और नीतियों का बोध सहज ही उनकी काव्यानुभूति के भीतर समा जाता है।

ओजस्वी तेजस्वी स्वरूप…

अलाउद्दीन ख़िलज़ी ने जब चित्तौड़ पर कब्ज़ा कर लिया, तब राणा अजय सिंह अपने भतीजे हम्मीर और बेटों को लेकर अरावली पहाड़ पर कैलवारा के क़िले में रहने लगे। राजा मुंज ने वहीं उनका अपमान किया था, जिसका बदला हम्मीर ने चुकाया। उस समय हम्मीर की उम्र सिर्फ़ ग्यारह साल की थी। आगे चलकर हम्मीर बहुत बड़ा योद्धा निकला और उसके हठ के बारे में यह कहावत चल पड़ी कि ‘तिरिया तेल हमीर हठ चढ़ै न दूजी बार।’ इस रचना में दिनकर जी का ओजस्वी-तेजस्वी स्वरूप झलका है। क्योंकि इस कविता की विषय-सामग्री उनकी रुचि के अनुरूप थी। बालक हम्मीर कविता राष्ट्रीय गौरव से परिपूर्ण रचना है। इस कविता की निम्नलिखित पंक्तियाँ पाठक के मन में गूँजती रहती हैं-

धन है तन का मैल, पसीने का जैसे हो पानी,
एक आन को ही जीते हैं इज्जत के अभिमानी।

प्रकाशित रचनाएँ…

१. उर्वशी
२. परशुराम की प्रतीक्षा
३. संचयिता
४. संस्कृति के चार अध्याय
५. सपनों का धुआँ
६. कविता और शुद्ध कविता
७. कवि और कविता
८. भग्न वीणा
९. स्मरणांजलि
१०. समानांतर
११. चिंतन के आयाम
१२. रश्मिमाला
१३. व्यक्तिगत निबंध और डायरी
१४. पंडित नेहरू और अन्य महापुरुष
१५. संस्कृति भाषा और राष्ट्र
१६. श्री अरविंद मेरी दृष्टि में
१७. साहित्य और समाज
१८. अमृत मंथन · कुरुक्षेत्र
१९. बापू
२०. मिट्टी की ओर
२१. काव्य की भूमिका
२२. धूपछाँह
२३. नील कुसुम
२४. नये सुभाषित
२५. रश्मिरथी… रश्मिरथी प्रथम सर्ग · रश्मिरथी द्वितीय सर्ग · रश्मिरथी तृतीय सर्ग · रश्मिरथी चतुर्थ सर्ग · रश्मिरथी पंचम सर्ग · रश्मिरथी षष्ठ सर्ग · रश्मिरथी सप्तम सर्ग

गद्य कृतियाँ…

दिनकर की गद्य कृतियों में मुख्य हैं… उनका विराट ग्रन्थ ‘संस्कृति के चार अध्याय’ (१९५६ ई.), जिसमें उन्होंने प्रधानतया शोध और अनुशीलन के आधार पर मानव सभ्यता के इतिहास को चार मंजिलों में बाँटकर अध्ययन किया है। ग्रन्थ साहित्य अकादमी के पुरस्कार द्वारा सम्मानित हुआ और हिन्दी जगत में सादर स्वीकृत हुआ। उसके अतिरिक्त दिनकर के स्फुट, अमीक्षात्मक तथा विविध निबन्धों के संग्रह हैं, जो पठनीय हैं, विशेषत: इस कारण की उनसे दिनकर के कवित्व को समझने-परखने में यथेष्ट सहायता मिलती है। भाषा की भूलों के बावज़ूद शैली की प्रांजलता दिनकर के गद्य को आकर्षित बना देती है। दिनकर की प्रसिद्ध आलोचनात्मक कृतियाँ हैं…

१. मिट्टी की ओर (१९४६)
२. काव्य की भूमिका (१९५८)
३. पंत, प्रसाद और मैथिलीशरण (१९५८)
४. हमारी सांस्कृतिक कहानी (१९५५)
५. शुद्ध कविता की खोज (१९६६)

पुरस्कार…

१. भारत सरकार द्वारा उन्‍हें पद्म भूषण से अंलकृत किया।
२. इनकी गद्य की प्रसिद्ध पुस्‍तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ के लिये साहित्य अकादमी तथा उर्वशी के लिये ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया।
३. दिनकर को कुरुक्षेत्र के लिए इलाहाबाद की साहित्यकार संसद द्वारा पुरस्कृत (१९४८) किया गया।

