April 26, 2024

वन्दे मातरम्
सुजलां सुफलाम्
मलयजशीतलाम्
शस्यश्यामलाम्
मातरम्।

शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीम्
फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीम्
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्
सुखदां वरदां मातरम्॥ १॥

कोटि कोटि-कण्ठ-कल-कल-निनाद-कराले
कोटि-कोटि-भुजैर्धृत-खरकरवाले,
अबला केन मा एत बले।
बहुबलधारिणीं
नमामि तारिणीं
रिपुदलवारिणीं
मातरम्॥ २॥

तुमि विद्या, तुमि धर्म
तुमि हृदि, तुमि मर्म
त्वम् हि प्राणा: शरीरे
बाहुते तुमि मा शक्ति,
हृदये तुमि मा भक्ति,
तोमारई प्रतिमा गडी मन्दिरे-मन्दिरे॥ ३॥

त्वम् हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमलदलविहारिणी
वाणी विद्यादायिनी,
नमामि त्वाम्
नमामि कमलाम्
अमलां अतुलाम्
सुजलां सुफलाम्
मातरम्॥४॥

वन्दे मातरम्
श्यामलाम् सरलाम्
सुस्मिताम् भूषिताम्
धरणीं भरणीं
मातरम्॥ ५॥

यह गीत आनन्द मठ नामक उपन्यास में अन्तर्निहित है। इस उपन्यास में यह गीत भवानन्द नाम के संन्यासी द्वारा गाया गया है। इसकी धुन यदुनाथ भट्टाचार्य ने बनायी थी। इस गीत को गाने में ६५ सेकेंड का समय लगता है।वर्ष २००३ में, बीबीसी वर्ल्ड सर्विस द्वारा आयोजित एक अन्तरराष्ट्रीय सर्वेक्षण में, जिसमें उस समय तक के सबसे मशहूर दस गीतों का चयन करने के लिये दुनिया भर से लगभग ७,००० गीतों को चुना गया था और बीबीसी के अनुसार १५५ देशों/द्वीप के लोगों ने इसमें मतदान किया था, उसमें वन्दे मातरम् शीर्ष के १० गीतों में दूसरे स्थान पर था। इस गीत के रचनाकार थे, बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय।

बंगला भाषा के प्रसिद्ध रचनाकार बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय का जन्म २६ जून, १८३८ को बंगाल के 24 परगना ज़िले के कांठल पाड़ा नामक गाँव के एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय बंगला के शीर्षस्थ उपन्यासकार हैं। उनकी लेखनी से बंगला साहित्य तो समृद्ध हुआ ही है, हिन्दी भी अपकृत हुई है। वे ऐतिहासिक उपन्यास लिखने में सिद्धहस्त थे। वे भारत के एलेक्जेंडर ड्यूमा माने जाते हैं। इन्होंने १८६५ में अपना पहला उपन्यास ‘दुर्गेश नन्दिनी’ लिखा था।

उनकी शिक्षा हुगली कॉलेज और प्रेसीडेंसी कॉलेज में हुई। १८५७ में उन्होंने बीए पास किया। प्रेसीडेंसी कालेज से बीए की उपाधि लेने वाले ये पहले भारतीय थे। शिक्षा समाप्ति के तुरंत बाद डिप्टी मजिस्ट्रेट पद पर इनकी नियुक्ति हो गई। कुछ समय तक बंगाल सरकार के सचिव पद पर भी रहे। रायबहादुर और सीआई.ई की उपाधियाँ भी पाईं। इन सब के अलावा उन्होने १८६९ में क़ानून की डिग्री हासिल कर उन्होने सरकारी नौकरी कर ली और १८९१ में सेवानिवृत्त हो गए।

बंकिमचंद्र का जन्म उस काल में हुआ था जब बंगला साहित्य का न कोई आदर्श था और न ही कोई रूप अथवा सीमा का कोई विचार। ‘वन्दे मातरम्’ राष्ट्रगीत के रचयिता होने के नाते वे बड़े सम्मान के साथ सदा याद किए जायेंगे। उनकी शिक्षा बंगला के साथ-साथ अंग्रेज़ी व संस्कृत में भी हुई थी। आजीविका के लिए उन्होंने सरकारी सेवा तो की, परन्तु राष्ट्रीयता और स्वभाषा प्रेम उनमें कूट-कूट कर भरा हुआ था। युवावस्था में उन्होंने अपने एक मित्र का अंग्रेज़ी में लिखा हुआ पत्र बिना पढ़े ही इस टिप्पणी के साथ लौटा दिया था कि, ‘अंग्रेज़ी न तो तुम्हारी मातृभाषा है और न ही मेरी’। सरकारी सेवा में रहते हुए भी वे कभी अंग्रेज़ों से दबे नहीं।

साहित्य क्षेत्र में प्रवेश…

बंकिम ने साहित्य के क्षेत्र में कुछ कविताएँ लिखकर प्रवेश किया था। उस समय बंगला में गद्य या उपन्यास कहानी की रचनाएँ कम ही लिखी जाती थीं। बंकिम ने इस दिशा में पथ-प्रदर्शक का कार्य किया। २७ वर्ष की उम्र में उन्होंने ‘दुर्गेश नंदिनी’ नाम का उपन्यास लिखा। इस ऐतिहासिक उपन्यास से ही साहित्य में उनकी धाक जम गई। फिर उन्होंने ‘बंग दर्शन’ नामक साहित्यिक पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया। रबीन्द्रनाथ ठाकुर ‘बंग दर्शन’ में लिखकर ही साहित्य के क्षेत्र में आए। वे बंकिम को अपना गुरु मानते थे। उनका कहना था कि, ‘बंकिम बंगला लेखकों के गुरु और बंगला पाठकों के मित्र हैं’।

