December 4, 2024

छिमा बड़न को चाहिये, छोटन को उतपात।
का रहीम हरि को घट्यौ, जो भृगु मारी लात॥

अर्थात; रहीम कहते हैं कि क्षमा बड़प्पन का स्वभाव है और उत्पात छोटे और ओछे लोगों की प्रवृति। भृगु ऋषि ने भगवान विष्णु को लात मारी, विष्णु ने इस कृत्य पर भृगु को क्षमा कर दिया। इससे विष्णु का क्या बिगड़ा। क्षमा बड़प्पन की निशानी है।

एक मुस्लिम घर में जन्मने के बावजूद से हिंदू जीवन के अंतर्मन में बैठकर रहीम ने जो मार्मिक तथ्य अंकित किये थे, उनकी विशाल हृदयता का परिचय है। हिंदू देवी-देवताओं, पर्वों, धार्मिक मान्यताओं और परंपराओं का जहाँ भी उनके द्वारा उल्लेख किया गया है, पूरी जानकारी एवं ईमानदारी के साथ किया गया है। वे जीवनभर हिंदू जीवन को भारतीय जीवन का यथार्थ मानते रहे। रहीम ने काव्य में रामायण, महाभारत, पुराण तथा गीता जैसे ग्रंथों के कथानकों को उदाहरण के लिए चुना है और लौकिक जीवनव्यवहार पक्ष को उसके द्वारा समझाने का प्रयत्न किया है, जो भारतीय संस्कृति की झलक को पेश करता है।

रहिमन बिद्या बुद्धि नहिं, नहीं धरम, जस, दान।
भू पर जनम वृथा धरै, पसु बिनु पूँछ बिषान॥

अर्थात; रहीम कहते हैं कि जिसमें बुद्धि नहीं और जिसने विद्या नहीं पाई, जिसने धर्म और दान नहीं किया और इस संसार में आकर यश नहीं कमाया; उस व्यक्ति ने व्यर्थ जन्म लिया और वह धरती पर बोझ है। विद्या विहीन व्यक्ति और पशु में सिर्फ़ पूँछ का फ़र्क होता है। यानी ऐसा व्यक्ति बिना पूँछ का पशु होता है।

परिचय…

अब्दुर्रहीम खानखाना का जन्म संवत् १६१३ (१७ दिसम्बर, १५५६) मुगल साम्राज्य अंर्तगत लाहौर में हुआ था। रहीम के पिता बैरम खाँ तेरह वर्षीय अकबर के शिक्षक तथा अभिभावक थे। वे हुमायूँ के साढ़ू और अंतरंग मित्र थे। जब रहीम पाँच वर्ष के ही थे, तब गुजरात के पाटण नगर में वर्ष १५६१ में इनके पिता बैरम खाँ की हत्या कर दी गई। रहीम का पालन-पोषण अकबर ने अपने धर्म-पुत्र की तरह किया। शाही खानदान की परंपरानुरूप रहीम को ‘मिर्जा खाँ’ का ख़िताब दिया गया। रहीम ने बाबा जंबूर की देख-रेख में गहन अध्ययन किया। शिक्षा समाप्त होने पर अकबर ने अपनी धाय की बेटी माहबानो से रहीम का विवाह करा दिया। इसके बाद रहीम ने गुजरात, कुम्भलनेर, उदयपुर आदि युद्धों में विजय प्राप्त की। इस पर अकबर ने अपने समय की सर्वोच्च उपाधि ‘मीरअर्ज’ से रहीम को विभूषित किया। वर्ष १५८४ में अकबर ने रहीम को खान-ए-खाना की उपाधि से सम्मानित किया। रहीम का देहांत ७१ वर्ष की आयु में १ अक्तूबर १६२७ में हुआ। रहीम को उनकी इच्छा के अनुसार दिल्ली में ही उनकी पत्नी के मकबरे के पास ही दफना दिया गया। यह मज़ार आज भी दिल्ली में मौजूद हैं। रहीम ने स्वयं ही अपने जीवनकाल में इसका निर्माण करवाया था। इनके संस्कृत के गुरु बदाऊनी थे।

जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।
चंदन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग॥

अर्थात्; रहीम कहते हैं कि जो व्यक्ति अच्छे स्वभाव का होता है, उसे बुरी संगति भी बिगाड़ नहीं पाती। जैसे ज़हरीले साँप चन्दन के वृक्ष से लिपटे रहने पर भी उस पर कोई ज़हरीला प्रभाव नहीं डाल पाते।

भाषा व शैली…

रहीम ने अवधी और ब्रजभाषा दोनों ही भाषाओं में कविताओं की रचना की है जो सरल, स्वाभाविक और प्रवाहपूर्ण है।

खैर, ख़ून, खाँसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान।
रहिमन दाबे ना दबैं, जानत सकल जहान॥

