November 7, 2024

बाबर ने अपनी पुस्तक बाबरनामा में राणा साँगा पर संधि तोड़ने का दोष लगाया है, “राणा साँगा ने मुझे हिन्दुस्तान आने का न्योता दिया और इब्राहिम लोदी के ख़िलाफ़ युद्ध में मेरा साथ देने का वायदा किया था, लेकिन जब मैं दिल्ली और आगरा फ़तह कर रहा था, तो उसने पाँव भी नहीं हिलाये।” अब यह कथन कितना सही है यह तो बाबर जानता होगा अथवा राणा सांगा या तो इतिहास के प्रति ईमानदार खोजी इतिहासकार, मगर आज हम राणा सांगा के जन्मदिवस पर इतिहास के उस पन्ने को उलटेंगे और देखेंगे की बाबर की बात में कितनी सच्चाई थी…

राणा सांगा यानी महाराणा संग्राम सिंह का जन्म १२ अप्रैल, १४८४ को उदयपुर के सिसोदिया राजपूत राजवंश के राजा राणा रायमल के यहाँ हुआ था। राणा रायमल के तीन पुत्र थे, कुंवर पृथ्वीराज, जगमाल तथा राणा सांगा। राणा सांगा राजा के छोटे पुत्र थे। एक भविष्यवाणी के अनुसार सांगा को मेवाड़ का शासक बताया गया था, अतः ऐसी स्थिति में कुंवर पृथ्वीराज व जगमाल अपने भाई सांगा को मौत के घाट उतारना चाहते थे परंतु सांगा किसी प्रकार यहाँ से बचकर अजमेर पलायन कर गाए और कर्मचन्द पंवार की सहायता से मेवाड़ के राज्य को प्राप्त कर लिया। महाराणा सांगा ने सभी राजपूत राज्यो को संगठित किया और सभी राजपूत राज्य को एक छत्र के नीचे लाकर अपना साम्राज्य उत्तर में पंजाब के सतलज नदी से लेकर दक्षिण में मालवा को जीतकर नर्मदा नदी तक कर दिया। पश्चिम में सिंधु नदी से लेकर पूर्व में भरतपुर ग्वालियर तक अपना राज्य विस्तार कर लिया। इस प्रकार मुस्लिम सुल्तानों की डेढ़ सौ वर्ष की सत्ता की धार को कुंद कर इतने बड़े क्षेत्रफल पर हिंदू साम्राज्य को कायम कर दिया। उस समय तक इतने बड़े क्षेत्र वाला हिंदू सम्राज्य दक्षिण में विजयनगर सम्राज्य ही था। दिल्ली सुल्तान इब्राहिम लोदी को खातौली व बाड़ी के युद्ध में दो बार परास्त किया और गुजरात के सुल्तान को भी हराया तथा मेवाड़ की तरफ बढ़ने से उसे रोक दिया।

मगर एक छोटी सी चूक इतिहास बदल गया…

उत्तरी भारत में दिल्ली के सुल्तान के बाद सबसे अधिक शक्तिशाली शासक चित्तौड़ के राणा साँगा ही थे। उन्होंने इब्राहीम लोदी और बाबर के युद्ध में तटस्थता की नीति अपनायी। राणा का विचार था कि बाबर लूट-मारकर वापिस चला जायेगा, तब लोदी शासन को हटाकर वे दिल्ली में हिन्दू राज्य की स्थापना करेंगे। जब उन्होंने देखा कि बाबर मुग़ल राज्य की स्थापना का आयोजन कर रहा है, तब वह उससे युद्ध करने के लिए तैयार हो गाए। राणा सांगा वीर और कुशल सेनानी तो थे ही, साथ ही वे अनेकों युद्ध कर चुके थे और उन्हें सदैव विजयश्री की प्राप्ति हुई थी। उधर बाबर ने भी समझ लिया था कि राणा सांगा के रहते हुए भारत में मुग़ल राज्य की स्थापना करना सम्भव नहीं हैं; अत: उसने भी अपनी सेना के साथ राणा से युद्ध करने का निश्चय किया।