निधन…

दिनकर अपने युग के प्रमुखतम कवि ही नहीं, एक सफल और प्रभावपूर्ण गद्य लेखक भी थे। सरल भाषा और प्रांजल शैली में उन्होंने विभिन्न साहित्यिक विषयों पर निबंध के अलावा बोधकथा, डायरी, संस्मरण तथा दर्शन व इतिहासगत तथ्यों के विवेचन भी लिखे। २४ अप्रॅल, १९७४ को दिनकर जी अपने आपको अपनी कविताओं में हमारे बीच जीवित रखकर सदा के लिये अमर हो गये। दिनकर जी को सरकार विरोधी माना जाता था। विभिन्‍न सरकारी सेवाओं में होने के बावज़ूद दिनकर जी के अंदर उग्र रूप प्रत्‍यक्ष देखा जा सकता था। शायद उस समय की व्‍यवस्‍था के नज़दीक होने के कारण भारत की तत्कालीन दर्द के समक्ष रहे थे। तभी वे कहते हैं…

सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है,
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है।

जनवरी १९५० ई. को लिखी गई ये पंक्तियाँ आज़ादी के बाद गणतंत्र बनने के दर्द को बताती है कि हम आज़ाद तो हो गये, किन्‍तु व्‍यवस्‍था नहीं बदली। नेहरू जी की नीतियों के प्रखर विरोधी के रूप में भी इन्‍हें जाना जाता है तथा कई मायनों में दिनकर गाँधी जी से भी अपनी असहमति जताते दिखे हैं, परशुराम की प्रतीक्षा इसका प्रत्‍यक्ष उदाहरण है। यही कारण है कि आज देश में दिनकर का नाम एक कवि के रूप में नहीं बल्कि जनकवि के रूप में जाना जाता है। ३० सितम्बर, १९८७ को उनकी १३वीं पुण्यतिथि पर तत्कालीन राष्ट्रपति जैल सिंह ने उन्हें श्रद्धांजलि दी। वर्ष १९९९ में भारत सरकार ने उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी किया। केंद्रीय सूचना और प्रसारण मन्त्री प्रियरंजन दास मुंशी ने उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर ‘रामधारी सिंह दिनकर- व्यक्तित्व और कृतित्व’ पुस्तक का विमोचन किया था।

दालान आज भी है…

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का दालान बिहार के बेगूसराय ज़िले में स्थित है। जीर्ण-शीर्ण हो चुका है यह दालान जीर्णोद्धार के लिए अब भी शासन-प्रशासन की राह देख रहा है। कुछेक वर्ष पहले इसके जीर्णोद्धार को लेकर सुगबुगाहट शुरू हुई थी, परंतु वह भी अब ठंडी पड़ चुकी है। ऐसे में यह ‘धरोहर’ कभी भी ‘ज़मींदोज’ हो सकती है। कहा जाता है दिनकर जी ने पठन-पाठन को लेकर बड़े ही शौक़ से यह दालान बनवाया था। वे पटना अथवा दिल्ली से जब भी गांव आते थे, तो इस जगह उनकी ‘बैठकी’ जमती थी। यहाँ पर वे अपनी रचनाएँ बाल सखा, सगे-संबंधी, परिजन-पुरजन व ग्रामीणों को सुनाते थे। फुर्सत में लिखने-पठने का कार्य भी करते थे। वर्ष २००९-१० में मुख्यमंत्री विकास योजना से इसके जीर्णोद्धार के लिए पांच लाख रुपये आये, परंतु तकनीकी कारणों से वह वापस चले गए। युवा समीक्षक व राष्ट्रकवि दिनकर स्मृति विकास समिति, सिमरिया के सचिव मुचकुंद मोनू कहते हैं, उक्त दालान की उपेक्षा दुखी करता है। कहीं से भी तो पहल हो। अब तो यह नष्ट होने के कगार पर पहुंच चुका है। जबकि, जनकवि दीनानाथ सुमित्र का कहना है कि दिनकर जी का दालान राष्ट्र का दालान है। यह हिंदी का दालान है। उनके परिजनों को यह समाज-सरकार को सौंप देना चाहिए। उधर दिनकर जी के पुत्र केदार सिंह कहते हैं कि ‘पिताजी ने हमारे चचेरे भाई आदित्य नारायण सिंह के विवाह के अवसर पर इसे बनाया था। इसके जीर्णोद्धार को लेकर पांच लाख रुपये आये थे, यह हमारी नोटिस में नहीं है। यह अब मेरे भतीजे अरविंद बाबू की देखरेख में है।’

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