अर्थात्; रहीम कहते हैं कि सारी दुनिया जानती है कि खैर, ख़ून, खाँसी, ख़ुशी, दुश्मनी, प्रेम और शराब का नशा; ये चीज़ें ना तो दबाने से दबती हैं और ना छिपाने से छिपती हैं।

उनके काव्य में श्रृंगार रस, शांत तथा हास्य रस मिलते हैं। दोहा, सोरठा, बरवै, कवित्त और सवैया उनके प्रिय छंद हैं। रहीम दास जी की भाषा अत्यंत सरल है, उनके काव्य में भक्ति, नीति, प्रेम और श्रृंगार का सुन्दर समावेश मिलता है। उन्होंने सोरठा एवं छंदों का प्रयोग करते हुए अपनी काव्य रचनाओं को किया है। उन्होंने ब्रजभाषा में अपनी काव्य रचनाएं की है। उनके ब्रज का रूप अत्यंत व्यवहारिक, स्पष्ट एवं सरल है। उन्होंने तदभव शब्दों का अधिक प्रयोग किया है। ब्रज भाषा के अतिरिक्त उन्होंने कई अन्य भाषाओं का प्रयोग अपनी काव्य रचनाओं में किया है। अवधी के ग्रामीण शब्दों का प्रयोग भी रहीमजी ने अपनी रचनाओं में किया है, उनकी अधिकतर काव्य रचनाएं मुक्तक शैली में की गई हैं जो कि अत्यंत ही सरल एवं बोधगम्य है।

रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय।
सुनि अठिलैहैं लोग सब, बाँटि न लैहैं कोय॥

अर्थात्; रहीम कहते हैं कि अपने मन के दुःख को मन के भीतर छिपा कर ही रखना चाहिए। दूसरे का दुःख सुनकर लोग इठला भले ही लें, उसे बाँट कर कम करने वाला कोई नहीं होता।

प्रमुख रचनाएं…

१. रहीम दोहावली
२. बरवै
३. नायिका भेद
४. मदनाष्टक
५. रास पंचाध्यायी
६. नगर शोभा आदि।

जे सुलगे ते बुझि गए, बुझे ते सुलगे नाहिं।
रहिमन दाहे प्रेम के, बुझि बुझि कै सुलगाहिं॥

अर्थात्; रहीम कहते हैं कि आग से जलकर लकड़ी सुलग-सुलगकर बुझ जाती है, बुझकर वह फिर सुलगती नहीं। लेकिन प्रेम की आग में दग्ध हो जाने पर प्रेमी बुझकर भी सुलगते रहते हैं।

रहीम का मकबरा…

आवत काज रहीम कहि, गाढ़े बंधु सनेह।
जीरन होत न पेड़ ज्यौं, थामे बरै बरेह॥

अर्थात; गाढ़े समय पर, विपदा के समय स्नेही बंधु ही काम आते हैं। जैसे बरगद अपनी जटाओं के द्वारा सहारा मिलने से कभी जीर्ण अथवा कमज़ोर नहीं होता है। अर्थात् बरगद का पेड़ ज़मीन तक लटकने वाली अपनी जटाओं से धरती से पोषक तत्त्व लेकर सदा नया बना रहता है।

मुगल बादशाह अकबर के नवरत्नों में से एक एवं हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि रहीम का मकबरा दिल्ली के निजामुद्दीन पूर्व में मथुरा रोड पर स्थित है। इस मकबरे का निर्माण रहीम की पत्नी द्वारा करवाया गया था जिसका निर्माण कार्य वर्ष १५९८ में पूर्ण हुआ। १ अक्तूबर, १६२७ को आगरा में मृत्यु के बाद रहीम को इस मकबरे में बनी कब्र में दफनाया गया था। रहीम का मकबरा मुगल बादशाह हुमायूं के मकबरे और सूफी संत हजरत निजामुद्दीन की दरगाह के नजदीक ग्रांड ट्रंक रोड पर बनवाया गया था। किसी समय यह मकबरा मुगल स्थापत्य कला का एक उत्कृ्ष्ट नमूना था। लेकिन वर्ष १७५३ में दिल्ली में सफदरजंग के मकबरे के निर्माण के लिए इस मकबरे की खूबसूरत और नक्काशीदार संगमरमर और बलुआ पत्थर की टाइल्स को निकाल लिया गया, जिसके बाद से यह मकबरा उजाड़ खण्डहर में तब्दील हो गया।

ऊगत जाही किरन सों अथवत ताही काँति।
त्यौं रहीम सुख दुख सवै, बढ़त एक ही भाँति॥

अर्थात्; रहीम कहते हैं कि सूर्य जिन किरणों के साथ उदित होता है, उन्हीं किरणों के साथ अस्त हो जाता है। उसकी कांति गायब, लुप्त हो जाती है। उसी प्रकार सुख और दुःख दोनों एक ही तरह से बढ़ा करते हैं अर्थात सुख एवं दुःख का क्रम सदा बना रहता है।

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