रचनाएँ…

बंकिम बाबू की पहचान बांग्ला कवि, उपन्यासकार, लेखक और पत्रकार के रूप में है। उनकी प्रथम प्रकाशित रचना राजमोहन्स वाइफ थी। इसकी रचना अंग्रेजी में की गई थी। उनकी पहली प्रकाशित बांग्ला कृति दुर्गेशनंदिनी मार्च १८६५ में छपी थी। यह एक रूमानी रचना है। दूसरा उपन्यास कपालकुंडला (१८६६) को उनकी सबसे अधिक रूमानी रचनाओं में से एक माना जाता है। उन्होंने १८७२ में मासिक पत्रिका बंगदर्शन का भी प्रकाशन किया। अपनी इस पत्रिका में उन्होंने विषवृक्ष (१८७३) उपन्यास का क्रमिक रूप से प्रकाशन किया। कृष्णकांतेर विल में चटर्जी ने अंग्रेजी शासकों पर तीखा व्यंग्य किया है।

आनंदमठ (१८८२) राजनीतिक उपन्यास है। इस उपन्यास में उत्तर बंगाल में १७७३ के संन्यासी विद्रोह का वर्णन किया गया है। इस पुस्तक में देशभक्ति की भावना है। बंकिम बाबू का अंतिम उपन्यास सीताराम (१८८६) है। इसमें मुस्लिम सत्ता के प्रति एक हिंदू शासक का विरोध दर्शाया गया है।

उनके अन्य उपन्यासों में दुर्गेशनंदिनी, मृणालिनी, इंदिरा, राधारानी, कृष्णकांतेर दफ्तर, देवी चौधरानी और मोचीराम गौरेर जीवनचरित शामिल है। उनकी कविताएं ललिता ओ मानस नामक संग्रह में प्रकाशित हुई। उन्होंने धर्म, सामाजिक और समसामायिक मुद्दों पर आधारित कई निबंध भी लिखे।

बंकिमचंद्र के उपन्यासों का भारत की लगभग सभी भाषाओं में अनुवाद किया गया। बांग्ला में सिर्फ बंकिम और शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय को यह गौरव हासिल है कि उनकी रचनाएं हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाओं में आज भी चाव से पढ़ी जाती है। लोकप्रियता के मामले में बंकिम बाबू, शरद बाबू और रवीन्द्रनाथ ठाकुर से आगे हैं। बंकिम बाबू बहुमुखी प्रतिभा वाले रचनाकार थे। उनके कथा साहित्य के अधिकतर पात्र शहरी मध्यम वर्ग के लोग हैं। इनके पात्र आधुनिक जीवन की त्रासदियों और प्राचीन काल की परंपराओं से जुड़ी दिक्कतों से साथ साथ जूझते हैं। यह समस्या भारत भर के किसी भी प्रांत के शहरी मध्यम वर्ग के समक्ष आती है। लिहाजा मध्यम वर्ग का पाठक बंकिम के उपन्यासों में अपनी छवि देखता है।

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ने एक बार कहा था, राममोहन ने बंग साहित्य को निमज्जन दशा से उन्नत किया, ‘बंकिम ने उसके ऊपर प्रतिभा प्रवाहित करके स्तरबद्ध मूर्ति का अपसरित कर दिया। बंकिम के कारण ही आज बंगभाषा मात्र प्रौढ़ ही नहीं, उर्वरा और शस्यश्यामला भी हो सकी है।’

आधुनिक बंगला साहित्य के एवं राष्ट्रीयता के जनक इस महान चतुर्भुजी नायक ने ८ अप्रैल, १८९४ को इहलोक को छोड़ ऊहलोक के चतुर्भुजी नायक में स्वयं को विलीन कर लिया।

ग्रन्थ…

१. उपन्यास

दुर्गेशनन्दिनी, कपालकुण्डला, मृणालिनी, बिषवृक्ष, इन्दिरा, युगलांगुरीय, चन्द्रशेखर, राधारानी, रजनी, कृष्णकान्तेर उइल, राजसिंह, आनन्दमठ, देबी चौधुरानी, सीताराम, उपकथा (इन्दिरा,युगलांगुरीय और राधारानी त्रयी संग्रह), रज्मोहन्’स वाइफ।

२. प्रबन्ध ग्रन्थ

कमलाकान्तेर दप्तर, लोकरहस्य, कृष्णचरित्र, बिज्ञानरहस्य, बिबिध समालोचना, प्रबन्ध-पुस्तक, साम्य, कृष्ण चरित्र, बिबिध प्रबन्ध।

३. विविध

ललिता (पुराकालिक गल्प), धर्म्मतत्त्ब, सहज रचना शिक्षा, श्रीमद्भगबदगीता, कबितापुस्तक(किछु कबिता, एबं ललिता ओ मानस)।

४. सम्पादित ग्रन्थावली

दीनबन्धु मित्रेर जीबनी, बांगला साहित्ये प्यारीचाँद मित्रेर स्थान, संजीबचन्द्र चट्टोपाध्यायेर जीबनी॥

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