१७ मार्च, १५२७ में खानवा का युद्ध बाबर और राणा सांगा के मध्य लड़ा गया। इस युद्ध के कारणों के विषय में इतिहासकारों में मतभेद है। पहला, पानीपत के युद्ध के पूर्व बाबर एवं राणा सांगा में हुए समझौतें के तहत इब्राहिम लोदी के ख़िलाफ़ सांगा को बाबर के सैन्य अभियान में सहायता करनी थी, जिससे राणा सांगा बाद में मुकर गए। दूसरा, सांगा बाबर को दिल्ली का बादशाह नहीं मानते थे। इनके अलावा भी इतिहासकारों का मानना है कि, यह युद्ध बाबर एवं राणा सांगा की महत्वाकांक्षी योजनाओं का परिणाम था। बाबर सम्पूर्ण भारत को रौंदना चाहता था तथा राणा सांगा तुर्क-अफ़ग़ान राज्य के खण्डहरों के अवशेष पर एक हिन्दू राज्य की स्थापना करना चाहते थे। परिणामस्वरूप दोनों सेनाओं के मध्य युद्ध आरम्भ हो गया। इस युद्ध में राणा सांगा का साथ मारवाड़, अम्बर, ग्वालियर, अजमेर, हसन ख़ाँ मेवाती, बसीन चंदेरी एवं इब्रहिम लोदी का भाई महमूद लोदी दे रहे थे।

इस युद्ध में राणा सांगा के संयुक्त मोर्चे की ख़बर से बाबर के सैनिकों का मनोबल गिरने लगा। बाबर ने अपने सैनिकों के उत्साह को बढ़ाने के लिए शराब पीने और बेचने पर प्रतिबन्ध की घोषणा कर शराब के सभी पात्रों को तुड़वा कर शराब न पीने की कसम ली, उसने मुसलमानों से ‘तमगा कर’ न लेने की घोषणा की। तमगा उस समय का एक व्यापारिक कर था, जिसे राज्य द्वार लगाया जाता था। इस तरह खानवा के युद्ध में भी पानीपत युद्ध की रणनीति का उपयोग करते हुए बाबर ने राणा सांगा के विरुद्ध एक सफल युद्ध की रणनीति तय की। राजस्थान के ऐतिहासिक काव्य ‘वीर विनोद’ में सांगा और बाबर के इस युद्ध का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है, बाबर बीस हज़ार मुग़ल सैनिकों को लेकर सांगा से युद्ध करने आया था। उसने सांगा की सेना के लोदी सेनापति को प्रलोभन दिया, जिससे वह सांगा को धोखा देकर सेना सहित बाबर से जा मिला। बाबर और सांगा की पहली मुठभेड़ बयाना में और दूसरी उसके पास खानवा नामक स्थान पर हुई थी। राजपूतों ने वीरतापूर्वक युद्ध तो किया, मगर अंत में सांगा की हार हुई। इस विजय में बाबर के सैनिकों की वीरता नहीं, बल्कि उनका आधुनिक तोपख़ाना था। एक समय राजपूतों से युद्ध करते हुए तुर्कों के पैर उखड़ गये थे, जिससे राजपूतों की विजय और तुर्कों की पराजय साफ दिखाई दे रही थी। किंतु जब बाबर के तोपख़ाने ने आग बरसायी, तब सांगा की जीती बाज़ी हार में बदलती नजर आई। इस युद्ध में राणा सांगा अभी हारे नहीं थे वे सिर्फ घायल थे और किसी तरह अपने सहयोगियों द्वारा बचा लिए गए थे, ताकि बाबर के साथ यह युद्ध जारी रह सके मगर हर इतिहास की भांति परन्तु ने स्थान ले लिया…

यह बाबर का षडयंत्र था अथवा किसी सामन्त की सिंहासन की लालसा, उन्हें घायल अवस्था में ही दवा के स्थान पर जहर दे दिया गया। जिसके कारण राणा सांगा की मृत्यु हो गई।

इस प्रकार राणा सांगा ने भारतीय इतिहास पर एक अमिट छाप छोड़ दी। वे १६वी शताब्दी के सबसे शक्तिशाली शासक थे। इनके शरीर पर ८० घाव थे। इनको हिंदुपत की उपाधि दी गयी थी। इतिहास में इनकी गिनती महानायक के रूप में की जाती है।

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