देवेन्द्रनाथ ठाकुर, अवनीन्द्रनाथ ठाकुर, गोपीमोहन ठाकुर, द्वारकानाथ ठाकुर, रवीन्द्रनाथ ठाकुर आदि साहित्यकारों, कवियों, चित्रकारों, दार्शनिकों आदि ने जिस परिवार में अथवा वंश में जन्म लिया था, क्या उस ठाकुर वंश को आप जानते हैं…? अगर नहीं तो आईए संक्षेप में इस तीन सौ वर्ष से भी पुराने एवं बंगाली नवजागरण के समय से ही कलकत्ता के प्रमुख परिवारों में से एक ठाकुर परिवार के इतिहास के बारे में हम जानते हैं…
ठाकुरों का असली उपनाम कुशारी था। वे ररही ब्राह्मण थे और पश्चिम बंगाल के बुर्दवान जिले के कुशल गाँव के निवासी थे। कुशारी नाम या तो उन्हें उसी नाम के कुशल गाँव की वजह से पड़ा था अथवा शाण्डिल्य गोत्र के बंधोपाध्याय से मिला हो सकता है। जो १८वीं सदी में बंगाल के पूर्वी भाग जो अब बांग्लादेश के नाम से जाना जाता है, से आए थे और हुग्ली नदी के बाएँ तट पर बस गए। इस वंश का पहला व्यक्ति पंचानन कुशारी थे जो १७२० में गोविंदपुर इलाके में आकर बस गए थे। कालांतर में जब गोविंदपुर इलाके पर ब्रिटिश का कब्जा हुआ तब इस परिवार की एक शाखा जोरासांको चला गया जो कि सुल्तानी के दक्षिण में था तथा दूसरी शाखा पथुरियाघाट जाकर बस गया।
अब आते हैं मुख्य मुद्दे पर, इसी पथुरियाघाट की पांचवी पीढ़ी में महाराजा सर जतिन्द्रमोहन टैगोर का जन्म हुआ था। हरकुमार टैगोर के पुत्र यानी महाराजा सर जतिन्द्रमोहन टैगोर को पथुरीघाट शाखा की संपत्ति विरासत में मिली थी। जब उनके चाचा प्रसन्न कुमार टैगोर के पुत्र ज्ञानेंद्रमोहन टैगोर ईसाई धर्म में परिवर्तित हुए और इस कारण विरासत से वंचित हो गए, तो उन्हें अपने चाचा की विशाल संपत्ति भी विरासत में मिली।
हरकुमार टैगोर के बेटे और गोपी मोहन टैगोर के पोते महाराजा सर जतिन्द्रमोहन टैगोर का जन्म १६ मई, १८३१ को हुआ था। उन्होने हिंदू कॉलेज में अपनी पढ़ाई पूरी की, और उसके बाद घर पर ही अंग्रेजी और संस्कृत भाषा को पढ़ा। उनके पिता, हरकुमार टैगोर, हिंदू शास्त्रों, संस्कृत और अंग्रेजी के महान विद्वान थे। छोटी उम्र से ही श्री टैगोर ने अंग्रेजी और बंगाली भाषा रचना के लिए असाधारण साहित्यिक प्रदर्शन किया, जिसमें उन्होने कई नाटको और कहानियो को लिखा। इन कार्यों में से एक विद्या सुंदर नाटक था, जिसे उनके निवास पर ही प्रदर्शित किया गया, जिसमे उन्हें आलोचकों की प्रशंसा भी मिली।
उन्होंने कोलकाता में रंगमंच के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया और स्वयं भी वे महान अभिनेता थे। उन्होंने माइकल मधुसूदन दत्ता को तिलोत्तमासम्भव काव्य लिखने के लिए प्रेरित किया और इसे अपने खर्च पर प्रकाशित किया। वर्ष १८६५ में, उन्होंने पथुरीघाट में बंगानाथालय की स्थापना की। वे संगीत के भी अच्छे जानकार थे और सक्रिय रूप से संगीतकारों का समर्थन करते थे, जिनमें से एक, क्षोत्र मोहन गोस्वामी ने इस देश में पहली बार आर्केस्ट्रा की अवधारणा को भारतीय संगीत में पेश किया। वह ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन के अध्यक्ष थे और रॉयल फ़ोटोग्राफ़िक सोसायटी के सदस्य होने वाले पहले भारतीय भी थे।
बहुत महत्वपूर्ण जानकारी से अवगत कराया ।